क्या बैंक जनता को लूटने के लिए ही हैं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 26 Feb, 2018 03:07 AM

is the bank only for robbing the public

2015 में मैंने ‘बैंकों के फ्रॉड’ पर तीन लेख लिखे थे। आज देश का हर नागरिक इस बात से हैरान-परेशान है कि उसके खून-पसीने की जो कमाई बैंक में जमा की जाती रही, उसे

2015 में मैंने ‘बैंकों के फ्रॉड’ पर तीन लेख लिखे थे। आज देश का हर नागरिक इस बात से हैरान-परेशान है कि उसके खून-पसीने की जो कमाई बैंक में जमा की जाती रही, उसे मुट्ठीभर उद्योगपति दिन-दिहाड़े लूटकर विदेश भाग रहे हैं। बैंकों के मोटे कर्जे को उद्योगपतियों द्वारा हजम किए जाने की प्रवृत्ति नई नहीं है, पर अब इसका आकार बहुत बड़ा हो गया है। 

एक तरफ तो 1 लाख रुपए का कर्जा न लौटा पाने की शर्म से गरीब किसान आत्महत्या कर रहे हैं और दूसरी तरफ 10-20 हजार करोड़ रुपया लेकर विदेश भागने वाले नीरव मोदी पंजाब नैशनल बैंक को अंगूठा दिखा रहे हैं। उन लेखों में इस बैंकिंग व्यवस्था के मूल में छिपे फरेब को मैंने अंतर्राष्ट्रीय उदाहरणों से स्थापित करने का प्रयास किया था। सीधा सवाल यह है कि भारत के जितने भी लोगों ने अपना पैसा भारतीय या विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, अगर वे सब कल सुबह इसे मांगने अपने बैंकों में पहुंच जाएं, तो क्या यह बैंक 10 फीसदी लोगों को भी उनका जमा पैसा लौटा पाएंगे? 

जवाब है ‘नहीं’ क्योंकि इस बैंकिंग प्रणाली में जब भी सरकार या जनता को कर्ज लेने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है तो वे ब्याज समेत पैसा लौटाने का वायदा लिखकर बैंक के पास जाते हैं। बदले में बैंक उतनी ही रकम आपके खातों में लिख देते हैं। इस तरह से देश का 95 फीसदी पैसा व्यावसायिक बैंकों ने खाली खातों में लिखकर पैदा किया है, जो सिर्फ खातों में ही बनता है और लिखा रहता है। भारतीय रिजर्व बैंक मात्र 5 प्रतिशत मुद्रा ही छापता है, जोकि कागज के नोट के रूप में हमें दिखाई पड़ते हैं, इसलिए बैंकों ने 1933 में गोल्ड स्टैंडर्ड खत्म कराकर आपके रुपए की ताकत खत्म कर दी। 

अब आप जिसे रुपया समझते हैं, दरअसल वह एक रुक्का है जिसकी कीमत कागज के ढेर से ज्यादा कुछ भी नहीं। इस रुक्के पर क्या लिखा है, ‘मैं धारक को दो हजार रुपए अदा करने का वचन देता हूं’ यह कहता है भारत का रिजर्व बैंक जिसकी गारंटी भारत सरकार लेती है, इसलिए आपने देखा होगा कि सिर्फ एक के नोट पर भारत सरकार लिखा होता है और बाकी सभी नोटों पर रिजर्व बैंक लिखा होता है। इस तरह से लगभग सभी पैसा बैंक बनाते हैं, पर रिजर्व बैंक के पास जितना सोना जमा है, उससे कई दर्जन गुना ज्यादा कागज के नोट छापकर रिजर्व बैंक देश की अर्थव्यवस्था को झूठे वायदों पर चला रहा है। जबकि 1933 से पहले हर नागरिक को इस बात की तसल्ली थी कि जो कागज का नोट उसके हाथ में है, उसे लेकर वह अगर बैंक जाएगा तो उसे उसी मूल्य का सोना या चांदी मिल जाएगा। कागज के नोटों के प्रचलन से पहले चांदी या सोने के सिक्के चला करते थे। उनका मूल्य उतना ही होता था जितना उस पर अंकित रहता था यानी कोई जोखिम नहीं था। 

पर अब आप बैंक में अपना एक लाख रुपया जमा करते हैं तो बैंक अपने अनुभव के आधार पर उसका मात्र 10 फीसदी रोक कर 90 फीसदी कर्जे पर दे देता है और उस पर ब्याज कमाता है। अब जो लोग यह कर्जा लेते हैं, वह भी इसे आगे सामान खरीदने में खर्च कर देते हैं। जो उस बिक्री से कमाता है, वह सारा पैसा फिर बैंक में जमा कर देता है यानी 90 हजार रुपए बाजार में घूमकर फिर बैंक में ही आ गए। अब फिर बैंक इसका 10 फीसदी रोक कर 81 हजार रुपया कर्ज पर दे देता है और उस पर फिर ब्याज कमाता है। फिर वह 81 हजार रुपया बाजार में घूमकर बैंकों में वापस आ जाता है। फिर बैंक उसका 10 फीसदी रोककर बाकी को बाजार में दे देता है और इस तरह से बार-बार कर्ज देकर और हर बार ब्याज कमाकर जल्द ही वह स्थिति आ जाती है कि बैंक आप ही के पैसे का मूल्य चुराकर बिना किसी लागत के 100 गुनी संपत्ति अर्जित कर लेता है। इस प्रक्रिया में हमारे रुपए की कीमत लगातार गिर रही है। आप इस भ्रम में रहते हैं कि आपका पैसा बैंक में सुरक्षित है। 

दरअसल, वह पैसा नहीं, केवल एक वायदा है, जो नोट पर छपा है, पर उस वायदे के बदले (नोट के) अगर आप जमीन, अनाज, सोना या चांदी मांगना चाहें तो देश के कुल 10 फीसदी लोगों को ही बैंक ये सब दे पाएंगे। 90 फीसदी के आगे हाथ खड़े कर देंगे कि न तो हमारे पास सोना-चांदी है, न संपत्ति है और न ही अनाज यानी पूरा समाज वायदों पर खेल रहा है और जिसे आप नोट समझते हैं, उसकी कीमत रद्दी से ज्यादा कुछ नहीं है। आज से लगभग 3 सौ वर्ष पहले (1694 ई.) यानी ‘बैंक ऑफ  इंगलैंड’ के गठन से पहले सरकारें मुद्रा का निर्माण करती थीं। चाहे वह सोने-चांदी में हो या अन्य किसी रूप में। इंगलैंड की राजकुमारी मैरी से 1677 में शादी करके विलियम तृतीय 1689 में इंगलैंड का राजा बन गया। कुछ दिनों बाद उसका फ्रांस से युद्ध हुआ तो उसने मनी चेंजर्स से 12 लाख पाऊंड उधार मांगे।

उसे दो शर्तों के साथ ब्याज देना था, मूल वापस नहीं करना था- (1) मनी चेंजर्स को इंगलैंड के पैसे छापने के लिए एक केन्द्रीय बैंक ‘बैंक ऑफ इंगलैंड’ की स्थापना की अनुमति देनी होगी। (2) सरकार खुद पैसे नहीं छापेगी और बैंक सरकार को भी 8 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से कर्ज देगा जिसे चुकाने के लिए सरकार जनता पर टैक्स लगाएगी। इस प्रणाली की स्थापना से पहले दुनिया के देशों में जनता पर लगने वाले कर की दरें बहुत कम होती थीं और लोग सुख-चैन से जीवन बसर करते थे, पर इस समझौते के लागू होने के बाद पूरी स्थिति बदल गई। अब मुद्रा का निर्माण सरकार के हाथों से छिनकर निजी लोगों के हाथ में चला गया यानी महाजनों (बैंकर) के हाथ में चला गया जिनके दबाव में सरकार को लगातार करों की दरें बढ़ाते जाना पड़ा। 

जब भी सरकार को पैसे की जरूरत पड़ती थी, वह इन केन्द्रीयकृत बैंकों के पास जाते और ये बैंक जरूरत के मुताबिक पैसे का निर्माण कर सरकार को सौंप देते थे। मजे की बात यह थी कि पैसा निर्माण करने के पीछे इनकी कोई लागत नहीं लगती थी। ये अपना जोखिम भी नहीं उठाते थे। बस मुद्रा बनाई और सरकार को सौंप दी। इन बैंकर्स ने इस तरह इंगलैंड की अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में लेने के बाद अपने पांव अमरीका की तरफ पसारने शुरू किए। इसी क्रम में 1934 में इन्होंने ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ की स्थापना करवाई। शुरू में भारत का रिजर्व बैंक निजी हाथों में था, पर 1949 में इसका राष्ट्रीयकरण हो गया। 1947 में भारत को राजनीतिक आजादी तो मिल गई लेकिन आर्थिक गुलामी इन्हीं बैंकरों के हाथ में रही क्योंकि इन बैंकरों ने ‘बैंक ऑफ इंटरनैशनल सैटलमैंट’ बनाकर सारी दुनिया के केन्द्रीय बैंकों पर कब्जा कर रखा है और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था वहीं से नियंत्रित कर रहे हैं। 

रिजर्व बैंक बनने के बावजूद देश का 95 फीसदी पैसा आज भी निजी बैंक बनाते हैं। वह इस तरह कि जब भी कोई सरकार, व्यक्ति, जनता या उद्योगपति उनसे कर्ज लेने जाता है तो वह कोई नोटों की गड्डियां या सोने की अशर्फियां नहीं देते, बल्कि कर्जदार के खाते में कर्ज की मात्रा लिख देते हैं। इस तरह इन्होंने हम सबके खातों में कर्जे की रकमें लिखकर पूरी देश की जनता को और सरकार को टोपी पहना रखी है। इस काल्पनिक पैसे से भारी मांग पैदा हो गई है जबकि उसकी आपूर्ति के लिए न तो इन बैंकों के पास सोना है, न ही संपत्ति और न ही कागज के छपे नोट क्योंकि नोट छापने का काम रिजर्व बैंक करता है और वह भी केवल 5 फीसदी तक नोट छापता है यानी सारा कारोबार छलावे पर चल रहा है। 

इस खूनी व्यवस्था का दुष्परिणाम यह है कि रात-दिन खेतों, कारखानों में मजदूरी करने वाले किसान-मजदूर हों, अन्य व्यवसायों में लगे लोग या व्यापारी और मझोले उद्योगपति, सब इस मकडज़ाल में फंसकर रात-दिन मेहनत कर रहे हैं। उत्पादन कर रहे हैं और उस पैसे का ब्याज दे रहे हैं जो पैसा इन बैंकों के पास कभी था ही नहीं यानी हमारे राष्ट्रीय उत्पादन को एक झूठे वायदे के आधार पर ये बैंकर अपनी तिजोरियों में भर रहे हैं और देश की जनता और केन्द्र व राज्य सरकारें कंगाल हो रही हैं। सरकारें कर्जे पर डूब रही हैं, गरीब आत्महत्या कर रहा है, महंगाई बढ़ रही है और विकास की गति धीमी पड़ी है। हमें गलतफहमी यह है कि भारत का रिजर्व बैंक भारत सरकार के नियंत्रण में है। एक तरफ बैंकिंग व्यवस्था हमें लूट रही है और दूसरी तरफ नीरव मोदी जैसे लोग इस व्यवस्था की कमजोरी का फायदा उठाकर हमें लूट रहे हैं। 

भारत आज तक अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक उथल-पुथल से इसीलिए अछूता रहा कि हर घर के पास थोड़ा या ज्यादा सोना और धन गुप्त रूप से रहता था। अब तो वह भी नहीं रहा। किसी भी दिन अगर कोई बैंक अपने को दिवालिया घोषित कर दे तो सभी लोग हर बैंक से अपना पैसा निकालने पहुंच जाएंगे। बैंक दे नहीं पाएंगे। ऐसे में सारी बैंकिंग व्यवस्था एक रात में चरमरा जाएगी। क्या किसी को चिंता है?-विनीत नारायण

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