हड़तालों के बीच गुजरता लोगों का जीवन

Edited By Punjab Kesari,Updated: 12 Jun, 2018 12:47 AM

life of people passes through strikes

नागरिक उदासीनता और आर्थिक असंतोष के बीच आए दिन हड़तालें हो रही हैं। बीते कई दशकों से भारत में ऐसी स्थिति बनी हुई है कि यहां पर जीवन हड़तालों के बीच गुजरता है और ये हड़तालें करने वाले हमेशा कहते हैं कि उनका कोई उद्देश्य है किन्तु इससे आम लोगों को...

नागरिक उदासीनता और आर्थिक असंतोष के बीच आए दिन हड़तालें हो रही हैं। बीते कई दशकों से भारत में ऐसी स्थिति बनी हुई है कि यहां पर जीवन हड़तालों के बीच गुजरता है और ये हड़तालें करने वाले हमेशा कहते हैं कि उनका कोई उद्देश्य है किन्तु इससे आम लोगों को परेशानियां होती हैं। किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता वहां समाप्त हो जाती है जहां से दूसरे व्यक्ति की नाक का छोर शुरू होता है। 1 जून से 10 जून (दस दिन) तक राष्ट्रीय किसान महासंघ और किसान एकता मंच के तत्वावधान में 172 संगठनों ने देश में व्याप्त कृषि संकट की ओर सरकार का ध्यान आकर्षि​त करने के लिए गांव बंद का आयोजन किया।

इस विरोध-प्रदर्शन के अंग के रूप में किसानों ने इस दौरान अपने उत्पादों को शहरों में न बेचने का निर्णय किया क्योंकि वे चाहते थे कि शहरी लोग भी उनकी समस्याओं को समझें और सरकार को किसानों का महत्व समझाने के लिए विवश करें।

इन संगठनों की मुख्य मांग थी कि किसानों के ऋण पूरी तरह माफ  किए जाएं, न्यूनतम समर्थन मूल्य सभी आदानों की लागत से 50 प्रतिशत अधिक निर्धारित किया जाए। इस बार के बंद में एक खास बात यह थी कि देश के सभी किसान संगठन एकजुट हुए अन्यथा ऐसा केवल शहरों में विभिन्न क्षेत्रों के संगठनों में देखने को मिलता है और राजनीतिक दलों में किसानों की मांगों का समर्थन करने की होड़ लगी हुई थी। अभी हाल ही में कर्नाटक में किसानों के 50 हजार रुपए तक के सभी ऋण माफ  करने की घोषणा की गई। यही स्थिति राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की भी है। विडम्बना देखिए कि ऋण माफी योजनाओं ने अन्य राज्यों के लिए भानुमति का पिटारा खोल दिया है और इसके चलते वसुंधरा राजे जैसी सरकार 6500 करोड़ रुपए के घाटे में आ गई।

जरा सोचिए। किसान एक बड़ा वोट बैंक है क्योंकि देश की 85 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या कृषि कार्य-कलापों में लगी हुई है किन्तु गत 2 वर्षों में अर्थव्यवस्था में कृषि का हिस्सा 33 प्रतिशत से कम होकर 1 प्रतिशत रह गया है और किसानों की ऋणग्रस्तता बढ़ गई है जिसके चलते गत 20 वर्षों में 346538 किसानों ने आत्महत्या की है अर्थात  प्रति वर्ष 16500 किसानों ने आत्महत्या की है। ये आंकड़े राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के हैं और वास्तविक संख्या इससे भी अधिक हो सकती है। महाराष्ट्र में किसानों द्वारा आत्महत्या आम बात है और पंजाब में गत 2 वर्षों में 11 जिलों में 6926 किसानों ने आत्महत्या की है। न केवल किसान अपितु देश के उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम किसी भी भाग या किसी भी मोहल्ला, शहर और राज्य में यही स्थिति है।

कुछ नाराज समूह अपनी शिकायतों को लेकर हड़ताल करते हैं और देश में जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर देते हैं। भारत में आए दिन बंद, हड़ताल, रास्ता रोक, चक्का जाम होता रहता है। हड़ताल से लोगों में भय अर्थात जिसकी लाठी उसकी भैंस की भावना पैदा हो जाती है। हड़तालें स्वतंत्र भारत में लोगों को नियंत्रण मुक्त करने का साधन हैं। इससे प्रश्न उठता है कि क्या हड़तालें वास्तव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हैं या वे लोगों के मूल अधिकारों का दमन करने का साधन हैं। श्रमिक संघ हड़तालें क्यों करते हैं? क्या ये हड़तालें श्रमिकों को एकजुट रखने के लिए की जाती हैं या श्रमिक संघों की प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए? क्या इनका उद्देश्य श्रमिकों के हित, उनके लिए बेहतर मजदूरी और जीवन की गुणवत्ता है या ये राजनीतिक कारणों से की जाती हैं? कुछ लोग कहेंगे कि ‘सब चलता है’ और ‘मेरा भारत महान है’ और दूसरे यहां तक कहेंगे कि की फरक पैंदा है। किन्तु सच यह है कि इन हड़तालों से यह स्पष्ट हो गया है कि यह खेल कितना खतरनाक है। इसमें हिंसा, मारकाट, मौत आदि सभी देखने को मिलता है।

भारत में तिलक के ‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार’ से ‘हड़ताल मेरा जन्म सिद्ध अधिकार’ तक ने लंबा सफर तय कर लिया है। आज समाज का हर वर्ग हड़ताल करने की योजना बनाता है। देश की राजधानी की सबसे महत्वपूर्ण सड़क संसद मार्ग एक युद्धक्षेत्र जैसा लगता है जहां पर भारी-भारी बैरिकेड लगे होते हैं। बंदूक और डंडाधारी पुलिस तैनात होती है, फायर इंजन और पुलिस वैन तैनात रहती है और वहां पर हर दिन विरोध-प्रदर्शन होता है। इन विरोध-प्रदर्शनों का कारण महत्वपूर्ण नहीं होता है, महत्वपूर्ण यह होता है कि लोग अपना विरोध दर्ज कर देते हैं। इन विरोध-प्रदर्शनों और हड़तालों की सफलता का पैमाना लोगों को अधिकतम असुविधाएं पहुंचाना है। वर्ष 2017 में हड़तालों के कारण भारत में 11.73 लाख श्रम दिवसों की हानि हुई है जिसके चलते राजकोष को 14350 करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ है। 2016 की तुलना में इनमें 44 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

गुजरात और तमिलनाडु के कपड़ा श्रमिक, कर्नाटक में आई.टी. कर्मचारी, केरल में विभिन्न कार्यालयों के कामगारों का विरोध-प्रदर्शन, रक्षाकर्मियों और सरकारी कर्मचारियों द्वारा विरोध-प्रदर्शन आम बात है। वर्ष 2017 में हड़तालों के कारण सर्वाधिक श्रम दिवसों का नुक्सान तमिलनाडु में हुआ जिसकी संख्या 5.74 लाख है। इसके बाद केरल में 1.37 लाख, गुजरात में 99880 श्रम दिवसों का नुक्सान हुआ। हड़तालों के कारण उत्पादन की सर्वाधिक हानि 286 करोड़ रुपए की गुजरात में हुई है। उसके बाद बंगाल में 181 करोड़ का नुक्सान हुआ है। उद्योगों के नेताओं का कहना है कि हड़तालें बदलती नीतियों की परिचायक हैं तो श्रमिक संघों का कहना है कि देश में स्थिति बिगड़ती जा रही है और इसका भविष्य खतरे में है जबकि केन्द्र और राज्य सरकारें देश में निवेश के लिए सबसे अच्छा वातावरण बताती हैं।

हड़ताल या बंद के स्वरूप में बदलाव आता जा रहा है। इसकी मूल धारणा इस तर्क पर आधारित थी कि शक्तिहीन लोग व्यवस्था को हिलाने के लिए एकजुट होकर घेराव करते थे या हड़ताल करते थे किन्तु धीरे-धीरे इसमें भी विकृतियां आने लगीं और यह माना जाने लगा कि हड़ताल तभी प्रभावी होगी जब काम रुकेगा। इसलिए हड़ताली इस शक्ति का प्रयोग करते हैं और कभी-कभी हिंसा पर भी उतारू  हो जाते हैं। विडम्बना देखिए। एक ओर हम जापान, कोरिया और चीन जैसे देशों की सुदृढ़ अर्थव्यवस्था के साथ अगली महाशक्ति बनने के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हड़तालें इस लक्ष्य को प्राप्त करने के मार्ग में अड़चन हैं।

किसी भी सभ्य राष्ट्र में कोई भी राजनीतिक दल या श्रमिक संघ मौतों और जनता को उचित नहीं ठहरा सकता है। बंद या हड़ताल का कोई भी आह्वान आम आदमी की परेशानियों से प्रेरित होना चाहिए न कि नेताओं द्वारा थोपा जाना चाहिए। वस्तुत: आज लोग भी बंद और हड़तालों से ऊब गए हैं। हाल के सर्वेक्षण के अनुसार चार लोगों में से तीन लोग हड़ताल पर प्रतिबंध लगाना चाहते हैं। 10 में से 8 लोग हड़ताली नेताओं को कड़ी सजा या भारी जुर्माना लगाने के पक्ष में हैं। केवल 15 प्रतिशत लोग हड़ताल में विश्वास करते हैं। 10 प्रतिशत लोग इसमें स्वेच्छा से भाग लेते हैं। 60 प्रतिशत लोग गांधीवादी, सविनय अवज्ञा और शांतिपूर्ण धरने में विश्वास करते हैं।

कुल मिलाकर अपनी मांगों को मनवाने के लिए बल का प्रयोग करना आम बात होने के कारण हड़तालों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। सरकार या उद्योगपतियों का ध्यान आ​कर्षित करने के लिए आम जनजीवन को पंगु बनाना और उद्योगपतियों को ब्लैकमेल करना आदि से जनता नाराज है। हड़तालों के कारण धन का प्रवाह रुक जाता है, निवेशक घबरा जाता है और रोजगार के अवसर खतरे में पड़ जाते हैं। इसलिए ब्लैकमेलिंग की इस युक्ति को बंद कर दिया जाना चाहिए। बंद और हड़ताल के स्थान पर जनमत संग्रह किया जाना चाहिए जो लोगों के लिए क्या गलत है और क्या सही, का निर्णय करेगा। इससे राजनीतिक दलों और श्रमिक संघों के विरुद्ध लोगों को सौदेबाजी की अधिक शक्ति प्राप्त होगी। भारत को सुशासन और आॢथक विकास की आवश्यकता है जहां पर नागरिकों के अधिकार सर्वोपरि हैं। क्या हम देश में हड़तालों का भार सह सकते हैं? बिल्कुल नहीं। किसी न किसी वक्त पर हमें कहना होगा, ‘‘बंद करो ये नाटक’’।
पूनम आई. कौशिश   pk@infapublications.com

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