‘हांगकांग की दस्तक बाइडेन भी सुनें और भारत भी’

Edited By ,Updated: 19 Nov, 2020 04:09 AM

listen to hong kong s knock biden and india too

अभी जो बाइडेन ने व्हाइट हाऊस की दहलीज पर पांव भी नहीं रखा है कि उसके दरवाजे पर हांगकांग की दस्तक पडऩे लगी है। राष्ट्रपति भवन में सांस लेने से पहले ही बाइडेन को पता चल गया है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सांस लेने का अवकाश नहीं होता है; और यह भी कि...

अभी जो बाइडेन ने व्हाइट हाऊस की दहलीज पर पांव भी नहीं रखा है कि उसके दरवाजे पर हांगकांग की दस्तक पडऩे लगी है। राष्ट्रपति भवन में सांस लेने से पहले ही बाइडेन को पता चल गया है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सांस लेने का अवकाश नहीं होता है; और यह भी कि उप-राष्ट्रपति और राष्ट्रपति की भूमिका में कितना बड़ा अंतर होता है। हांगकांग ने व्हाइट हाऊस के द्वार पर जो दस्तक दी है, बाइडेन उसे अनसुना नहीं कर सकेंगे, क्योंकि वह ट्रंप-समर्थकों की नहीं, लोकतंत्र की दस्तक है। 

कभी चीन से हासिल किया गया हांगकांग लंबे समय तक ब्रितानी उपनिवेश रहा। 1997 में इंगलैंड ने हांगकांग को एक संधि के तहत चीन को वापस लौटाया जिसकी आत्मा थी ‘एक देश : दो विधान!’ आशय यह था कि हांगकांग चीन का हिस्सा रहेगा जरूर लेकिन चीनी कानून उस पर लागू नहीं होंगे। संधि कहती है कि 2047 तक हांगकांग के अपने नागरिक अधिकार होंगे और अपनी लोकतांत्रिक परम्पराएं होंगी। 

चीन उनमें किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा। हांगकांग की भौगोलिक स्थिति भी उसे ऐसी स्वायत्तता को अनुकूलता देती है। जब तक चीन संधि की मर्यादा में रहा, हांगकांग में सब ठीक चलता रहा। इंगलैंड की लोकतांत्रिक परंपराओं के तहत पला हांगकांग जब चीनी प्रभुत्व तले आया तब उसके पास वह लोकतांत्रिक परंपरा थी जिसमें असहमति की आजादी थी, नए संगठन खड़ा करने और नया रास्ता खोजने, बोलने, लिखने और बयान देने की आजादी थी। 

यह सब चीन को नागवार तो गुजरता रहा लेकिन उसने वक्त को गुजरने दिया और अपना फंदा कसना भी जारी रखा। चीनी दबाव के खिलाफ हांगकांग कोई चार साल पहले बोला। वहां की सड़कों से ऐसी आवाज उठीं जैसी पहले कभी सुनी नहीं गई थीं। युवकों का यह ऐसा प्रतिकार था जिसने जल्दी ही सारे हांगकांग को अपनी चपेट में ले लिया। देखते-देखते सारा देश, जिसे चीनी आज भी ‘एक शहर’ भर कहते हैं, दो टुकड़ों में बंट गया। 

एक छोटा-सा, मुट्ठी भर चीनपरस्त नौकरशाहों का हांगकांग; दूसरी तरफ सारा देश ! इसलिए प्रतिरोध व्यापक भी हुआ और उग्र भी ! वह अहिंसक तो नहीं ही रहा, उसे शांतिमय भी नहीं कहा जा सकता था। लेकिन यह फैसला इस आधार पर भी करना चाहिए कि सत्ता के कैसे दमन का, नागरिकों ने कैसा प्रतिकार किया। 

महात्मा गांधी ने भी ऐसा विवेक किया था और पश्चिम में हुए नागरिकों के कुछ प्रतिरोधों को ‘करीब-करीब अङ्क्षहसक’ कहा था। उन्होंने हमें यह भी समझाया था कि बिल्ली के मुंह में दबा चूहा जब दम तोडऩे से पहले, पलट कर बिल्ली को काटने की कोशिश करता है तो वह हिंसा नहीं, बहादुरों की अङ्क्षहसा का ही प्रमाण दे रहा होता है। इसलिए ऐसा तो नहीं है कि हांगकांग के नागरिक प्रतिकार के पीछे कहीं महात्मा गांधी की प्रेरणा है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वहां महात्मा गांधी की उपस्थिति है ही नहीं। यथासंभव शांतिमय लेकिन व्यापक हर नागरिक प्रतिरोध का चेहरा महात्मा गांधी की तरफ ही होता है। इसलिए भी यह जरूरी है, और नैतिक है कि सारा संसार हांगकांग की तरफ देखे और उसकी सुने; और चीन को पीछे लौटने को मजबूर करे। 

अभी-अभी जून में चीन ने हांगकांग के बारे में एकतरफा निर्णय किया कि ‘हांगकांग नगर सरकार’ को यह अधिकार है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन रहे किसी भी राजनेता को उसके पद, हैसियत, संगठन से बहिष्कृत कर सकती है।  देशद्रोह वह सबसे सस्ता स्टिकर है जो किसी भी पीठ पर चिपकाया जा सकता है। चीनी आदेश में कहा गया है कि वे सभी ‘देश की सुरक्षा’ के लिए खतरा हैं जो हांगकांग के लिए आजादी की मांग करते हैं, चीन का आधिपत्य स्वीकार करने से इंकार करते हैं। हांगकांग के मामले में विदेशी हस्तक्षेप की मांग करते हैं या किसी दूसरे तरीके से भी लोकतांत्रिक आंदोलन को शह देते हैं। चीन से ऐसी शह मिलते ही ‘नगर सरकार’ ने चार सांसदों को संसद से बहिष्कृत कर दिया। 

ये चारों सदस्य चीनी वर्चस्व के सबसे संयत लेकिन सबसे तर्कशील प्रतिनिधि थे। दूसरे उग्र सांसदों ने न छूकर, इन्हें निशाने पर लेने के पीछे की रणनीति प्रतिरोध आंदोलन में फूट डालने की थी। हांगकांग की संसद के 70 सदस्यों में 19 सदस्य लोकतंत्र समर्थक संगठन के दम पर चुनाव जीत कर आए हुए हैं। अब दुनिया भर की लोकतांत्रिक शक्तियों के सामने चुनौती है कि हांगकांग कहीं याहिया खान के समक्ष खड़ा बंगलादेश न बन जाए। आज तो कोई जयप्रकाश नारायण भी नहीं हैं जो बंगलादेश की अंतर्रात्मा को कंधे पर ढोते हुए, सारे संसार की लोकतांत्रिक शक्तियों के दरवाजे पर दस्तक देते हुए फिरेंगे। इसलिए हांगकांग की दस्तक सुनना जरूरी है। बाइडेन भी सुनें और हमारा देश भी सुने अन्यथा लोकतंत्र हमारी सुनना बंद कर देगा।-कुमार प्रशांत

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