राष्ट्रव्यापी प्रभाव डालेंगे कर्नाटक के चुनाव

Edited By Pardeep,Updated: 06 May, 2018 04:04 AM

karnataka elections will take effect

मीडिया धन्यवाद का पात्र है कि इसकी कृपा से ‘कर्नाटक मतदान की ओर’  का जुमला ऐसा आभास देता है जैसे ‘ङ्क्षहदोस्तान घमासान की ओर’  बढ़ रहा हो। वैसे स्थिति ऐसी ही है क्योंकि नरेन्द्र मोदी 5 दिन में 15 रैलियों को सम्बोधित करेंगे। उनसे पहले किसी भी...

मीडिया धन्यवाद का पात्र है कि इसकी कृपा से ‘कर्नाटक मतदान की ओर’  का जुमला ऐसा आभास देता है जैसे ‘ङ्क्षहदोस्तान घमासान की ओर’  बढ़ रहा हो। वैसे स्थिति ऐसी ही है क्योंकि नरेन्द्र मोदी 5 दिन में 15 रैलियों को सम्बोधित करेंगे। उनसे पहले किसी भी प्रधानमंत्री ने राज्यों के चुनावी दंगल में इस तरह खुद को आगे नहीं धकेला। 

यह ऐसे लोगों की रणनीति है जो बहुत बड़े दाव खेलने के आदी होते हैं। इसी रणनीति ने उत्तर प्रदेश में भाजपा को बहुत अधिक लाभ पहुंचाया है, जहां यह सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी तथा इसकी पूर्ववर्ती सत्ताधारी बसपा के विरुद्ध मुख्य चुनौतीबाज थी। इसके अलावा मोदी का वाराणसी से लोकसभा सांसद होना, उनका ङ्क्षहदी में भाषण करना तथा उनकी पार्टी का साम्प्रदायिक टकराव भड़काने में सफल रहना भी इस मामले में बहुत सहायक सिद्ध हुए। 

लेकिन कर्नाटक गुजरात जैसा नहीं
गुजरात में यही रणनीति बिल्कुल विफलता के कगार तक ले गई थी। जब ऐन आखिरी समय पर मोदी ने मंझदार में फंसे गुजराती भाई के मान-इज्जत को बचाने की गुहार लगाई तब कहीं जाकर भाजपा ढीचूं-ढीचूं करती हुई मात्र 7 सीटों के बहुमत से विजयी हो पाई थी। इसी रणनीति को फिर कर्नाटक में अजमाया जा रहा है। गुजरात में भाजपा और उसकी सरकार ही चुनावी मुहावरे को नियंत्रित करती थी। जबकि कर्नाटक में यही काम कांग्रेस और इसकी सरकार कर रही है।

गुजरात में मोदी ‘भूमि पुत्र’ थे जबकि गुजरात में इस भूमिका में सिद्धारमैया है। गुजरात में मोदी गुजराती में भाषण करते थे लेकिन कर्नाटक में अनुवादक के माध्यम से बोलना उनकी मजबूरी है। गुजरात में भाजपा के चेहरे ने मोदी के लिए एक अन्य कार्यकाल की याचना की थी। (और किसी को भी  अगले मुख्यमंत्री के रूप में नामित नहीं किया गया था) जबकि कर्नाटक में येद्दियुरप्पा भाजपा का चेहरा हैं। गुजरात में जहां भाजपा आबादी के एक वर्ग का ध्रुवीकरण करने में सफल रही थी वहीं कर्नाटक में इस मामले में इसके प्रयास अभी तक विफल रहे हैं। (खास तौर पर दक्षिण कर्नाटक में)। 

स्मार्ट गवर्नैंस 
कर्नाटक में कांग्रेस सरकार का गठन मई 2013 में हुआ था। 2012-13 में स्थिर मूल्यों पर सकल प्रादेशिक घरेलू उत्पाद (जी.एस.डी.पी.) 6,43,292 करोड़ रुपए था जो 2017-18 में बढ़कर 9, 49,111 करोड़ तक पहुंच गया। अगले 8 वर्षों के लिए वास्तविक जी.एस.डी.पी. 8 प्रतिशत से ऊपर था। यानी कि कर्नाटक का आम नागरिक पहले से अमीर हुआ है: प्रति व्यक्ति आय वर्तमान कीमतों की दृष्टि से 77309 रुपए से बढ़कर इसी अवधि दौरान 1,74, 551 रुपए हो गई थी, यानी 125 प्रतिशत से भी अधिक वृद्धि हुई थी। इसकी तुलना में पूरे देश की प्रति व्यक्ति आय केवल 59 प्रतिशत की दर से ही बढ़ पाई थी। अप्रैल 2018 में कर्नाटक में बेरोजगारी की दर 2.6 प्रतिशत थी। जोकि देश में न्यूनतम है जबकि अखिल भारतीय बेरोजगारी दर 5.9 प्रतिशत और गुजरात राज्य की 5 प्रतिशत है। 

टैक्स का जी.एस.डी.पी. के अनुपात व्यावहारिक रूप में 9.5 प्रतिशत की औसत पर स्थिर रखते हुए और अधिक खर्च करने के लिए वित्तीय घाटे की 3 प्रतिशत सीमा के अंदर-अंदर कर्ज लेने का रास्ता अपनाते हुए सिद्धारमैया आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने में सफल रहे हैं। गत 5 वर्षों दौरान औसत वित्तीय घाटा 2.26 प्रतिशत और औसत राजस्व सरप्लस 0.08 प्रतिशत ही रहा है। सामाजिक क्षेत्र पर होने वाला खर्च लगातार 40 प्रतिशत से ऊपर बना रहा है। इस नीति के लाभ स्पष्ट रूप में दिखाई देते हैं: उदाहरण के तौर पर शिशु मृत्यु दर में गिरावट आई है, विद्युत खपत में बढ़ौतरी हुई है और नव घोषित परियोजनाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। 

सिद्धारमैया ने अपने राजनीतिक पत्ते बहुत होशियारी से खेले हैं। जनता दल (एस) को भाजपा की बी टीम करार देते हुए उन्होंने विपक्षी वोटों को दोफाड़ कर दिया है। यह ठप्पा कुमारस्वामी पर एक तरह से पक्के रूप में अंकित हो गया है। कन्नड़ भाषा के प्रयोग पर बल देते हुए और हिंदी के प्रयोग का विरोध करके सिद्धारमैया ने मोदी की भाषण कला की धार कुंद कर दी है।  मोदी के प्रत्येक ङ्क्षहदी भाषण को जनता के एक वर्ग द्वारा हिंदी थोपने के प्रयास के रूप में देखा जाता है। लिंगायत समुदाय की अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दिए जाने की मांग का समर्थन करके उन्होंने भाजपा के भरोसेमंद वोट बैंक को भी दोफाड़ कर दिया है। अब भाजपा से टूटने वाली प्रत्येक लिंगायत  वोट कांग्रेस के खेमे में जाएगी और इसका भाजपा को दोहरा नुक्सान होगा। 

क्या कर्नाटक अपना जलवा दिखाएगा
मतदान में अभी 6 दिन बाकी हैं। इन महत्वपूर्ण दिनों दौरान कांग्रेस को हर हालत में सम्प्रादायिक सौहार्द और शांति बनाए रखनी होगी। धन आबंटन पर अंकुश लगाने के मामले में चुनाव आयोग को किसी भी कीमत पर वैसी लाचारी नहीं दिखानी चाहिए जैसी इसने तमिलनाडु के मामले में 2016 में दिखाई थी।सिद्धारमैया को हर हालत में यह प्रमाणित करना होगा कि 2 सीटों से चुनाव लडऩे के उनके फैसले ने उन्हें कांग्रेस उम्मीदवारों की अधिकतर संख्या के पक्ष में जोरदार अभियान चलाने से नहीं रोका है। 

सबसे बड़ी बात तो यह है कि उन्हें मोदी द्वारा गढ़े गए नए नारे ‘2 रैड्डी+1 येद्दी’ पर अवश्य ही फोकस बनाए रखना होगा। अबकी बार भाजपा जीत की हेंकड़ी नहीं हांक रही है। अब यह कांग्रेस को निर्णायक बहुमत हासिल करने से रोकने के लिए हर हथकंडा प्रयुक्त कर रही है और सरकार बनाने के लिए जनता दल (एस) के साथ हाथ मिला रही है। भाजपा के लिए यह एक प्रमाण सिद्ध फार्मूला है जिसे वह मणिपुर, गोवा और मेघालय में बाखूबी प्रयुक्त कर चुकी है। 

देश की गवर्नैंस में आ रही गिरावट के बारे में जो भी मतदाता ङ्क्षचतित हैं उनके लिए कर्नाटक का चुनाव एक बहुत बड़ा अवसर है। ऐसे मतदाताओं में केवल दलित, अल्पसंख्यक, महिलाएं और उदारवादी और सैकुलर लोग ही नहीं बल्कि गर्वीले ङ्क्षहदू भी शामिल हैं। इनमें वे लोग शामिल हैं जो नोटबंदी के साथ-साथ त्रुटिपूर्ण जी.एस.टी.के लगातार जारी रहने से बहुत बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। इनमें वे मतदाता भी शामिल हैं जो 2014 में पहली बार मतदान करने गए थे और जो रोजगारों से वायदे से भ्रमित हो गए थे लेकिन अब जब उन्हें ‘‘जाओ पकौड़े तलो’’ की सीख दी जा रही है तो उनका  पूरी तरह मोहभंग हो गया है। 

तो क्या ऐसे मतदाता अज्ञानता, असहिष्णुता, संकीर्णता और हिंसा की बढ़ती राजनीतिक संस्कृति तथा इसे सामान्य सामाजिक व्यवहार बनाने की भाजपा की तत्परता के विरुद्ध खड़े होंगे? मेरी सहज बुद्धि मुझे यह सोचने की ओर पे्ररित करती है कि इस तरह के मतदाता बहुमत में हैं लेकिन यह बात प्रमाणित तो केवल 15 मई को ही हो पाएगी। जनता दल (एस.) के लिए दाव कोई बड़ा नहीं है लेकिन  कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा है, जबकि भाजपा  तो सबसे बड़ा दाव खेल रही है। परिणाम चाहे कुछ भी हों, मई 2019 के चुनाव पर इसकी परछाईं अवश्य ही पड़ेगी।-पी. चिदम्बरम

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