‘जग वाला मेला यारो थोड़ी देर दा’

Edited By ,Updated: 31 Jul, 2019 12:48 AM

jag wala mela yaro thodi dair da

भगवान ने इस दुनिया में मनुष्य को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा है। इन मनुष्यों में भी कुछ ऐसे लोग पैदा किए जो उस ईश्वर की कृपा से संसार में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाकर हमेशा-हमेशा के लिए अमर हो गए। जब भी दुनिया में आवाज के जादूगरों की बात चलती है तो...

भगवान ने इस दुनिया में मनुष्य को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा है। इन मनुष्यों में भी कुछ ऐसे लोग पैदा किए जो उस ईश्वर की कृपा से संसार में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाकर हमेशा-हमेशा के लिए अमर हो गए। जब भी दुनिया में आवाज के जादूगरों की बात चलती है तो बिना शक एक नाम अपने आप सामने आ जाता है, वह नाम है बॉलीवुड के प्रसिद्ध महान पाश्र्व गायक मोहम्मद रफी साहब का। गीत हो या गजल या फिर कोई कव्वाली हो या फिर शबद या हो भजन, रफी साहब ने हर प्रकार की गायकी में अपना लोहा मनवाया। 

आज चाहे रफी साहब को हमसे बिछड़े लगभग चार दशक बीत चुके हैं, फिर भी उनकी आवाज का जादू दर्शकों के सिर चढ़ कर उसी प्रकार बोलता है, जिस प्रकार करीब 7 दशक पहले बोलता था। आज भी उनकी आवाज जब कभी रेडियो पर सुनाई देती है तो कानों में एक प्रकार का शहद घोलती महसूस होती है तथा साथ ही आत्मा को तरोताजा कर जाती है। मोहम्मद रफी का जन्म अमृतसर के निकट गांव कोटला सुल्तान सिंह में 24 दिसम्बर 1924 को एक साधारण परिवार में हुआ। उनके पिता हाजी अली मोहम्मद बहुत ही नेक तथा धार्मिक प्रवृत्ति वाले इंसान थे। मोहम्मद रफी 6 भाइयों में से दूसरे नम्बर पर थे। मोहम्मद रफी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा घर पर ही प्राप्त की। उन्हें बचपन से ही गाने का शौक था, इसलिए गांव के स्कूल में दूसरी कक्षा तक ही पढ़ाई कर सके। 

रफी साहब ने अपने गाने की प्रेरणा का खुलासा करते हुए एक साक्षात्कार दौरान कहा था कि वह 10-12 वर्ष के थे कि उनके मोहल्ले में एक फकीर गीत ‘जग वाला मेला यारो थोड़ी देर दा’ गाकर भीख मांगा करता था। उसकी नकल करते हुए वह भी इस गीत को बहुत शौक से गाया करते थे तथा कई बार उस फकीर का पीछा करते हुए बहुत दूर निकल जाते थे। इसी बीच रफी के पिता 1935 में लाहौर चले गए, जहां उन्होंने भट्टी गेट में नूरमहलों में पुरुषों के एक सैलून में काम शुरू कर दिया। 

रफी के बड़े भाई मोहम्मद दीन के एक दोस्त अब्दुल हमीद ने लाहौर में रफी की प्रतिभा को पहचानते हुए उनको गायकी की ओर प्रोत्साहित किया। अब्दुल हमीद ने ही बाद में रफी के परिवार के बुजुर्गों को रफी को मुम्बई भेजने के लिए मनाया। उन्हें पहली बार 13 वर्ष की उम्र में के.एल. सहगल की मौजूदगी में लाहौर में तब गाने का मौका मिला, जब लाइट चली जाने के कारण सहगल ने गाने से इंकार कर दिया तथा पंडाल में हंगामा मच गया। इस बीच मोहम्मद रफी को दर्शकों के रू-ब-रू किया गया, जैसे ही 13 वर्षीय रफी ने गाना शुरू किया तो पंडाल में उनकी ऊंची तथा सुरीली आवाज सुन कर दर्शकों में खामोशी छा गई। 

1944 में रफी साहब मुम्बई चले गए। उन्होंने अब्दुल हमीद के साथ मुम्बई के भीड़ भरे ङ्क्षभडी बाजार में एक कमरा किराए पर ले कर रहना शुरू कर दिया। कवि तन्वीर नकवी ने मोहम्मद रफी को फिल्म प्रोड्यूसर अब्दुर रशीद, निर्देशक महबूब खान तथा अभिनेता-निर्देशक नजीर आदि के साथ मिलवाया। मोहम्मद रफी ने शास्त्रीय गीतों से लेकर देशभक्ति के गीत, दर्द भरे गीत से लेकर रोमांटिक गीत, गजल, भजन तथा कव्वाली और कॉमेडी गाने भी गाए। उन्हें फिल्म के कलाकारों की आवाज के साथ मिलती आवाज में गाने की विलक्षण योग्यता के लिए जाना जाता था। अपनी जादुई आवाज के कारण 1950 तथा 1970 के बीच रफी हिन्दी फिल्म उद्योग में सबसे अधिक मांग वाले गायक थे। दिलीप कुमार से लेकर अमिताभ बच्चन, राजेन्द्र कुमार, धर्मेंद्र, मनोज कुमार, महमूद, जॉनी वॉकर तक हर छोटे-बड़े कलाकार के लिए रफी ने अपनी आवाज मुहैया करवाई। 

मोहम्मद रफी आमतौर पर हिंदी में गाने गाते थे लेकिन ङ्क्षहदी के अलावा उन्होंने असमी, पंजाबी, भोजपुरी, बंगाली, मराठी, सिंधी सहित और भी कई भाषाओं में गाने गाए हैं। एक बार एक अखबार में खबर छपी थी कि किसी शहर में एक फांसी के मुजरिम से जब उसकी आखिरी ख्वाहिश पूछी गई तो उसने मोहम्मद रफी का गाना-‘ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले’ सुनने की इच्छा जाहिर की। तब जेल में टेप रिकार्डर का इंतजाम कर उसे यह गाना सुनाया गया। 

रफी के हिट गीत
रफी साहिब के हिट गानों में ‘ये दुनिया यह महफिल’, ‘क्या हुआ तेरा वादा’, ‘ओ दुनिया के रखवाले’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘लिखे जो खत तुझे’, ‘ऐ मोहब्बत जिंदाबाद’, ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे’, ‘ये जुल्फ अगर खुल के’, ‘नफरत की दुनिया को छोड़ कर’, ‘पत्थर के सनम’, ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’, पंजाबी गीत  ‘जग वाला मेला यारो थोड़ी देर दा’, ‘दाणा-पाणा खिच के लियाऊंदा’ ‘जिस के सिर ऊपर तू स्वामी’ आदि प्रमुख हैं। रफी साहब ने 6 फिल्मफेयर अवार्ड तथा एक नैशनल फिल्मफेयर अवार्ड प्राप्त किया। 1967 में उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया। 

आखिरकार आवाज की दुनिया का यह सितारा 31 जुलाई, 1980 को इस फानी दुनिया से विदा हो गया तथा गायकी की दुनिया में एक ऐसा सूनापन छोड़ गया जिसकी भरपाई होना मुश्किल है। संगीत प्रेमियों को उनकी कमी हमेशा खलती रहेगी परन्तु अपनी बेमिसाल आवाज तथा हंसमुख स्वभाव के कारण रफी साहब रहती दुनिया तक उनके दिलों में जीवित रहेंगे। शायद इसीलिए मोहम्मद रफी ने अपने एक गीत में कहा था ‘तुम मुझे यूं भुला न पाओगे’।-मोहम्मद अब्बास धालीवाल
 

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