Edited By ,Updated: 15 Mar, 2019 05:32 AM
चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तिथियों की घोषणा के साथ ही 17वीं लोकसभा के लिए राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं। अन्य चुनावों की तरह इस बार भी चुनाव में अनेक मुद्दे होंगे लेकिन एक मुद्दा जिसके सबसे अधिक चर्चा में रहने की संभावना है वह है कृषि संकट। इस...
चुनाव आयोग द्वारा चुनाव की तिथियों की घोषणा के साथ ही 17वीं लोकसभा के लिए राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं। अन्य चुनावों की तरह इस बार भी चुनाव में अनेक मुद्दे होंगे लेकिन एक मुद्दा जिसके सबसे अधिक चर्चा में रहने की संभावना है वह है कृषि संकट। इस बार यह संकट कुछ ज्यादा गहरा है तथा गत 2 वर्षों से स्थिति और गंभीर हुई है। इसके अतिरिक्त कृषि से जुड़े अन्य क्षेत्र जैसे कि अनाज से जुड़े क्षेत्र, बागवानी, नकदी फसलें तथा पशु अर्थव्यवस्था भी इस संकट की चपेट में आ गई है। यद्यपि इन सभी क्षेत्रों में संकट के कारण अलग-अलग हैं लेकिन इससे एक ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिसमें कृषि अर्थव्यवस्था में वास्तविक आय में गिरावट देखी जा रही है।
संकट केवल कृषि तक सीमित नहीं
एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि कृषि से पैदा हुए संकट केवल कृषि क्षेत्र तक ही सीमित नहीं हैं-ग्रामीण क्षेत्र में वेतन को लेकर किए गए हालिया अनुमान बताते हैं कि ग्रामीण गैर कृषि अर्थव्यवस्था पिछले 6 महीनों में काफी कमजोर पड़ गई है। मजदूरी की दरें पिछले 3 दशकों में सबसे खराब स्थिति में हैं। वेतन में वृद्धि काफी कम रही है। स्पष्ट है कि कृषि क्षेत्र में आय में कमी और वेतन में ठहराव से ग्रामीण मांग में कमी आई है जिससे अब अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से पर प्रभाव पडऩे की संभावना है। वाहनों की बिक्री तथा अन्य वस्तुओं की बिक्री में आई गिरावट बाजार में मंदी की पुष्टि करती है।
कृषि क्षेत्र में संकट अब केवल अनुमान की बात नहीं है बल्कि यह देश के विभिन्न भागों में हो रहे विरोध प्रदर्शनों से स्पष्ट हो चुका है। कुछ समय पहले हुए विधानसभा चुनावों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस मुद्दे को राजनीतिक तौर पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भाजपा की हार का एक मुख्य कारण किसानों का गुस्सा भी रहा। दूसरी तरफ ऋतु बंधु स्कीम के तहत किसानों को 4000 रुपए प्रति एकड़ देने की तेलंगाना राष्ट्र समिति की योजना ने उसकी राज्य की सत्ता में वापसी की राह प्रशस्त की।
किसानों को नहीं कर सकते नजरअंदाज
क्योंकि मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग किसान है इसलिए कोई भी राजनीतिक दल कृषि संकट को नजरअंदाज नहीं कर सकता। हालांकि इस संकट की पहचान हो गई है लेकिन निकट भविष्य में इसका कोई समाधान नजर नहीं आता। अधिकतर राज्यों ने पहले ही ऋण माफी जैसे कदम उठाए हैं जहां पिछले 2 वर्षों में चुनाव हुए हैं। इसके बावजूद यह संकट कम नहीं हुआ है। यद्यपि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने पहले ही देश भर में ऋण माफी का वायदा किया है लेकिन जिन राज्यों में कर्ज माफी की गई है वहां के किसानों की आय में कोई खास बढ़ौतरी नहीं हुई है। इसी प्रकार राजनीतिक दलों की ओर से स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिशों की तर्ज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का वायदा किए जाने की संभावना भी न के बराबर है क्योंकि इन्हें लागू करना किसी भी दल के लिए काफी कठिन होगा।
नकदी हस्तांतरण है नया मंत्र
अब नया मंत्र है नकदी हस्तांतरण जिसकी घोषणा अगले 6 महीनों में चुनाव वाले राज्यों तथा केन्द्र सरकार द्वारा पहले ही की जा चुकी है लेकिन इनमें से किसी भी राज्य में कृषि वस्तुओं की कीमतों पर प्रभाव नहीं पड़ा है जो अब भी कम बनी हुई हैं तथा कुल ग्रामीण मांग भी कम है। किसानों को आय हस्तांतरित करने से छोटी या मध्यम अवधि के लिए ग्रामीण मांग में वृद्धि हो सकती है लेकिन इससे किसानों में पनपी उनको नजरअंदाज करने की भावना समाप्त नहीं होगी। क्या इन अल्पावधि उपायों से किसानों को गुस्सा दूर हो जाएगा? संकट की प्रकृति को देखते हुए इसकी संभावना नहीं लगती लेकिन यह तय है कि कृषि संकट एक प्रमुख मुद्दा रहेगा।