कर्नाटक चुनाव ने विपक्षी दलों को किया ‘एकजुट’

Edited By Pardeep,Updated: 18 May, 2018 01:48 AM

karnataka polls to opposition parties united

कर्नाटक में अन्य दोनों पार्टियों की तुलना में बहुत अधिक सीटें हासिल करके भाजपा ने एक बार फिर देश के राजनीतिक परिदृश्य पर अपने बढ़ते वर्चस्व को रेखांकित किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को बिल्कुल ताॢकक रूप में इस जीत के...

कर्नाटक में अन्य दोनों पार्टियों की तुलना में बहुत अधिक सीटें हासिल करके भाजपा ने एक बार फिर देश के राजनीतिक परिदृश्य पर अपने बढ़ते वर्चस्व को रेखांकित किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को बिल्कुल ताॢकक रूप में इस जीत के मुख्य वास्तुकारों के रूप में देखा जाता है। विडम्बना यह है कि देखने को तो यह जीत लगती है लेकिन वास्तव में इसी में पार्टी के लिए खतरे की घंटी छिपी हुई है। ऐसा क्यों है? 

एक क्षण के लिए यह मान लें कि यदि कांग्रेस ने कर्नाटक में बहुमत हासिल किया होता तो क्या होता? ऐसी स्थिति में कांग्रेस यह सुनिश्चित करती कि 2019 के लोकसभा चुनाव में राज्य में यह भाजपा और जद (एस) दोनों से बराबर की दूरी बनाए रखे। ऐसी स्थिति का सबसे अधिक लाभ भाजपा को ही मिलता, जिसका कि कर्नाटक के लोकसभा चुनावों में वोट हिस्सेदारी को सीट हिस्सेदारी में बदलने का अन्य की तुलना में कहीं अधिक बेहतर रिकार्ड है। 2014 के लोकसभा चुनावों में कर्नाटक में भाजपा को कांग्रेस की तुलना में केवल 2.2 प्रतिशत अधिक वोट मिले थे लेकिन सीटों का फर्क पूरी तरह इस अनुपात को गच्चा दे गया था। कांग्रेस को केवल 8 सीटें मिली थीं जबकि भाजपा ने 17 सीटों पर जीत हासिल की। ऐसा इसलिए हुआ कि कांग्रेस की वोट हिस्सेदारी पूरे प्रदेश में एक समान फैली हुई थी जबकि जद (एस) और भाजपा दोनों के अपने-अपने विशेष प्रभाव क्षेत्र थे। 

ताजा चुनावों के बाद कांग्रेस और जद (एस) के बीच जिस प्रकार का माधुर्य देखने को मिल रहा है, ऐसे में यह मानना पूरी तरह तर्कसंगत है कि दोनों पार्टियां राज्य में 2019 के चुनाव से पहले शायद गठबंधन बना सकती हैं। 2018 के चुनाव में कांग्रेस और जद (एस) की मिश्रित वोट हिस्सेदारी 56.3 प्रतिशत रही है। यह निश्चय से कहा जा सकता है कि इतने वोट प्रतिशत का यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि इन दोनों पाॢटयों का गठबंधन ही राज्य की सभी सीटों पर जीत दर्ज करेगा। हमारे विशलेषकों के अनुसार यदि कांग्रेस और जद (एस) ने ताजा चुनाव से पूर्व गठबंधन किया होता तो 222 में से उन्होंने मिलकर 150 सीटें जीत ली होतीं। यानी कि यह गठबंधन लोकसभा चुनाव दौरान आसानी से दो-तिहाई सीटें जीत सकता है। 

भाजपा का विजयी रथ रोकने के लिए सर्वथा विपरीत विचारों वाली पार्टियों में गठबंधन का रुझान केवल कर्नाटक तक सीमित नहीं है। अधिक से अधिक दल यह महसूस करने लगे हैं कि यदि भाजपा को अपनी वोट हिस्सेदारी से सीटें जीतने से रोकना है तो उन्हें आपसी मतभेद ताक पर रखने होंगे। यह रणनीति सर्वप्रथम 2015 में बिहार के चुनाव दौरान प्रमाणित हो चुकी है जब राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यू) तथा कांग्रेस के महागठबंधन ने भाजपा को बहुत बुरी तरह हराया था। 

जब समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाजवादी पार्टी (बसपा) ने बिहार से कुछ सबक सीखने से इंकार कर दिया तो यू.पी. के चुनाव में एक बार फिर झाड़ू-फेर जीत दर्ज की। दिलचस्प बात यह है कि यू.पी. में भाजपा की इस शानदार जीत ने ही बिहार में महागठबंधन के प्रयोग की हवा निकाल दी और इसके कर्णधार नीतीश कुमार फिर से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल हो गए और यह कहना शुरू कर दिया कि भाजपा एक अजेय शक्ति है। तब मैंने एक अन्य समाचार पत्र में लिखा था कि 2014 के लोकसभा चुनाव में केवल 31 प्रतिशत वोट हिस्सेदारी के बूते भाजपा कोई अजेय शक्ति नहीं बन सकती क्योंकि 1989 और 1991 के लोकसभा चुनावों में भारी वोट हिस्सेदारी के बावजूद कांग्रेस इससे आधी सीटें भी नहीं जीत पाई थी। यह उल्लेखनीय है कि 2014 में हासिल की वोट हिस्सेदारी के आंकड़े को भाजपा बाद में होने वाले यू.पी. और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में सुधार नहीं पाई है। 

2017 के बाद सपा और बसपा दोनों ने यह महसूस कर लिया है कि आपस में हाथ मिलाने की रणनीति के क्या लाभ हो सकते हैं और इस रणनीति का जलवा तब देखने को मिला जब गोरखपुर और फूलपुर के लोकसभा उपचुनावों में उन्होंने भाजपा को औंधें मुंह गिरा दिया। भाजपा के विरोध में सभी पाॢटयों की एकता 2019 में इसे कैसे पटखनी दे सकती है, वह सामान्य अंक गणित से भी आगे की बात है। यह अब अत्यधिक स्पष्ट हो चुका है कि सतरंगी हिंदू गठबंधन ही भाजपा की मौजूदा चुनावी रणनीति की धुरी है। यह रणनीति इस हिसाब से लागू की जाती है कि यू.पी. में यादवों और जाटवों जैसे विरोधी पार्टियों के कट्टर समर्थक जातिगत समूहों को कैसे हाशिए पर धकेला जाए? 

यह भी दिन के प्रकाश की भांति स्पष्ट है कि जब हिंदुत्व के विरुद्ध सिरे से निंदा-प्रचार किया जाता है तो इससे वास्तव में भाजपा को ही सहायता मिलती है क्योंकि इस प्रचार के बूते ही यह मुस्लिम मतदाताओं के विरुद्ध जवाबी ध्रुवीकरण हासिल करने में सफल होती है। बिहार में महागठबंधन के सफल होने का एक कारण यह था कि आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत के बयानों को आधार बनाकर विपक्षी गठबंधन गैर-सवर्ण जाति हिंदू वोट को आरक्षण समर्थक पैंतरे के पक्ष में एकजुट करने में सफल हो गए थे। तथ्य यह है कि लालू प्रसाद जैसे नेताओं का सामाजिक न्याय के मुद्दों पर लडऩे का लम्बा इतिहास रहा है और इसी के कारण इस अभियान को विश्वसनीयता हासिल हुई थी। यहां तक कि कर्नाटक में भी यह स्पष्ट हो गया है कि जद (एस) ने बसपा के साथ गठबंधन बनाकर एक तरह से धोबी पटका का दाव प्रयुक्त किया है। 

जद (एस) के पक्ष में अभियान चलाने के मायावती के फैसले ने जद (एस) के वोक्कालिगा जनाधार में अमूल्य दलित वोटों की वृद्धि की। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भाजपा को जब ऐसी रणनीति से पाला पड़ता है जो इसके सतरंगी हिंदू गठबंधन को छिन्न-भिन्न करती हो तो इसे कोई खास सफलता नहीं मिलती। मोटे रूप में ऐसी सहमति दिखाई देती है कि दलितों और किसानों का आक्रोश 2019 के लोकसभा चुनावों में बहुत बड़ी भूमिका अदा करेगा। इन सम्भावनाओं को प्रयुक्त करने के लिए कांग्रेस के पास न तो पर्याप्त मात्रा में संगठनात्मक ढांचा है और न ही कोई भरोसेमंद चेहरे हैं। 

यदि मायावती जैसे दलित नेताओं और किसान समर्थक समझी जाती जद (एस) जैसे पार्टियों के बीच समझदारी भरी सौदेबाजी होती है तो इससे भाजपा विरोधी शक्तियों को प्रोत्साहन मिल सकता है। ऐसे समय में जब भाजपा को अपने मौजूदा सहयोगी दलों को अपने साथ बनाए रखने में काफी दिक्कतें महसूस हो रही हैं तो एक सतरंगी विपक्षी गठबंधन 2019 के चुनाव में इसका खेल खराब करने वाला गेम चेंजर सिद्ध हो सकता है। गौरतलब है कि जब कर्नाटक में कांग्रेस और जद (एस) अलग-अलग लोकसभा चुनाव लड़ते हैं तो भाजपा की सीट संख्या इसकी वोट हिस्सेदारी से कहीं अधिक होती है। 2014 में मात्र 31.3 प्रतिशत वोट से भाजपा ने निर्णायक बहुमत हासिल कर लिया था। यदि भाजपा अपने वोट बैंक को सुरक्षित भी बचाए रखे तो भी विपक्षी एकता इसकी सीट संख्या में काफी गिरावट ला सकती है। कांग्रेस की वोट हिस्सेदारी कितनी भी क्यों न हो, यह अपने बूते पर लोकसभा चुनावों में बहुमत हासिल नहीं कर सकती।-के. रोशन

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