विधान परिषद को पुनर्जीवित करना चाहती हैं ममता

Edited By ,Updated: 25 May, 2021 06:10 AM

mamta wants to revive the legislative council

यहां तक कि पश्चिम बंगाल के चुनावों की हिंसा तथा राजनीतिक प्रतिशोध निरंतर बरकरार है मगर राज्य में एक और ज्वलंत बिंदू केंद्र और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के मध्य उभर कर

यहां तक कि पश्चिम बंगाल के चुनावों की हिंसा तथा राजनीतिक प्रतिशोध निरंतर बरकरार है मगर राज्य में एक और ज्वलंत बिंदू केंद्र और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के मध्य उभर कर आया है। यह मुद्दा ममता की कैबिनेट द्वारा पिछले हफ्ते ते विधान परिषद को पुनर्जीवित करने के फैसले से संबंधित है। इसे पुनर्जीवित करने का वायदा ममता ने अपने चुनावी प्रचार के दौरान किया था। ममता ने कहा था कि प्रख्यात लोगों तथा वरिष्ठ नेताओं जिन्हें विधानसभा चुनावों के लिए नामांकित नहीं किया गया था, वे विधान परिषद के सदस्य बनाए जाएंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो ममता अपनी सरपरस्ती और स्वतंत्रता चाहती हैं। 

कई वर्षों से राज्यों में विधान परिषदों के उन्मूलन या पुनरुद्धार एक राजनीतिक सुविधा या यूं कहें कि मुनाफा बन चुका है। विधान परिषद का गठन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 168 के तहत किया गया था। मात्र 6 राज्यों जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में विधान परिषद हैं। जम्मू-कश्मीर को 2019 में 2 केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किए जाने से पहले वहां पर भी विधान परिषद थी।

एक सदनीय से द्विसदनीय विधायिका का बदलाव भारत सरकार के 1919 के एक्ट के तहत शुरू हुआ था जिसके अंतर्गत 1921 में राज्यसभा स्थापित हुई थी। साइमन कमीशन ने 1927 में जटिलता और खर्च का हवाला देते हुए इसकी संभावना व्यक्त की थी। उसके बाद 1935 के एक्ट ने भारतीय प्रांतों में द्विसदनीय विधायिकाएं स्थापित कीं। 

संविधान को बनाने वाले लोगों ने शुरू में बिहार, बॉ बे, मद्रास, पंजाब, यूनाइटिड प्रोविंसिस तथा पश्चिम बंगाल में विधान परिषद के होने के बारे में सोचा था। हमारा संविधान विधान परिषद को सीमित शक्तियां प्रदान करता है। बंगाल के प्रथम मु यमंत्री डाक्टर बिधन चंद्र राय ने आजादी के बाद 1952 में विधान परिषद का गठन किया। 1967 में जब कांग्रेस ने कई राज्यों में अपनी सत्ता गंवा दी तो पश्चिम बंगाल में यूनाइटिड फ्रंट गठबंधन सरकार ने 1969 में परिषद को खत्म कर दिया। पंजाब ने भी इसका अनुसरण करते हुए विधान परिषद को खत्म कर दिया। 

विधान परिषद हो या न हो यह विषय अब राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। कुछ नेताओं का तर्क है कि जो लोग विधानसभाओं में चुनाव लडऩा नहीं पसंद करते ऐसे प्रतिष्ठित लोगों तथा व्यक्तियों को इसमें शामिल होना महत्वपूर्ण हो सकता है। ममता बनर्जी भी इसी बात का उल्लेख करती हैं। लोगों का मत है कि विधान परिषद एक निगरानी के तौर पर कार्य कर सकती है तथा अविवेकी निर्णयों पर ध्यान रख सकती है। जो इसके विरुद्ध हैं उनका मत यह है कि यह राज्य सरकारों के ऊपर कोष का बोझ है और साधारण तौर पर इसका इस्तेमाल राजनीतिज्ञों को अधिकार प्रदान करने के लिए है। 

आंध्र प्रदेश विधानसभा ने 2020 में परिषद को खत्म करने के लिए एक प्रस्ताव पास किया। विधान परिषद का पहली बार गठन 1998 में किया गया था। उसके बाद तेदेपा मु यमंत्री एन.टी. रामाराव ने 1985 में इसे रद्द कर दिया। 2007 में कांग्रेसी मु यमंत्री डा. वाई.एस. राजशेखर रैड्डी ने इसको फिर से पुनर्जीवित किया। 

एक विधान परिषद का गठन या फिर इसे खत्म करना एक विवादास्पद मुद्दा है जो तमिलनाडु में 4 दशकों से चल रहा है। 1986 में एम.जी. रामचंद्रन सरकार  ने द्रमुक प्रमुख एम. करुणानिधि के प्रवेश को रोकने के लिए विधान परिषद को खत्म किया तब से लेकर द्रमुक ने विधान परिषद को पुन:स्थापित करने के प्रयास किए तथा अन्नाद्रमुक ने उनके ऐसे कदमों का विरोध किया। अब क्योंकि द्रमुक फिर से सत्ता में लौट आई है इसलिए परिषद को पुनर्जीवित करने का मुद्दा फिर से गर्माएगा। 

कांग्रेस ने मध्य प्रदेश विधानसभा में 1967 में एक प्रस्ताव पारित किया मगर प्रस्ताव को केंद्र की स्वीकृति नहीं मिली। 1993 तथा 2018 में पार्टी ने एक द्विसदनीय विधायिका का वायदा किया मगर अपने चुनावी वायदे को पूरा नहीं कर सकी। परिषद की भूमिका को खोजने के एक गहरे शोध पर चर्चा होना लाजमी है मगर इसके गठन या फिर इसको खत्म करने का निर्णय कुछ नहीं हो सकता। यह सब कुछ अहम से भरे नेता तथा राजनीतिक दलों की सनक तथा  उनकी पसंद पर निर्भर करता है।-कल्याणी शंकर   

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