लाहौर का सपूत ‘कुलदीप नैय्यर’

Edited By Pardeep,Updated: 21 Oct, 2018 04:31 AM

kuldeep nayyar from lahore

मुमकिन है किसी ने इस तरफ ध्यान न दिया हो, फेसबुक पर लगी यह एक छोटी-सी तस्वीर थी। लाहौर में से गुजरते रावी दरिया में चप्पुओं वाली एक छोटी-सी किश्ती जिसमें कुछ अफराद सवार थे, उनमें से एक तो फारूक तारिक था, दूसरा एतिजाज अहसन, बाकी लोग मेरे...

मुमकिन है किसी ने इस तरफ ध्यान न दिया हो, फेसबुक पर लगी यह एक छोटी-सी तस्वीर थी। लाहौर में से गुजरते रावी दरिया में चप्पुओं वाली एक छोटी-सी किश्ती जिसमें कुछ अफराद सवार थे, उनमें से एक तो फारूक तारिक था, दूसरा एतिजाज अहसन, बाकी लोग मेरे लिए अजनबी थे। उनमें एक औरत भी थी। तस्वीर के नीचे लिखा हुआ था कुलदीप नैय्यर की वसीयत के मुताबिक इसके खानदान के लोग इसके फूल या उसकी जलाई गई लाश की राख लाहौर आकर रावी के पानी में विसर्जित कर रहे हैं। 

इस तस्वीर ने मेरे माजी की कई तारों को छेड़कर रागों का एक सिलसिला शुरू कर दिया। मैं अपने होंठ चबाता हुआ, आंसू, विराग और विछोड़े के हिचकोले खाता यादों की खला में पहुंच जाता हूं। यह शायद 1978 या 1979 की बात है, मेरे एक स्वीडिश दोस्त ने कहा : स्टाकहोम के पुराने शहर गामलास्तान में एक सैमीनार हो रहा है। जिसमें शमूलियत के लिए गैर मुल्कों से भी लोग आने थे परन्तु किसी वजह से बहुत से लोगों को वीजे नहीं मिले और बोलने वालों की संख्या कम हो गई है। ये खाली जगह भरने के लिए उनको बोलने वालों की जरूरत है। तुम इस सैमीनार में चले जाओ। उनको बताना कि तुम पाकिस्तान से हो, साथ मेरा हवाला देना। ‘‘जी अच्छा’’ मैंने जवाब दिया। 

अगले दिन मैं अपने एक दोस्त को साथ लेकर ढूंढता हुआ सैमीनार वाली जगह पहुंच गया। सैमीनार का बंदोबस्त करने वालों को अपने स्वीडिश दोस्त का संदेश दिया तो उन्होंने बहुत आवभगत की और बोलने वालों की लिस्ट में मेरा नाम भी लिख लिया। आज मुझे अच्छी तरह तो याद नहीं है कि इस सैमीनार का मुद्दा क्या था, इसकी सिर्फ एक ही बात याद रह गई है जिसको मैं इस सैमीनार का दिया इंतिहाई कीमती तोहफा कहता हूं। यह था कुलदीप नैय्यर के साथ मुलाकात। कुलदीप नैय्यर अकेला हिंदुस्तान से आया था। सैमीनार में वह मंच पर जाकर भी बोला और उसने बहस में भी हिस्सा लिया। इसको जब मालूम हुआ कि हम पाकिस्तान और लाहौर से हैं तो खुशी से फूला न समाया। उसके जज्बात से साफ पता लग रहा था कि जैसे वह परदेस में अपने परिवार के लोगों को मिल गया हो। 

पाकिस्तान की परवरिश के द्वारा बनी मेरी हिंदू की छवि धड़ाम से आ गिरी, न इसकी चोटी, न तन पर लांगड़, न जिस्म से नंगा और न राम-राम का जाप करता हुआ। शक्ल और लिबास से वह बिल्कुल हमारे जैसा ही परन्तु पंजाबी बोली का लहजा स्यालकोट और लाहौर की बोली जैसा मिला-जुला था, जिसमें पूर्वी पंजाब की पंजाबी के लहजों की रत्ती भर भी मिलावट नहीं थी। उसमें न कोई अकड़ और न कोई गरूर, उसके सारे बर्ताव से यूं लगता था जैसे कोई मेरा चाचा या ताया हो। इन रिश्तों का सबूत उसके शरीर की बोली भी दे रही थी। हमें गले लगा कर मिला और आने-बहाने बात करते हमें हाथ लगाता तो उसके हाथ लगाने से अपनेपन के स्वाद की एक लहर-सी सारे शरीर में से गुजरती महसूस होती थी। लंच का समय हुआ तो कहने लगा दफा करो लंच को, चलो होटल के कमरे में चलते हैं। इसका होटल पुराने शहर में ही था जो किसी पुरानी ऐतिहासिक इमारत में बना हुआ था इसलिए न तो यह माडर्न था, न ही कोई मेकअप। एक बहुत ही तंग कमरा। कहने लगा माफ करना, यह बहुत तंग है। आपके बैठने के लिए भी काफी जगह नहीं। 

‘‘कोई बात नहीं, आप हमें मिल गए। हमारे लिए यही ईद बराबर है,’’ हमने उसे तसल्ली दी। वह हमसे सवाल करके अलग-अलग किस्म की जानकारी लेता, बीच में लाहौर की बातें करने लग पड़ता।  कभी दोनों मुल्कों की दुश्मनी पर कुढ़ता और कभी दोनों मुल्कों के लोगों के आपस में प्यार पर बात करता परन्तु हर बार घूम फिर कर लाहौर की तरफ आ जाता था। एफ.सी. कालेज, माडल टाऊन, माल रोड, अनारकली, पुराना लाहौर। उसकी बातों से यूं लगता था जैसे इसका कोई हमजाद लाहौर में रहता है। सैमीनार दो दिन का था। हमारी मुलाकात के बाद इस सैमीनार में न कुलदीप नैय्यर को कोई दिलचस्पी रही और न ही हमें। ङ्क्षहदोस्तान वापस पलटने लगा तो हमें अपनी नई किताब ‘दूर बसते पड़ोसी’ की एक-एक प्रति दे गया और बार-बार ताकीद करता था कि हिंदुस्तान आना तो मुझे जरूर मिलना। इसका उस वक्त का दिया उसके घर का पता और टैलीफोन नंबर अभी तक मेरे पास लिखा हुआ है। उन दिनों में इंटरनैशनल काल करना बेहद महंगा होता था, साथ सीधा फोन डायल भी नहीं  होता था, बल्कि काल बुक करवानी पड़ती थी। जब कभी मेरी जेब इजाजत देती तो मैं कुछ मिनटों के लिए कुलदीप नैय्यर को फोन कर लेता था। 

मेरी अपनी बीवी एन करस्तीन से मुलाकात 1980 में हुई। उसकी ख्वाहिश थी कि हम किसी लम्बे सफर पर इकट्ठे जाएं। सोच-विचार के बाद ङ्क्षहदुस्तान के हक में वोट पड़ा। इसकी एक वजह तो पूर्वी पंजाब देखने का शौक था, दूसरी वजह वतन के प्यार की कशिश थी। जिया उल-हक का कोड़ों, जेलों और जबर का जमाना था, पाकिस्तान जाते डर लगता था परन्तु पंजाबी जुबान सुनने को कान भी तरसते थे। इस वतन के प्यार की कशिश की प्यास को बुझाने के लिए पूर्वी पंजाब नजर आया। जब दिल्ली पहुंचे तो कुलदीप नैय्यर की ताकीद याद आई और हम उसके घर पहुंच गए।

बेहद खुश हुआ, यूं लगता था कि जैसे मैं उसकी बहू को साथ लेकर पहली बार घर आया हूं। जो भी उसके बस में था उसने सारा जोर लगा कर हमारी सेवा की। सारा परिवार हमारे गिर्द इकट्ठा हो गया। सब हमारे साथ बातचीत करना चाहते थे परन्तु लगता था कुलदीप नैय्यर ज्यादा वक्त लेना चाहता था। कहता मैंने सारी जिंदगी कभी पाकिस्तान के खिलाफ एक लफ्ज नहीं लिखा, मैं हमेशा पाकिस्तान की हिमायत में लिखता हूं, इस वजह से कभी-कभी यहां के कट्टर दानिश्वर और अदीब मुझे पाकिस्तान का एजैंट कहते हैं। वे पागल हैं, मैं किसी का कोई एजैंट-वेजैंट नहीं। मैं अपनी जन्मभूमि के खिलाफ कैसे लिख सकता हूं। मैं लाहौर के खिलाफ कैसे लिखूं। वह जब भी लाहौर की बात करता और उसकी आंखें शून्य हो जाती थीं और वह कुछ पलों के लिए कहीं खो जाता था। 

दिल्ली के बाद हम पंजाब गए, सबने हमें सिर पर उठा लिया परन्तु कुलदीप का प्यार हमारे साथ-साथ चलता रहा। स्वीडन वापस आकर कुलदीप नैय्यर कभी न भूला व उसके प्यार को याद करके मेरा अंदर खुशी से खिल जाता। मैंने अपनी किताब ‘दास फैक्टरी’ कुलदीप नैय्यर के नाम की तो किताब मिलने के बाद मेरी इसके साथ बात हुई तो उसकी बातों से यूं लगा जैसे एक बेटा अपनी कमाई लाकर पिता की हथेली पर रखे तो पिता को जिस तरह की खुशी होती है। मैंने जब अपनी अंग्रेजी की किताब ‘फॉरबिडन वर्ड्स’ लिखी तो इसका प्राक्कथन लिखवाने के लिए कुलदीप नैय्यर का नाम मेरे जहन में आया। 

मैंने जब इसके साथ अपनी यह ख्वाहिश जाहिर की तो वह झट तैयार हो गया। कहता किताब भेजो, मैं पढ़ूं तो सही।  मैंने उसको किताब ई-मेल के द्वारा भेजी परन्तु बदकिस्मती से हमारी पुरानी नस्ल के बहुत से बुजुर्गों की तरह कुलदीप नैय्यर भी कम्प्यूटर की ‘क’ से भी वाकिफ नहीं था। वह ई-मेल खोल कर मेरी ई-मेल न पढ़ सका। कई महीनों की कोशिश के बाद एक बंदे की मदद से ई-मेल खोल कर यह किताब कुलदीप नैय्यर तक पहुंच गई। उसने अपना वायदा पूरा किया परन्तु मेरी बदकिस्मती कि यह किताब अपने नाम की वजह से डरावा बन गई और अक्सर पाकिस्तानी पब्लिशर्ज इसको छापने से इंकार कर देते और यह उस वक्त छपी जब कुलदीप नैय्यर दुनिया छोड़कर जा चुका था और उसको यह किताब पेश करने की मेरी खुशी हमेशा के लिए इसके साथ ही दफन हो गई। 

कुलदीप नैय्यर एक प्याज की तरह था जिसका हर छिलका उतारने के बाद हर बार नीचे से लाहौरी पंजाबी ही निकलता था। लाहौर के साथ कुलदीप नैय्यर के इश्क को सामने रखते हुए मैंने एक बार इससे पूछा : आप हिंदुस्तान में दानिश और जर्नलिज्म का स्तम्भ हैं लेकिन आप हर समय लाहौर-लाहौर करते रहते हैं। अगर आपको इस बात की आजादी दे दी जाए कि आप बगैर किसी रोक-टोक के लाहौर में एक लाहौरी की तरह रह सकें तो क्या आप लाहौर चले जाएंगे? ‘‘मैं एक मिनट भी नहीं लगाऊंगा,’’ कुलदीप नैय्यर का जवाब था। कुलदीप नैय्यर सारी जिंदगी लाहौर के लिए बिलखता रहा। अपनी जिंदगी में तो वह लाहौर आकर न बस सका परन्तु मरने के बाद उसकी यह ख्वाहिश पूरी हो गई। उसकी राख को कोई वाघा बार्डर न रोक सका और उसकी यह राख हमेशा के लिए लाहौर का हिस्सा बन गई। लाहौर में एक और जगह भी है जहां कुलदीप नैय्यर रहता है। ये लोगों के दिल हैं। 
सुण शहर लाहौरा
तेरा बिछड़ा बेटा घर आया है
अपने बेटे
अपने फख्र की
मिट्टी संभाल कर रखना
तुम्हें भाग लगेंगे-सय्यद आसिफ शाहकार
                 

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