क्या भारत ‘राजनीतिक असहनशीलता’ के युग की ओर बढ़ रहा है

Edited By Pardeep,Updated: 04 Sep, 2018 04:04 AM

is india moving towards the era of political intolerance

जेहादियों की बात छोड़ो, अब शहरी नक्सलियों की बारी है। पिछले सप्ताह माओवादियों से कथित सम्पर्क रखने वाले 5 कार्यकत्र्ताओं की गिरफ्तारी की गई है। यह विरोध या देशभक्ति के मुद्दों पर चल रहे तूफान का एक प्रमाण है। इस प्रकरण की शुरूआत तब हुई जब पुणे के एक...

जेहादियों की बात छोड़ो, अब शहरी नक्सलियों की बारी है। पिछले सप्ताह माओवादियों से कथित सम्पर्क रखने वाले 5 कार्यकत्र्ताओं की गिरफ्तारी की गई है। यह विरोध या देशभक्ति के मुद्दों पर चल रहे तूफान का एक प्रमाण है। इस प्रकरण की शुरूआत तब हुई जब पुणे के एक निवासी ने जनवरी में पुलिस के पास कला मंच के सदस्यों के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई। 

यह मंच एक सांस्कृतिक समूह है और यह पूर्ववर्ती कांग्रेस-राकांपा सरकार के समय से माओवादियों से सम्पर्क रखने के संदेह में पुलिस की जांच के घेरे में रहा है। इस संगठन के विरुद्ध साम्प्रदायिक भाषण देने तथा पेशवा शासकों और अंग्रेजों के बीच कोरेगांव-भीमा युद्ध को मनाने के लिए भड़काऊ गीत गाने का आरोप भी रहा है जिसके चलते दलितों और उच्च जाति के मराठाओं के बीच पत्थरबाजी और हिंसा भी हुई थी। इस प्रथम सूचना रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने जून में 5 मानव अधिकार कार्यकत्र्ताओं को गिरफ्तार किया था। 

पिछले सप्ताह पुणे पुलिस ने 5 राज्यों में छापेमारी कर 5 और सामाजिक कार्यकत्र्ताओं तथा क्रांतिकारी लेखकों को नक्सलवादियों के साथ संबंध रखने के ठोस सबूतों के आधार पर और मोदी राज को समाप्त करने के लिए राजीव गांधी की हत्या जैसी घटना की योजना बनाने के लिए गिरफ्तार किया। इन लोगों पर माकपा (माओवाद) के लिए पैसा जुटाने, अवैध गतिविधियों में संलिप्त होने, रूस और चीन से हथियार और ग्रेनेड लांचर खरीदने के लिए पैसा जुटाने तथा उच्च राजनीतिक पदाधिकारियों को निशाना बनाने के लिए षड्यंत्र रचने हेतु अन्य अवैध संगठनों से सांठ-गांठ करने का आरोप भी है। इन लोगों को नक्सलियों का संरक्षक कहा गया है जो दशकों से बुद्धिजीवियों और पेशेवरों का मुखौटा पहने हुए हैं तथा जो 35 कालेजों से कार्यकत्र्ताओं की भर्ती करने और हमले करने की योजना बना रहे थे। 

वारावरा राव के पत्र से यह बात सामने आई है कि ‘दुश्मन द्वारा नोटबंदी का निर्णय थोपने के कारण हम गढ़चिरौली और छत्तीसगढ़ में अपने कामरेडों की सहायता करने में सफल नहीं हुए हैं। कृपया मुझे गलत न समझें। भीमा कोरेगांव आंदोलन सफल रहा है। एक युवक की दुर्भाग्यपूर्ण मौत का लाभ उठाया गया। दंगे सफल रहे और हमें भाजपा के उभरते ब्राह्मण केन्द्रित एजैंडा के विरुद्ध दलित लोगों को एकजुट करना चाहिए।’’ इस गिरफ्तारी से इस बात पर संदेह होने लगा कि यह राजनीतिक विरोध पर अंकुश लगाने का एक हिस्सा है। विरोधी नेता इसे अघोषित आपातकाल बता रहे हैं जिसके अंतर्गत केन्द्र के विरुद्ध आवाज उठाने वालों का दमन किया जा रहा है। उनका कहना है कि साक्ष्य कहां हैं। 

कांग्रेस का आरोप है कि यह महाराष्ट्र पुलिस और सरकार द्वारा कार्यकत्र्ताओं को धमकाने की कार्रवाई है जबकि पूर्ववर्ती यू.पी.ए. सरकार ने दिसम्बर 2012 में कहा था कि गिरफ्तार किए गए 10 में से 7 कार्यकत्र्ताओं के माओवादियों से सम्पर्क हैं। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने भी टिप्पणी की, ‘‘विरोध लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व है। यदि आप सेफ्टी वाल्व को कार्य करने नहीं दोगे तो प्रैशर कुक्कर फट जाएगा’’ और आदेश दिया कि इन कार्यकत्र्ताओं को 6 सितम्बर तक नजरबंद रखा जाए। इससे प्रश्न उठता है कि क्या ये गिरफ्तारियां उचित थीं? क्या पुलिस ने पुख्ता मामला बनाया है? क्या ये गिरफ्तारियां माओवादियों के षड्यंत्र की जांच का परिणाम हैं? या यह उन लोगों के बीच अंतर करने में विफलता है जो हिंसक गतिविधियों का सक्रिय रूप से समर्थन करते हैं और जो उन सामाजिक दशाओं को समझने या उनके साथ सहानुभूति रखते हैं जिनके चलते अतिवाद और उग्रवाद उपजा है? क्या यह कार्रवाई राजनीतिक व्हिच हंट है? क्या भारत राजनीतिक असहिष्णुता के युग की ओर बढ़ रहा है? 

पुलिस इन कार्यकत्र्ताओं पर पहले ही आरोप लगा रही है कि उन्होंने भीमा कोरेगांव में जनवरी में ङ्क्षहसा भड़काने के अलावा कई अन्य कार्य किए हैं, जहां पर एक दलित सम्मेलन में कथित रूप से भड़काऊ भाषण देने से विवाद पैदा हुआ था और बाद में यह सी.पी.आई. माओवाद के एक बड़े षड्यंत्र के रूप में सामने आया। सी.पी.आई. माओवाद के 2004 के शहरी परिदृश्य नामक एक दस्तावेज में शहरी नक्सलियों पर प्रकाश डाला गया है और उन्हें ऐसा व्यक्ति माना गया है जो शहरी क्षेत्रों में रहते हैं तथा कार्यकत्र्ता और नक्सल विचारधारा के समर्थक और संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं और जो समाज में मतभेद पैदा करने के लिए कार्यरत हैं। लोगों से कहते हैं कि वे व्यवस्था में विश्वास न करें और उन्हें विद्रोह करने के लिए भड़काते हैं। 

शहरी नक्सलवाद बुद्धिजीवी, प्रभावित करने वाले, वकील, मानव अधिकार कार्यकत्र्ता आदि हो सकते हैं। इस दस्तावेज में कहा गया है कि वे कामगार वर्ग को संगठित करने के लिए कार्य करें जो हमारी क्रांति का नेतृत्व है। शहरी क्षेत्रों में पार्टी का कार्य कामगार वर्ग, छात्र, मध्यम वर्गीय कर्मचारियों, बुद्धिजीवियों, महिलाओं, दलितों और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित लोगों को एकजुट करना और एक संयुक्त मोर्चा बनाना है। ग्रामीण क्षेत्रों में सशस्त्र संघर्ष और आंदोलन उसका मुख्य कार्य है किंतु शहरी क्षेत्रों में वे गौण भूमिका निभाएंगे और उनके शहरी कार्यों में सहायता करेंगे। शहरी आंदोलन ग्रामीण क्षेत्रों में कॉडर भेजेंगे, दुश्मन के संगठनों में घुसपैठ करेंगे, मुख्य उद्योगों में कामगारों को संगठित करेंगे और शहरी जनता की भागीदारी के बिना सम्पूर्ण देश में विजय पाना मुश्किल है। इस दस्तावेज में हिन्दू फासीवादी ताकतों के विरुद्ध सभी धर्मनिरपेक्ष ताकतों और पीड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों का एक संयुक्त मोर्चा बनाए जाने की दिशा में कार्य किया जाना चाहिए, कहा गया है। 

पोलित ब्यूरो की रणनीति के अनुसार शहरी नक्सलवादी स्थिति का लाभ उठाकर विरोध प्रदर्शन आयोजित करते हैं और नाराज लोगों को एकजुट कर पार्टी का विस्तार करते हैं। वे छात्रों को विभिन्न कालेजों में एडमिशन लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और उनसे कहते हैं कि वे वहां फेल होते रहें ताकि वे कालेज परिसरों में लम्बे समय तक रह सकें और युवकों में अपनी विचारधारा का प्रसार करते रहें। इस दस्तावेज में पार्टी की सैन्य रणनीति को भी स्पष्ट किया गया है जिसके अंतर्गत उन ग्रामीण क्षेत्रों में अड्डे बनाए जाएं जहां पर दुश्मन सैनिक दृष्टि से कमजोर है और फिर शहरी क्षेत्रों पर कब्जा किया जाए जोकि दुश्मन का गढ़ है। 

यह सच है कि कार्यकत्र्ता और बुद्धिजीवी कानून से ऊपर नहीं हैं किंतु महाराष्ट्र पुलिस को सी.पी.आई. माओवाद से जुड़े इन कार्यकत्र्ताओं के विरुद्ध ठोस मामले बनाने होंगे जो पहले से भीमा कोरेगांव में हिंसा फैलाने के आरोपी हैं। नि:संदेह यह स्पष्ट संदेश दिया जाना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति, समूह या संगठन हिंसा की धमकी नहीं दे सकता है और यदि वे ऐसा करते हैं तो वे सुनवाई के अपने लोकतांत्रिक अधिकार को खो सकते हैं। तथापि आरोपों और हत्या के षड्यंत्रों की अपुष्ट खबरों के मद्देनजर साक्ष्य जुटाने की जिम्मेदारी पुलिस की है और यह एक बड़ी जिम्मेदारी है। जब तक साक्ष्य नहीं जुटाए जाते तब तक इससे यह गलतफहमी पैदा होगी कि विरोधका दमन करने के लिए कानून को तोड़ा-मरोड़ा गया है। 

यह सच है कि एक अरब से अधिक जनसंख्या वाले देश में अनेक मत रखने वाले लोग होंगे और कोई भी व्यक्ति लोगों के विरोध के मूल अधिकार का दमन नहीं कर सकता है इसलिए यह बात जनता पर छोड़ देनी चाहिए। आज हमारे समाज में जिस तरह से सहिष्णुता कम होती जा रही है वह एक चिंता का विषय है। सरकार को यह बात ध्यान में रखनी होगी कि विरोध एक जीवंत लोकतंत्र का संकेत है और उसे इस बात पर ध्यान देना होगा।-पूनम आई. कौशिश

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