निर्दोष और अपराधी के बीच झूलता न्याय

Edited By Pardeep,Updated: 21 Apr, 2018 04:14 AM

justice flaws between innocent and criminal

सामाजिक, राजनीतिक और न्यायिक व्यवस्था को जब जंग लगना शुरू हो जाए और तथाकथित लोकहित और जनकल्याणकारी कार्यों की आड़ में नीतियों, कानून और नियमों से भ्रम पैदा होने लगे, अविश्वास के बादल मंडराने लगें तो समझना चाहिए ‘कि अंधेर नगरी चौपट राजा’ युग की...

सामाजिक, राजनीतिक और न्यायिक व्यवस्था को जब जंग लगना शुरू हो जाए और तथाकथित लोकहित और जनकल्याणकारी कार्यों की आड़ में नीतियों, कानून और नियमों से भ्रम पैदा होने लगे, अविश्वास के बादल मंडराने लगें तो समझना चाहिए ‘कि अंधेर नगरी चौपट राजा’ युग की शुरूआत हो चुकी है।

उदाहरण के लिए जब अदालतों के लिए 15-20 साल तक यह तय करना ही संभव न हो कि कोई व्यक्ति निर्दोष है या अपराधी तो फिर कानून का अर्थ ही क्या रह जाता है? क्या इससे यह भावना बलवती नहीं होती कि अब वक्त आ गया है कि सभी कानूनों को कचरे की पेटी में डाल दिया जाए और संविधान के दायरे में रहकर नए सिरे से कम-से-कम वे कानून तो बना ही दिए जाएं जिनसे व्यक्ति की गरिमा खंडित न हो, उसमें अनावश्यक भय न हो और वह स्वयं को किसी भी प्रकार से आतंकित न समझे। 

जब कोई व्यक्ति विशेषकर राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी किसी भी घटना को लेकर यह कहे कि ‘कानून अपना काम करेगा’ तो उसका यह मतलब होता है कि उस व्यक्ति की इतनी हैसियत और ताकत है कि वह कानून को अपने हिसाब से तोडऩे-मरोडऩे का काम बखूबी कर सकता है। ऐसे में सामान्य नागरिक के लिए राम-भरोसे रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचता। यह जानना दिलचस्प होगा कि कानून आखिर चलता किसके आसरे है। 

हमारे यहां कानून वकीलों, अधिवक्ताओं और अदालती कर्मचारियों के अधीन रहकर काम करता है। इसके विपरीत अमरीका और यूरोपीय देशों में कानून अपराध और मुकद्दमे से संबंधित विषयों के विशेषज्ञों को लेकर गठित की गई ज्यूरी के माध्यम से चलता है। इस ज्यूरी में कानूनी विशेषज्ञों के अतिरिक्त मैडीकल, इंजीनियरिंग, आर्कीटैक्चर आदि क्षेत्रों के जाने-माने लोग होते हैं, जो उस विषय पर अपनी विशेषज्ञता के अनुसार राय देते हैं। इससे जज को फैसला करने में बहुत आसानी हो जाती है और 2-3 महीने में ही जटिल मुकद्दमों तक का फैसला हो जाता है। हमारे यहां वकील, बैरिस्टर अधिवक्ता, सॉलीसिटर ही सर्वज्ञानी होते हैं और जज साहब ज्यादातर उन्हीं की सलाह पर फैसला देते हैं। 

निचली अदालत और वकील: निचली अदालतों के ज्यादातर फैसलों को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा बदल दिया जाता है। इसीलिए न्याय पाने के लिए लोग इनमें जाने की बजाय सीधे ही बड़ी अदालतों का रुख करने में भलाई समझते हैं क्योंकि वहां न्याय की उम्मीद अभी लगाई जा सकती है। असल में होता यह है कि एक तो निचली अदालत और उनमें नियुक्त जज निर्धारित संख्या से लगभग आधे हैं और उनकी भी नियुक्ति वकीलों और प्लीडरों के बीच से ही की जाती है। दूसरा यह कि अदालतों की हालत ऐसी है कि वहां जज की प्रतिष्ठा के अनुकूल न तो बैठने की उचित व्यवस्था है और न ही मुवक्किलों के लिए कोई सुविधा होती है।

निचली अदालतों के फैसलों पर वकील अपना असर डालने में इसलिए कामयाब हो जाते हैं क्योंकि वकील और जज आस-पास ही रहते हैं, कभी-कभी तो बिल्कुल पड़ोस में और दोनों में पारिवारिक मित्रता होने में देर नहीं लगती। दूसरी बात यह कि उनके बच्चे एक ही स्कूल में जाते हैं, महिलाएं एक ही बाजार से खरीदारी करती हैं और आपसी मेलजोल इस हद तक बढऩे की नौबत आना स्वाभाविक है कि जज और वकील एक-दूसरे की पीठ थपथपाने से लेकर सहलाने लगें। अब बात करते हैं उस कवायद की जो चार्जशीट दाखिल करने से लेकर फैसला लिखने तक की जाती है। हमारी अदालतों में चीर्जशीट 5-10 हजार पन्नों से लेकर 30-40 हजार पन्नों तक की भी हो सकती है। इसी तरह फैसले सैंकड़ों-हजारों पन्नों तक मेंं लिखे जाते हैं। 

इन चार्जशीटों और फैसलों को पढऩा तो दूर, उनकी भारी-भरकम जिल्द देखकर ही तबीयत घबराने लगती है। एक बार किसी चार्जशीट या फैसले को पढऩे की कोशिश करने भर से पता चल सकता है कि कुछेक अन्तिम वाक्यों के सिवा उनमें पढऩे और समझने लायक कुछ नहीं होता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ज्यादा से ज्यादा 8-10 पन्नों की चार्जशीट और 15-20 पन्नों में फैसला लिखने की सीमा निर्धारित कर दी जाए जिससे समय, धन, श्रम की बचत और मुवक्किल को परेशानी से निजात मिल सके। निचली अदालतों की मॉनीटरिंग का काम हाईकोर्ट के जिम्मे होता है। अपेक्षा यह की जाती है कि हाई कोर्ट से इस काम के लिए अचानक निरीक्षण हो और किसी को कानों-कान खबर न हो। परन्तु यह मॉनीटरिंग ढोल-बाजे के साथ घोषणा करने के बाद होती है जिसमें असलियत छिपाने का पर्याप्त अवसर रहता है। 

स्वार्थ का गठबंधन: एक और तथ्य यह है कि जिस मामले में जज, वकील, नेता और पुलिस की मिलीभगत होती है तो उसकी रिपोॄटग न करने के लिए मीडिया को यह कहकर रोक दिया जाता है कि मामला संवदेनशील है, भावनाएं भड़क सकती हैं और तथ्यों को उजागर करना समाज के हित में नहीं है। क्या इसका मतलब यह नहीं  कि इसमें निहित स्वार्थों का पोषण करने के लिए पर्याप्त सुविधा हो जाती है? जहां तक पुलिस का संबंध है, वह एकदम लाचार नजर आती है। उसके पास जुर्म कबूलवाने के लिए मारपीट और टार्चर के अलावा कोई रास्ता नहीं होता। ज्यादातर मामलों में समझदारी इसे ही समझा जाता है कि पुलिस और अदालत के पास जाए बिना आपसी बातचीत से मामले को जैसे-तैसे सुलझा लिया जाए क्योंकि एक बार थाने, कोर्ट-कचहरी में गए तो समझो बरसों-बरस निकल जाएंगे, पीढिय़ां भी खप सकती हैं लेकिन मुकद्दमों का फैसला नहीं हो पाएगा। न्यायपूर्ण समाज की रचना का दायित्व सरकार का है। इसके लिए उसे यदि व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन भी करना पड़े तो कोई हर्ज नहीं है, वर्ना हमें न्याय व्यवस्था में पिछड़ेपन का शिकार बने रहने से कोई नहीं रोक सकता।-पूरन चंद सरीन
 

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