‘बिहार के परिणाम में जनादेश गायब है’

Edited By ,Updated: 12 Nov, 2020 02:26 AM

mandate missing in bihar result

चुनाव का परिणाम आया लेकिन जनादेश नहीं मिला। कौन कहां जीता यह तो पता लग गया लेकिन क्या जीता यह समझ नहीं आया। सरकार कौन चलाएगा यह सस्पैंस तो खत्म हो गया लेकिन प्रदेश की गाड़ी कहां ले जानी है यह सवाल बाकी है। मुख्यमंत्री

चुनाव का परिणाम आया लेकिन जनादेश नहीं मिला। कौन कहां जीता यह तो पता लग गया लेकिन क्या जीता यह समझ नहीं आया। सरकार कौन चलाएगा यह सस्पैंस तो खत्म हो गया लेकिन प्रदेश की गाड़ी कहां ले जानी है यह सवाल बाकी है। मुख्यमंत्री तो मिल ही जाएगा लेकिन कोई जननायक नहीं उभरा। समस्याओं की शिनाख्त तो हुई लेकिन किसी समाधान पर भरोसा नहीं टिका। प्रदेश का रुझान तो दिखा लेकिन राष्ट्रीय राजनीति का रुख धुंधला ही रह गया। 

कोरोना महामारी के दौरान हुए इस पहले बड़े चुनाव से उम्मीद थी कि राष्ट्रीय राजनीति के लिए कोई बड़ा संकेत मिलेगा। बेशक यह उम्मीद गलत थी। बिहार अब पूरे देश को छोडि़ए, उत्तर भारत की राजनीति का आईना भी नहीं बचा। राज्यों की राजनीति अब राष्ट्रीय राजनीति का तापमान जांचने का तरीका नहीं बचा। 

उपचुनाव सामान्यत: सत्तारूढ़ दल के पक्ष में ही जाते हैं। अगर वह हार जाए तभी खबर बनती है। फिर भी ज्यों-ज्यों चुनाव प्रचार ने जोर पकड़ा, वैसे-वैसे यह उम्मीद बनी कि स्थानीय समीकरणों, जाति समुदाय के बंधनों और गठबंधन के जाल से छनकर कहीं भविष्य की राजनीति की रोशनी दिखाई देगी। मगर ऐसा नहीं हुआ। अधर में लटके इस चुनाव परिणाम में अंतत: एन.डी.ए. को 125 सीट जीत कर सरकार बनाने का मौका भले ही मिल गया है लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद सवा साल में कोई 15 प्रतिशत वोट खोने वाला और महागठबंधन के मुकाबले सिर्फ 0.1 प्रतिशत वोट अधिक लेने वाला एनडीए जनादेश का दावा नहीं कर सकता। 

जब एक तरफा हवा नहीं होती तो चुनावी समीकरण के छोटे-मोटे हेरफेर से जीत-हार का फैसला हो जाता है। अंतत: यही बिहार में हुआ। इसलिए इस चुनाव को तौलने के लिए आपको अनाज मंडी के कांटे की नहीं बल्कि सुनार की तराजू की जरूरत है। बेशक नीतीश कुमार से और उनकी सरकार से वोटर का मोह भंग हुआ है। लेकिन यह निराशा उस गुस्से में नहीं बदली जैसा लालू प्रसाद यादव की तीसरी सरकार के अंत में बिहार में उभरा था। बेशक तेजस्वी यादव के प्रति आकर्षण बढ़ा था, खासतौर पर युवाओं के बीच।  लेकिन यह आकर्षण विश्वास में नहीं बदल पाया, राजद के ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ वाले राज के डर को मिटा नहीं पाया। 

बेशक बेरोजगारी का सवाल एक बड़े मुद्दे की तरह उठा, लेकिन 10 लाख नौकरियों का करिश्माई वादा अधिकांश वोटर को भरोसा नहीं दे पाया।  बेशक महागठबंधन के पक्ष में यादव और अधिकांश मुस्लिम समुदाय का ध्रुवीकरण हुआ, लेकिन बीजेपी के अगड़े वोट बैंक और नीतीश के अति पिछड़े वोट से उसकी भरपाई हो गई। एक तथ्य की तरफ कम ध्यान गया है। नशा बंदी के चलते महिलाओं का वोट नीतीश कुमार के पक्ष में झुका और महिलाओं ने सामान्य से अधिक मतदान भी किया। सिर्फ महिलाओं के वोट से एन.डी.ए. को तकरीबन 2 फीसदी वोट का फायदा हुआ जो निर्णायक कहा जा सकता है। 

जनादेश स्पष्ट नहीं है लेकिन राजनीतिक 
दलों के लिए संदेश स्पष्ट है। विपक्ष के लिए इस परिणाम का संदेश है कि बैठे-बैठे चुनावी जीत उसकी झोली में गिरने वाली नहीं है। कोरोना महामारी के कुप्रबंधन, अर्थव्यवस्था के संकट और चीन द्वारा हमारे इलाके पर कब्जे के बावजूद बीजेपी द्वारा बिहार चुनाव में अपनी स्थिति मजबूत करना विपक्ष के निकम्मेपन की मिसाल है। बिहार के प्रवासी मजदूर द्वारा पलायन की दर्दनाक कहानियों और उसमें राज्य सरकार की शर्मनाक भूमिका के बावजूद एनडीए का वापस सत्ता में आना मुख्यधारा की राजनीति में विकल्प हीनता का परिणाम ही कहा जाएगा। मतलब कि सरकार के प्रति असंतोष काफी नहीं है। विपक्ष को जनता के बीच अपने वादे और नेतृत्व में विश्वास पैदा करना होगा। 

अब वह जमाना नहीं रहा कि मोदी की जादू की छड़ी से किसी भी राज्य में भाजपा चुनाव जीत जाए। बिहार में किसानों का असंतोष बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया क्योंकि वहां कृषि मंडी व्यवस्था पहले से ध्वस्त है, उसे कुछ खोने का कोई डर नहीं है। लेकिन भाजपा के नेता जानते हैं कि बाकी देश में उन्हें इस गुस्से का भी सामना करना पड़ेगा। राष्ट्रीय राजनीति का संदेश एक दूसरी ओर इशारा करता है। महामारी से निपटने में सरकार की विफलता अर्थव्यवस्था के गहराता संकट और चीन द्वारा भारतीय जमीन पर कब्जे के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पकड़ बरकरार है।-योगेन्द्र यादव 
 

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