असुखद विवादों में घिरा रहा खट्टर सरकार का अब तक का कार्यकाल

Edited By ,Updated: 31 Jan, 2016 01:32 AM

khattar was surrounded in controversy yet many of the government s term

हरियाणा के इतिहास में पहली बार अस्तित्व में आई भाजपा सरकार का 13 माह का शासन असुखद विवादों के कारण उल्लेखनीय रहा।

(बी.के. चम): हरियाणा के इतिहास में पहली बार अस्तित्व में आई भाजपा सरकार का 13 माह का शासन असुखद विवादों  के कारण उल्लेखनीय रहा। इनमें से सबसे अधिक परेशान करने वाले कुछ विवाद हाल ही में हुए पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव में प्रत्याशी बनने  के लिए लागू की गई पात्रता शर्तों तथा कुछ टैलीविजन अभिनेताओं व कामेडियनों के विरुद्ध मुकद्दमे दर्ज करने से संबंधित हैं। 

 
कुछ भाजपा नेताओं, पार्टी सांसदों और साध्वियों ने ऐसे विभाजनकारी बयान दिए जिन्होंने भारत का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कर दिया। इन बयानों की रोशनी में इस तरह के विवादों का पैदा होना आपातकालीन दौर की मानसिकता का संकेत है। मुद्दा इसलिए भी अधिक चिन्ता का विषय है कि यह घटनाक्रम हाल ही में बढ़ती असहिष्णुता के विषय पर कुछ लेखकों, फिल्मी हस्तियों और कलाकारों द्वारा अपने पसंदीदा पुरस्कार लौटाने के परिदृश्य में सामने आया है। 
 
हरियाणा विधानसभा ने हरियाणा पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम 2015 पारित करके पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव लडऩे वालों के लिए नई पात्रता शर्तें निर्धारित कीं, जिनमें न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के साथ-साथ यह भी आवश्यक करार दिया गया था कि वही व्यक्ति चुनाव में खड़ा हो सकता है जिसके घर में कार्यशील शौचालय हो और कुछ जरूरी सेवाओं का कोई बिल भी उस पर बकाया न हो। 
 
सुप्रीम कोर्ट ने इस संशोधन अधिनियम को वैध करार दिया। केवल भाजपा शासित हरियाणा और राजस्थान में ही पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव लडऩे पर ऐसी पात्रता शर्तें थोपे जाना मात्र संयोग नहीं। पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव लडऩे के लिए पात्रता कसौटियां तय करने का हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार का फैसला नि:संदेह नेक इरादों से ही लिया गया है। इसमें कुछ स्वागतयोग्य बातें भी हैं जैसे कि चुनाव लडऩे के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय करना। जिसके चलते जमीनी स्तर के जनतांत्रिक निकायों में भारी संख्या में युवा और प्रशिक्षित लोग कुंजीवत पदों पर काबिज हुए हैं जिनमें महिलाओं की  भी इस बार रिकार्ड संख्या है। 
 
इन शर्तों के चलते बिजली बिलों की बकाया राशि की काफी बड़ी मात्रा में वसूली हो सकी है। पंचायत चुनाव लडऩे के लिए चालू हालत में घरेलू शौचालय होने की शर्त भी प्रशंसनीय है लेकिन ये फैसले कुछ चिन्तनीय सवाल भी खड़े करते हैं। 
 
उदाहरण के तौर पर क्या न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की शर्त निचले स्तर की लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए मतदान करने और अपने प्रतिनिधि चुनने के जनता के संवैधानिक और जनतांत्रिक अधिकार का उल्लंघन नहीं? ग्रामीण गरीबों, खास तौर पर महिलाओं और दलितों में ऐसे लोगों की संख्या काफी बड़ी है जिन्हें औपचारिक शिक्षा लेने और इसे सम्पूर्ण करने का मौका नहीं मिला।
 
इन शर्तों के चलते ऐसे लोग राजनीतिक शक्ति से वंचित हो गए हैं। सरकार ने खुद माना है कि पंचायती चुनावों के नतीजे आने के बाद भी पंचों, सरपंचों और जिला परिषद सदस्यों के लगभग 200 पद अभी तक खाली हैं। इन पदों के खाली रहने के संबंध में इंक्वायरी अभी चल रही है, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि जो लोग यह चुनाव लडऩा चाहते थे, उनके पास प्रत्याशी बनने के लिए वांछित न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता नहीं। नोबेल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन ने कहा है, ‘‘हमें उन लोगों को वंचित करने की जरूरत नहीं जो पहले ही वंचित हैं और न ही उनके विशेषाधिकार छीनने की जरूरत है।’’
 
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्र यह है : क्या यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं कि वह यह सुनिश्चित करे कि समाज के वंचित वर्गों के बच्चों को ऐसी शिक्षा उपलब्ध करवाई जाए, जिससे वे मतदान के अपने मौलिक अधिकार को प्रयुक्त करने की पात्रता हासिल कर सकें? 
 
सरकारी स्कूलों में बच्चों के अधबीच में पढ़ाई छोड़ जाने की बढ़ती घटनाओं तथा स्कूलों की पास प्रतिशतता में आ रही निरंतर गिरावट के मद्देनजर यह स्थिति और भी महत्वपूर्ण बन जाती है। घर में चालू हालत में शौचालय होने की पात्रता शर्त प्रशंसनीय है। लेकिन समाज के गरीब और वंचित वर्गों के पास क्या अपने छोटे-छोटे घरों में शौचालय बनाने और उन्हें चालू करने के लिए पर्याप्त सुविधाएं और संसाधन हैं? ये ऐसे सवाल हैं जिनका संतोषजनक उत्तर पंचायती चुनाव लडऩे के लिए पात्रता शर्तें थोपने वाली सरकारों को अवश्य ही देना होगा। 
 
पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों पर पात्रता शर्तें थोपने वाले दोनों राज्यों हरियाणा और राजस्थान के इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले में सही ठहराया गया है, उसमें न केवल मौलिक अधिकारों की अवहेलना की गई है बल्कि हरियाणा और राजस्थान में स्थानीय निकायों में लोकतंत्र को पैरों तले रौंदे जाने की भी अनदेखी की गई है। इस बात से मजबूर होकर अमत्र्य सेन को जोर देकर यह बात कहनी पड़ी कि हरियाणा सरकार के पंचायती राज संस्थाओं में चुनाव लडऩे वालों के लिए साक्षरता को अनिवार्य कसौटी बनाने के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सही ठहराए जाने पर सुप्रीम कोर्ट की ही संविधान पीठ द्वारा चर्चा की जानी चाहिए। 
 
अब हम कीकू शारदा और अली असगर सहित टी.वी. एक्टरों के विरुद्ध मामले दर्ज करने के दूसरे मुद्दे पर आते हैं। हम ऐसे वक्तों में जी रहे हैं जब हंसी-मजाक, व्यंग्य और स्वांग भरने को भी अपराध के रूप में देखा जाता है और इन कलाओं में पारंगत व्यक्तियों को केवल इसलिए सलाखों के पीछे बंद कर दिया जाता है कि गली-मोहल्ले के किसी गुट ने कथित रूप में शिकायत की होती है कि कलाकारों की पेशकारी से उनकी ‘धार्मिक भावनाएं’ आहत हुई हैं। 
 
जब शारदा को गिरफ्तार किया गया तो उनके तथा अली असगर के विरुद्ध मामला दर्ज किया गया कि उन्होंने कथित रूप में गंभीर अपराधों के मामले में अदालती मुकद्दमों का सामना कर रहे सिरसा स्थित डेरा सच्चा सौदा के विवादित प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह की अपने टैलीविजन शो में नकल लगा कर हिन्दुत्व के अनुयायी एक छोटे से चरम पंथी गुट की धार्मिक भावनाओं को आहत किया है। असगर को गिरफ्तार करने के लिए हरियाणा सरकार इतनी उतावली थी कि इसकी पुलिस फटाफट इस काम के लिए मुम्बई को रवाना हो गई। लेकिन उसे सफलता इसलिए न मिल सकी कि असगर ने अदालत से अग्रिम जमानत हासिल कर ली थी। 
 
यह सदमे वाली बात है कि सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट रही है और उन कलाकारों के विरुद्ध मामले दर्ज कर रही है जो अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए लोगों का मनोरंजन करते हैं। कीकू शारदा को गिरफ्तार करके और अली असगर के विरुद्ध मामला दर्ज करके खट्टर सरकार ने ‘बहादुरी’ का कारनामा अंजाम दिया है। कानूनी पेशों से जुड़ा समुदाय शारदा की गिरफ्तारी पर हैरान है, क्योंकि कानून में ऐसा प्रावधान है  जिसके अन्तर्गत आरोपी को पुलिस के समक्ष पूछताछ हेतु उपस्थित होने के लिए कहा जा सकता है। 
 
स्पष्ट है कि खट्टर सरकार ने डेरा प्रमुख और उनके समर्थकों के अहसान का सिला चुकाया है, जिनका विधानसभा  चुनाव में भाजपा को जीत दिलाने में उल्लेखनीय योगदान है। सम्पूर्ण प्रसंग यह सिद्ध करता है कि मजहब बेशक व्यक्तिगत श्रद्धा का मामला है, फिर भी इसे राजनीतिक एजैंडे आगे बढ़ाने तथा व्यक्तिगत लाभ अर्जित करने के लिए उपकरण के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने बढ़ती मजहबी असहिष्णुता के विरुद्ध आगाह किया है। बेशक उन्होंने यह टिप्पणी बुधवार के दिन वाशिंगटन में की है, जोकि उनके अपने देश के घटनाक्रमों के परिप्रेक्ष्य में थी, फिर भी यह भारत में गत 20 महीनों से हो रही घटनाओं पर भी इतनी ही सटीकता से लागू होती है। 
 
हमारे मजहबी कट्टरपंथी शायद अर्जेंटीना के कवि और लघु कथा लेखक जोर्जे लुई बोर्जे के इस कथन में श्रद्धा रखते हैं : ‘मजहब के लिए मरना पूरी तरह इसके उसूलों के अनुसार जीने से कहीं अधिक आसान है।’’
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