‘माटी के बेटों’ के लिए जमीनी दृष्टिकोण का अभाव

Edited By ,Updated: 26 Sep, 2020 03:02 AM

lack of ground approach to sons of soil

कृषि भारत की अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा है, इसलिए मेरा जोरदार तरीके से मानना है कि किसानों के स्वास्थ्यपूर्ण एवं तेजी से विकास से जुड़े मामलों पर एक सर्वसम्मत दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। यद्यपि संसद के दोनों सदनों में 3 कृषि विधेयकों पर चर्चा तथा...

कृषि भारत की अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा है, इसलिए मेरा जोरदार तरीके से मानना है कि किसानों के स्वास्थ्यपूर्ण एवं तेजी से विकास से जुड़े मामलों पर एक सर्वसम्मत दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। यद्यपि संसद के दोनों सदनों में 3 कृषि विधेयकों पर चर्चा तथा विपक्षी दलों के विरोध-प्रदर्शन के दौरान देखे गए उग्र माहौल के मद्देनजर मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि किसानों के मुद्दों से संबंधित मामलों की स्थिति को लेकर मुझे निराशा महसूस होती है। 21 सितम्बर को राज्यसभा में देखा गया जोरदार ड्रामा अपने आप में घोर निराशा पैदा करने वाला था। इससे स्थापित संसदीय नियमों के मद्देनजर चतुराईपूर्ण ढंग से निपटा जा सकता था लेकिन तब क्या किया जा सकता है जब किसानों के मुद्दों तथा मतदान प्रक्रिया के मामले में स्पर्धात्मक एवं नकारात्मक राजनीति हावी हो जाए। 

इस पेचीदा स्थिति में मुझे हैरानी होती है कि क्या तीनों विधेयक-किसानों का उत्पाद, व्यापार तथा वाणिज्य (संवर्धन तथा सुविधा) विधेयक, 2020 तथा किसानों का (सशक्तिकरण तथा सुरक्षा) समझौता एवं मूल्य आश्वासन व कृषि सेवाएं अधिनियम 2020 किसानों के हितों तथा कृषि के विकास का अपना उद्देश्य पूरी तरह से पूरा कर पाएंगे? जैसा कि भाजपानीत मोदी सरकार दावा कर रही है। आलोचकों को चुप करने के लिए सरकार ने फिलहाल 6 फसलों की एम.एस.पी. को बढ़ा दिया है। एम.एस.पी. वह कीमत है जिस पर सरकार किसानों से फसलें खरीदती है। यह आमतौर पर किसानों द्वारा उत्पादन की लागत का डेढ़ गुणा होती है। 

मैं वर्तमान प्रदर्शनों को विश्वास निर्माण संकट के रूप में देखता हूं। मोदी सरकार अपनी किसान संबंधी नीतियों को लेकर किसानों तथा विपक्षी नेताओं को विश्वास में लेने में असफल रही है। कोई हैरानी नहीं कि भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगियों में से एक शिरोमणि अकाली दल की सांसद एवं केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने 17 सितम्बर को नरेन्द्र मोदी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया तथा सार्वजनिक रूप से इसकी कृषि नीतियों की आलोचना की। पिछले कुछ  समय से पंजाब और यहां तक कि भाजपा के अपने राज्य हरियाणा में किसान समर्थक आवाजें उठ रही हैं। सच है कि अब राजनीति किसानों के मुद्दे पर केन्द्रित हो गई। एक तरह से यह भारत की पेचीदा राजनीति में स्वाभाविक है कि सत्ताधारी पार्टी अपने तरीके से काम करने के लिए संसद में  अपने बहुमत पर निर्भर है। हो भी ऐसा ही रहा है। यह स्पष्ट है कि कृषि के मुद्दों पर आधिकारिक तथा विपक्षी दृष्टिकोणों में अत्यधिक अंतर है। 

मैं पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हूं कि चीजें कैसे और कहां गलत हुईं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कहना है कि कृषि विधेयकों में सुधार किसानों को 21वीं शताब्दी में ले जाएंगे। मगर पंजाब, हरियाणा तथा यहां तक कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसान सरकार की बड़ी-बड़ी बातों को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। वे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) प्रक्रिया के आदी हो चुके हैं, जिसे वे अपने लिए अच्छा समझते हैं। दूसरी ओर सरकार ने किसानों को अपनी पसंद की स्वतंत्रता के अनुरूप अपने उत्पाद किसी को भी देश में कहीं भी बेचने की सुविधा देकर स्वच्छ छवि बनाने का प्रयास किया है। 

अत: न तो किसान और न ही व्यापारी, संसाधक, रिटेलर तथा निवेशक को सरकार नियमित ए.पी.एम.सी. (कृषि उत्पाद मार्कीट कमेटी) मंडियों से खरीदने अथवा बेचने को बाध्य किया जा सकेगा। सब कुछ पहले की तरह जारी रहेगा। महत्वपूर्ण प्रश्र यह है कि क्यों किसान मंडियों के नए विचार को लेकर इतने आशंंकित हैं। किसान महसूस करते हैं कि उनके उत्पादन का भंडारण करने के लिए किन्हीं उचित ढांचागत सुविधाओं के अभाव में कैसे वे अपने उत्पाद के लिए सही कीमत चुनने का विकल्प इस्तेमाल कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में सूचना का कोई विश्वसनीय साधन नहीं है जो उनकी उपज की सही कीमत दिलाने में प्रभावी भूमिका निभा सके। 

इन परिस्थितियों में ‘स्वतंत्रता’ से लाभ कमाने का आधिकारिक रवैया महज कागजी बन कर रह गया है। किसानों के लिए जो चीज मायने रखती है, वह कागजों पर ‘लाभ’ का प्रश्र नहीं है बल्कि एक विश्वसनीय प्रणाली से ऊंचे लाभ, जो उन्हें ऊंचा रहन-सहन प्रदान करते हैं। पीछे नजर डालें तो भारतीय कृषि के साथ वास्तविक समस्या इस पर नौकरशाही का अत्यधिक बोझ है। अधिकारी सार्वजनिक रूप से कुछ कहते हैं लेकिन जो वह कहते हैं उसके ठीक विपरीत करते हैं। शब्दों तथा कार्रवाई के बीच एक स्वाभाविक अंतर है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी की इस घोषणा के बाद भी कि न्यूनतम  समर्थन मूल्य तथा सरकार द्वारा फसलों की खरीद की प्रक्रिया जारी रहेगी, किसानों के बीच अधिक विश्वास पैदा करने में मदद नहीं मिल सकी है। 

यह हैरानीजनक नहीं है। हम जानते हैं कि आधिकारिक प्रणाली कैसे काम करती है? माटी के बेटों के नजरिए से समस्याओं पर नजर डालने के जमीनी दृष्टिकोण के अभाव के लिए काम  चलाऊ दृष्टिकोण जिम्मेदार है। जो स्थिति है कृषि क्षेत्र काफी हद तक तकनीकी बदलावों के अनुरूप अपनी रफ्तार कायम नहीं रख पाया है। इस उद्देश्य के लिए जमीनी स्तर से ऊपर तक नई कुशलता तथा निरंतरता की जरूरत है। 

दुर्भाग्य से कृषि भवन की पृष्ठभूमि उतनी निर्बाध नहीं रही। ऐसा दिखाई देता है कि यह अपनी खराब नीतियों के चंगुल में फंसा हुआ है। भारत की ताकत को न जानते हुए यह ऐसा आभास दे रहा है जैसे निहित हितों के सामने समर्पण करने को तैयार है। इस संदर्भ में भंडारण की और पर्याप्त सुविधा भी खुद एक गंभीर समस्या है। फिर कई क्षेत्रों में खारेपन तथा जल जमाव की समस्या इसके अतिरिक्त जमीन में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी है। फिर घास-पात की वृद्धि, कीटों तथा बीमारियां फूट पडऩे की समस्या है। ये सभी समस्याएं एक नई समन्वित सोच तथा रणनीतियों का आह्वान करती हैं। हम किसानों में बढ़ते असंतोष को नजरअंदाज नहीं कर सकते।-हरि जयसिंह
  

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