Edited By Punjab Kesari,Updated: 01 Jun, 2017 11:17 PM
किसानों के लिए मुगल शासन मूल रूप में एक शोषक सत्ता था जिसमें जनता की रखवाली के...
किसानों के लिए मुगल शासन मूल रूप में एक शोषक सत्ता था जिसमें जनता की रखवाली के नाम पर बहुत लूटपाट होती थी। भूमि का लगान आमतौर पर इसकी उपजाऊ शक्ति के अनुसार फसल का 33 से 50 प्रतिशत तक होता था। इसके अलावा जमींदार भी अपने प्रयासों के लिए किसानों से 10 से 25 प्रतिशत फसल की हिस्सेदारी वसूल करता था। मुगलों के स्थान पर ईस्ट इंडिया कम्पनी और बाद में ब्रिटिश सरकार आने से किसानों को बहुत कम राहत हासिल हुई थी।
ब्रिटिश काल में जमींदारों को भू-स्वामित्व के पुश्तैनी अधिकार दिए गए थे और लगान का आकलन (बंदोबस्त) भी स्थायी रूप में कर दिया गया था। जमींदार द्वारा अपने रैय्यतों से हासिल किए गए कुल अनाज में कम्पनी की हिस्सेदारी अक्सर दो-तिहाई तय की जाती थी। इस भारी-भरकम लगान प्रणाली का परिणाम यह निकला कि 1891 से लेकर 1947 के बीच कृषि उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर मात्र 0.37 प्रतिशत थी। इसमें से खाद्यान्न की वृद्धि दर तो 0.11 प्रतिशत ही थी जबकि व्यावसायिक फसलों के उत्पादन में 1.31 प्रतिशत सालाना की दर से वृद्धि हुई थी लेकिन इसी अवधि में आबादी की वृद्धि 0.67 प्रतिशत सालाना थी। इस प्रकार औपनिवेशिक सरकार ने किसानों को भारी कर्जों में धकेल दिया और आखिर उनकी हालत भिखारियों जैसी हो गई।
स्वतंत्रता के बाद केन्द्र और राज्य सरकारों ने इस स्थिति को सुधारने का प्रयास किया। कृषि सुधार समिति का 1949 में गठन हुआ और इसने भूमि सुधारों के ऐसे कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की जो वास्तविक काश्तकारों को बड़ी संख्या में जमीनी मालिकी प्रदान कर सकता था। लेकिन सरकार ने इस समिति की सिफारिशों को यथारूप में लागू करने की बजाय बिचौलियों को समाप्त करने के लिए कदम-दर-कदम की योजना लागू की जिससे जमींदारों को मौजूदा मुजारे जमीन से बेदखल करने का प्रोत्साहन मिला जिससे वे अधिक गरीबी में डूब गए। केन्द्र सरकार ने कृषि आय पर कोई भी कर न लगाने की घोषणा की और अधिकतर राज्यों ने इस नीति का अनुसरण किया।
फिर भी कृषि उत्पादन में तेजी आने के मद्देनजर कृषि आय पर टैक्स लगाने की मांग उठने लगी है। 2014 के अंत तक दायर की गई आयकर रिटर्नों में करदाताओं ने जिस कृषि आय की घोषणा की थी उसके आधार पर 9338 करोड़ रुपए की छूट दी गई थी। इसमें से 2746 मामले ऐसे थे जिन्होंने 2014-15 के लिए 1 करोड़ से अधिक कृषि आय की घोषणा की थी। नैशनल सैम्पल सर्वे कार्यालय के अनुसार जुताई और पशुपालन से देश की अनुमानित वाॢषक कृषि आय 4,16,092.5 करोड़ है। 9,73,000 बड़े भू-स्वामियों के पास औसतन 10 हैक्टेयर से अधिक भूमि है और उनकी वाॢषक आय भी लगभग 5 लाख रुपए है। इस पर आयकर लगाने से लगभग 1200 करोड़ रुपए तक की आमदन हो सकती है।
वैसे कृषि पर आयकर लगाने की बात कोई पहली बार नहीं हो रही। 1972 में कृषि सम्पत्ति और आमदन पर टैक्स के विषय में विचार करने के लिए के.एन. राज समिति गठित की गई थी। इसने विभिन्न क्षेत्रीय परिस्थितियों तथा फसल के औसत उत्पादन को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग आयकर स्लैब्ज की सिफारिश की थी। इन सिफारिशों में यह भी प्रावधान था कि समूचे कृषक वर्ग पर आयकर की कम या अधिक दर लागू की जाए लेकिन इस समिति की सिफारिशें मानी नहीं गई थीं क्योंकि जमीनी स्तर पर इन्हें बहुत अधिक राजनीतिक समर्थन हासिल नहीं हुआ था।
कृषि आय पर टैक्स में सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि औपचारिक बेरोजगार व्यवस्था न होने के कारण इस टैक्स को लागू करना आसान नहीं है। साथ ही बाढ़, सूखे तथा फसलों पर कीट हमले की स्थितियों में अलग से प्रावधान करना पड़ता है। सबसे बड़ा खतरा तो यह है कि किसान को बेशक फसल बेचने के बाद वास्तव में घाटा हुआ हो तो भी वह टैक्स से नहीं बच पाएगा। भूमि की उपजाऊ शक्ति, फसल की उत्पादकता और अलग-अलग फसलों के बिक्री मूल्य को लेकर प्रशासन को इतनी अधिक कवायद करनी पड़ेगी कि जितना आयकर सरकार को हासिल होगा उससे कहीं अधिक खर्च आ जाएगा।
देश भर में न तो बटाईदारी और पट्टेे की एक जैसी व्यवस्था है और न ही फसल उत्पादन में कोई समानता है। वास्तव में जो लोग कृषि आयकर पर टैक्स की वकालत करते हैं उन्हें कृषि जगत की विभिन्न पद्धतियों व परिस्थितियों के बारे में आधारभूत जानकारी नहीं। एक वर्ष में फसल बढिय़ा हो जाने पर तो उस पर टैक्स लग जाएगा लेकिन उसके बाद यदि लगातार कुछ वर्षों तक किसान की फसलमार हो जाती है तो उसके लिए यह टैक्स अदा करना असंभव हो जाएगा। बहुत से किसान एक फसल में से बीज बचाकर अगली फसल के लिए प्रयुक्त करते हैं और भारतीय कृषि व्यवस्था में यह परम्परा बहुत ही महत्वपूर्ण है।
इन सभी बातों के बीच यह तय करना मुश्किल होगा कि कृषि आय पर टैक्स लगाने से विशुद्ध रूप में क्या लाभ होगा। यदि बढ़ते भू-स्वामित्व व बढ़ती आय के अनुपात में भी टैक्स प्रणाली तैयार की जाए तो इसका नुक्सान यह होगा कि धनी किसान अपने परिजनों और रिश्तेदारों के बीच भूमि आबंटन की जालसाजी शुरू कर देंगे। यदि सरकार विशुद्ध रूप में 1200 करोड़ रुपए कृषि आयकर की वसूली का लक्ष्य रखे तो भी केन्द्र सरकार की टैक्स कमाई में यह केवल 0.1 प्रतिशत की ही वृद्धि होगी।
कृषि टैक्स को ऐतिहासिक रूप में भारतीय राजनीति की तीसरी पटरी माना गया है। बेशक हमारे यहां यह शोर मचाया जाता है कि कृषि क्षेत्र में ‘इकोनोमी आफ स्केल’ के मामले में स्थिति सुधारी जाए लेकिन इस प्रकार के प्रयास मझोले और बड़े किसानों को हतोत्साहित ही करते हैं क्योंकि ये किसान कृषि तकनीकों के बेहतर प्रयोग, फसली चक्र में बदलाव और कृषि इनपुट के सूझ-बूझ भरे प्रयोग से अपने उत्पादन में बढ़ौतरी करना चाहते हैं न कि अपने फार्म का आकार बढ़ाकर। यदि एक वर्ष में किसान अमीर हों और दूसरे वर्ष में मामूली रूप में गरीब तो उनकी आय पर टैक्स लगाना समझदारी का काम नहीं।