ममता की चिट्ठी का मतलब यह कि वह मुश्किल में हैं

Edited By ,Updated: 05 Apr, 2021 03:56 AM

mamta s letter means that she is in trouble

पश्चिम बंगाल में दूसरे चरण के मतदान से ठीक एक दिन पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विरोधी दलों के नेताओं के नाम एक चॢचत चिट्ठी लिखी। यह चिट्ठी 15 गैर-भाजपा नेताओं को भेजी गई। इस चिट्ठी में इन सभी नेताओं से आह्वान किया गया कि

पश्चिम बंगाल में दूसरे चरण के मतदान से ठीक एक दिन पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विरोधी दलों के नेताओं के नाम एक चॢचत चिट्ठी लिखी। यह चिट्ठी 15 गैर-भाजपा नेताओं को भेजी गई। इस चिट्ठी में इन सभी नेताओं से आह्वान किया गया कि लोकतंत्र और संविधान पर भाजपा के हमलों के खिलाफ एकजुट होने और प्रभावी संघर्ष का समय आ गया है। चिट्ठी में जो मुख्य बात है, वह उनकी भविष्य की रणनीति को आगे बढ़ाती है। इसलिए इसके कई अर्थ निकाले जा रहे हैं। सिर्फ अर्थ ही नहीं निकाले जा रहे, बल्कि इसका एक संदेश बंगाल के मतदाताओं और अपने समर्थकों तक भी पहुंच चुका है। 

आम लोग इस चिट्ठी का पहली नजर में जो अर्थ निकाल रहे हैं, वह यह है कि ममता मुश्किल में हैं और आगे की रणनीति तैयार कर रही हैं। भाजपा से उन्हें उम्मीद से ज्यादा बड़ी चुनौती मिल रही है, इसलिए अब वह अन्य रास्ते तलाश रही हैं। खुद को प्रभावी बनाए रखने के लिए विपक्ष की एकजुटता का नया राग अलाप रही हैं। वैसे जिन्हें यह चिट्ठी लिखी गई है, उनके नामों पर एक नजर डालें तो कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं। सूची में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं।

साथ ही एन.सी.पी. नेता शरद पवार, द्रमुक प्रमुख एम.के. स्टालिन, सपा प्रमुख अखिलेश यादव, राजद नेता तेजस्वी यादव, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी, केएस रेड्डी, नैकां के फारुक अब्दुल्ला, पी.डी.पी. नेता महबूबा मुफ्ती और भाकपा माले के नेता दीपांकर भट्टाचार्य के नाम हैं। 

साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि विपक्षी एकता के नाम पर ममता पहले भी कई कोशिशें करती रही हैंं। ज्यादा नहीं, दो साल पहले 19 जनवरी 2019 को भी उन्होंने विपक्षी एकता के नाम पर कोलकाता में एक बड़ी रैली की थी जिसमें राज्यों के कई दिग्गज नेता शामिल हुए थे पर बात उससे आगे नहीं बढ़ सकी थी। गैर-भाजपा नेताओं के खिलाफ सी.बी.आई. और ई.डी. तथा अन्य एजैंसियों का दुरुपयोग हो रहा है। मोदी सरकार गैर-भाजपा शासित राज्यों के फंड रोक रही है। राज्यपाल के सहारे समानान्तर सरकार चलाने की कोशिश हो रही है। चिट्ठी में इसी तरह के सात बिंदू क्रमवार रखे गए हैं। 

ममता का साफ मानना है कि भाजपा किसी भी तरह से गैर-भाजपाई दलों के संवैधानिक अधिकारों  और स्वतंत्रता पर पूरी तरह से अंकुश लगाने के लिए पूरी तरह से तत्पर है। वह राज्य सरकारों की ताकत को नगर निगमों से ज्यादा नहीं रखना चाहती। और देश में एक तरह से एक दलीय अधिनायकवादी शासन लगाना चाहती है। यही सही वक्त है कि भाजपा के लोकतंत्र और संविधान पर हमले के खिलाफ एकीकृत और प्रभावी लड़ाई शुरू की जाए।

किसान आंदोलन के बाद देश में ऐसा माहौल बनाने की कोशिश होगी कि देश में सब कुछ खतरे में है। लोकतंत्र, स्वायत्तशासी संस्थाएं और न्यायपालिका। चुनावों के बाद इस पर रणनीति की जरूरत ममता बताती हैं। तीन पेज की इस चिट्टी से जो एक और बड़ा संदेश देने की कोशिश की गई है, वह यह है कि देश की राजनीति अब भाजपा बनाम अन्य हो गई है, जैसे कभी कांग्रेस बनाम अन्य होती थी। इतना ही नहीं वह इस गैर-भाजपा राजनीति में अपनी बड़ी भूमिका भी तय करने में जुट गई हैं। 

अगर वह बंगाल में हार जाती हैं तो वह केंद्र की राजनीति में किस भूमिका में आने की कोशिश करेंगी, इसका संकेत इस चिट्ठी से मिलता है। अगर बंगाल में वह जीत कर फिर मुख्यमंत्री बनती हैं तो राष्ट्रीय राजनीति में वह अपना कद और बढ़ाने की कोशिश करेंगी, इसका खुला आभास भी यह चिट्ठी देती है। ममता राष्ट्रीय राजनीति में जाती हैं तो राज्य की जिम्मेदारी वह पूरी तरह अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी पर छोड़ सकती हैं। इस सबके बीच सबसे अहम सवाल यह है कि इस सबसे ममता बनर्जी को क्या फायदा है।

कांग्रेस भले ही कितनी भी गिरी-पड़ी स्थिति में हो अभी मुख्य विपक्ष के नेतृत्व की जिम्मेदारी है। सोनिया गांधी भले ही यू.पी.ए. प्रमुख हों लेकिन राहुल गांधी विपक्ष का मुख्य चेहरा अब भी माने जाते हैं। वैसे भी शरद पवार की पार्टी ने  सोनिया की नेतृत्व क्षमता पर  सवाल उठाकर उनको किनारे करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। ममता की कोशिश है कि सोनिया को किनारे कर खुद केंद्रीय भूमिका में आ जाएं। वैसे भी एक तरह से साफ है कि ममता और राहुल में एक अलिखित सहमति हो चुकी है। इसका नजारा पश्चिम बंगाल के हो रहे चुनावों में भी दिख चुका है। 

जहां तक शरद पवार और उद्धव ठाकरे की बात है तो इन दोनों में से किसी के भी बारे में यह बात कोई पूरे विश्वास से नहीं कह सकता कि ये कब तक साथ रहेंगे और इनमें से कब कौन भाजपा के साथ चला जाएगा। शरद पवार की पार्टी ने तो पहले ही यू.पी.ए. की भूमिका को लेकर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। तमिलनाडु में स्टालिन कांग्रेस के साथ हैं और उन्हें इसी में उनका फायदा है। जगन मोहन रेड्डी स्थानीय से आगे जाने में रूचि नहीं रखते और उनका एकमात्र निशाना तेलगू देशम पार्टी है। ममता कुल मिलाकर अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, फारुक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती पर ही भरोसा कर अपना खेल चल सकती हैं। इनमें से ज्यादातर प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस को जेब में रखते रहे हैं।

ममता अगर  बीच चुनाव में चिट्ठी रणनीति में उलझने की जगह अगर वह पूरा जोर मुद्दों पर चुनाव लडऩे में लगातीं तो संभवत: यह संदेश मतदाता तक नहीं जाता कि ममता मुश्किल में हैं। अगर कप्तान ऐसे संकेत दे कि जहाज मुश्किल में है और डूब भी सकता है तो जरूरी नहीं है कि सवार लोग उसकी मदद के लिए दौड़े आएं। वे उसे छोड़कर कूद सकते हैं तथा पास से गुजर रहे और मजबूत दिख रहे दूसरे जहाज में भी सवार हो सकते हैं। समुद्र का नियम कहता है कि जब जहाज गहरे पानी में भी डोल रहा हो तो कप्तान को एकाग्रचित होकर अपना सारा ध्यान अपने जहाज पर ही लगाना चाहिए न कि 15 और जहाज छीनने की रणनीति पर काम करना चाहिए।-अकु श्रीवास्तव
 

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