क्या राज्यपाल केन्द्र का ‘पिट्ठू’ होता है

Edited By Pardeep,Updated: 04 Dec, 2018 03:39 AM

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‘‘अगर दिल्ली की तरफ देखता तो लोन की सरकार बनती और मैंं इतिहास में एक बेईमान आदमी के तौर पर जाना जाता इसलिए मैंने यह कदम उठाया। अब ये जो गाली देंगे सो देंगे लेकिन मैं कनविंस हूं कि मैंने सही किया।’’ ये शब्द जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के...

‘‘अगर दिल्ली की तरफ देखता तो लोन की सरकार बनती और मैंं इतिहास में एक बेईमान आदमी के तौर पर जाना जाता इसलिए मैंने यह कदम उठाया। अब ये जो गाली देंगे सो देंगे लेकिन मैं कनविंस हूं कि मैंने सही किया।’’ ये शब्द जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के हैं। यही नहीं, अगले दिन उन्होंने कहा, ‘‘अपने आप में पता नहीं कब तबादला हो जाए। नौकरी तो नहीं जाएगी, तबादले का खतरा है।’’ वस्तुत: यह बयान देकर उन्होंने इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा दिया है और इस तरह से उन्होंने भारत की राजनीति के उस रहस्य को उजागर कर दिया है कि राज्यपाल केन्द्र का पि_ू होता है जो अपने राजनीतिक आकाओं के अनुसार कार्य करता है। 

अपनी बात स्पष्टत: कहकर मलिक ने नि:संदेह इस बात का खुलासा कर दिया कि केन्द्र चाहता था कि वह 2 विधायकों वाली सज्जाद लोन की पीपुल्स कांफ्रैंस की सरकार बनाए जो दावा कर रहे थे कि उन्हें भाजपा के 26 और 18 अन्य विधायकों का समर्थन प्राप्त है। दूसरी ओर महबूबा मुफ्ती की पी.डी.पी. ने अपने 28 विधायकों, अब्दुल्ला की नैशनल कांफ्रैंस के 15 और राहुल की कांग्रेस के 12 विधायकों के साथ गठबंधन कर 87 सदस्यीय विधानसभा में 56 सदस्यों के समर्थन का दावा कर अपनी सरकार बनाने का दावा रखा था। यह एक तरह से मई में कर्नाटक, मार्च में मेघालय, और पिछले वर्ष गोवा व मणिपुर की पुनरावृत्ति होती जब केन्द्र के आज्ञाकारी राज्यपालों ने उन राज्यों में भाजपा की सरकार बनाई, हालांकि पार्टी को उन राज्यों में बहुमत प्राप्त नहीं था।

केवल भाजपा ही दोषी नहीं
किंतु इस मामले में केवल भाजपा को ही क्यों दोष दें? आज के अवसरवादी युग में कांग्रेस भी ऐसी हेराफेरी करने में माहिर है और उसने भी राजभवनों को पार्टी कार्यालय का विस्तार बना दिया था। राज्यपालों द्वारा नियमों की गलत व्याख्या और अपनी मर्जी से व्याख्या करना आम बात हो गई है। वे अक्सर अपने निष्कर्ष निकालते हैं और केन्द्र में अपने माई-बाप की मर्जी के अनुसार निर्णय देते हैं। 2008 में मेघालय 2007 और 2011 में कर्नाटक, 2005 में गोवा, बिहार और झारखंड इसके उदाहरण हैं। 1971-81 के दौरान राज्यपाल के पद का दुरुपयोग करते हुए 27 राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया था और 1983 आते-आते 70 बार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। 

क्षेत्रीय पार्टियों की सरकारों, जैसे संयुक्त मोर्चा, जनता पार्टी और तीसरे मोर्चे की सरकारों ने राज्यपाल को अपना पिछलग्गू बनाकर इस पद का उपयोग, दुरुपयोग और कुप्रयोग किया तथा विपक्ष शासित राज्यों की सरकारें गिराने के लिए इस पद का दुरुपयोग किया गया। केन्द्र की मर्जी के चलते विभिन्न राज्यों में 120 बार अनुच्छेद 356 लागू किया गया और जब इसे लागू किया गया तो इसकी बहुत आलोचना हुई किंतु इसका उपयोग सभी दलों ने किया इसलिए इस मामले में सब चोर-चोर मौसेरे भाई हैं। संविधान निर्माताओं ने कभी इस बात की कल्पना भी नहीं की होगी। आज राज्यपाल की नियुक्ति का मानदंड यह नहीं रह गया कि वह प्रतिष्ठित व्यक्ति हो और उसकी सत्यनिष्ठा व निष्पक्षता संदेह से परे हो अपितु वह केन्द्र का यस मैन और चमचा हो। इससे स्थिति ऐसी बन गई है कि वर्तमान में 60 प्रतिशत राज्यपाल सक्रिय राजनेता हैं तथा बाकी आज्ञाकारी नौकरशाह, पुलिस अधिकारी और सैन्य अधिकारी हैं। 

सेवानिवृत्ति के बाद का उपहार
वस्तुत: यह पद आज्ञाकारी अधिकारियों के लिए सेवानिवृत्ति के बाद का विदाई उपहार बन गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि विशेषकर विपक्ष शासित राज्यों में राज्यपाल केन्द्र का एक औजार बन गया है। शासन आज नौटंकी बन गई है और इसके नियमों को बदला जा रहा है, लोकतंत्र को पलटा जा रहा है, नियमों को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। मोदी का राजग भी वी.पी. सिंह के राष्ट्रीय मोर्चा, वाजपेयी के राजग या 2004 के यू.पी.ए. से अलग नहीं है जिन्होंने पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा नियुक्त राज्यपालों से त्यागपत्र दिलाया। 2014 के बाद 9 राज्यपालों ने त्यागपत्र दिया है। 

केरल की शीला दीक्षित, महाराष्ट्र के शंकर नारायण, पश्चिम बंगाल के नारायणन, उत्तर प्रदेश में जोशी, पुड्डुचेरी में कटारिया, गोवा में वांचू, नागालैंड में अश्विनी कुमार, छत्तीसगढ़ में शेखर दत्त और मिजोरम में पुरुषोत्तमन ने त्यागपत्र दिया। हालांकि इस संबंध में 2010 में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि सरकार बदलना राज्यपाल बदलने का मानदंड नहीं है, भले ही वे नीतियों और राजनीतिक विचारधारा में केन्द्र से अलग रुख क्यों न अपनाते हों। राज्यपाल परोक्ष  रूप में प्रशासन चलाता है। वह केन्द्र की शह पर तुच्छ राजनीति करता है, राज्य प्रशासन में हस्तक्षेप करता है और पक्षपातपूर्ण निर्णय लेता है, फाइलें मंगवाता है, मंत्रियों और नौकरशाहों को बुलाता है, राज्य सरकार के विरुद्ध आवाज उठाने वालों की सुनवाई करता है। कुल मिलाकर वह हर कदम पर मुख्यमंत्री के लिए समस्याएं खड़ी करता है और यह पद उसे सक्रिय राजनति में आने में भी सहायता करता है। 

मुख्यमंत्रियों के कामकाज में राजनीति करने से राज्यपालों को रोकने के लिए न्यायमूर्ति वेंकटचलैया की अध्यक्षता में संविधान समीक्षा आयोग ने बदलावों की सिफारिश की थी। आयोग चाहता था कि मुख्यमंत्री का चुनाव विधानसभा द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाए ताकि राजभवन में बहुमत सिद्ध करना न पड़े। आयोग का मानना था कि इससे विधायकों की खरीद-फरोख्त पर रोक लगेगी। सरकारिया आयोग ने भी कहा था कि राज्यपाल की भूमिका एक संवैधानिक प्रहरी और केन्द्र तथा राज्यों के बीच एक महत्वपूर्ण संपर्क की है। स्वतंत्र संवैधानिक पदधारी होने के कारण राज्यपाल केन्द्र सरकार का अधीनस्थ या आज्ञाकारी एजैंट नहीं है। आयोग ने यह भी सुझाव दिया था कि राज्यपाल की नियुक्ति संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री के परामर्श से की जाए और उच्चतम न्यायालय ने भी इसका समर्थन किया था। 

राज्यपाल की भूमिका
विशेषज्ञों का कहना है कि राज्यपाल की भूमिका राज्य का प्रतिनिधित्व करना, अपने राज्य के लोगों की सेवा करना और केन्द्र सरकार के साथ उनके हितों की लड़ाई लडऩा है न कि उसके विपरीत। उसकी भूमिका अपनी मंत्रिपरिषद के मित्र, दार्शनिक और मार्ग निर्देशक की है और उसे असीमित विवेकाधिकार प्राप्त हैं। उसे दलगत राजनीति की बजाय राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखना होगा। संविधान ने उससे परामर्श करने, उसे चेतावनी देने और प्रोत्साहन देने का अधिकार देकर अपनी सरकार के निर्णयों को प्रभावित करने की शक्ति दी है। 

मलिक ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्यपाल से क्या अपेक्षा की जाती है। राज्यपाल से निष्पक्षता, ईमानदारी, संवैधानिक दायित्वों, मूल्यों और कत्र्तव्यों के पालन की अपेक्षा की जाती है। हो सकता है कि वह किसी पार्टी से संबंध रखता हो किंतु राज्यपाल पद पर नियुक्त होने के बाद उसे अपने पद की गरिमा और संवैधानिक मूल्यों के अनुसार आचरण करना चाहिए। उन्होंने राज्य में सरकार के गठन में विधायकों की खरीद-फरोख्त, पैसे के संभावित लेन-देन की आशंकाएं देखीं और इसलिए उन्होंने विधानसभा भंग कर दी। क्या वह इसके अपवाद हैं? ऐसा कहना जल्दबाजी होगा। उन्होंने खुद स्वीकार किया है कि उनका तबादला हो सकता है। अन्य राज्यपालों को ध्यान में रखना होगा कि लोकतंत्र का तात्पर्य संविधान का सम्मान करना और सुस्थापित परम्पराओं को स्वीकार करना तथा संविधान की मूल भावना को समझना है न कि टकराव। 

कुल मिलाकर समय आ गया है कि राज्यपाल पद के संबंध में राजनीति से ऊपर उठा जाए और तटस्थ गैर-राजनीतिक राज्यपालों की नियुक्ति कर इस उच्च संवैधानिक पद के लिए स्वस्थ और सम्मानजनक परिपाटी विकसित की जाए। व्यक्ति नहीं अपितु संस्थाएं महत्वपूर्ण होती हैं। व्यक्ति के साथ जैसे का तैसा व्यवहार किया जा सकता है किंतु राज्य के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता है।-पूनम आई. कौशिश

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