‘शिक्षा का बाजारवाद’ भारत के लिए खतरनाक

Edited By ,Updated: 20 Jan, 2020 04:19 AM

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शिक्षा में बाजारवाद बेहद खतरनाक है। बावजूद इसके बढ़ता निजीकरण व्यवसायीकरण को बढ़ा रहा है जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत में सबसे ज्यादा दयनीय स्थिति सरकारी शिक्षा व्यवस्था की है। उसमें भी सबसे बदहाल प्राथमिक शिक्षा है। ऐसे में जब नींव ही कमजोर पड़...

शिक्षा में बाजारवाद बेहद खतरनाक है। बावजूद इसके बढ़ता निजीकरण व्यवसायीकरण को बढ़ा रहा है जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत में सबसे ज्यादा दयनीय स्थिति सरकारी शिक्षा व्यवस्था की है। उसमें भी सबसे बदहाल प्राथमिक शिक्षा है। ऐसे में जब नींव ही कमजोर पड़ जाएगी तो आगे की स्थिति समझी जा सकती है। कमोबेश पूर्व माध्यमिक, माध्यमिक और उच्चत्तर माध्यमिक शिक्षा की स्थिति प्राथमिक शिक्षा पर ही टिकी होती है सो पूरी प्रणाली के हालात समझे जा सकते हैं। 

संसद से सड़क तक अक्सर इस पर चर्चा सुनाई देती है लेकिन परिणाम जस का तस है। जाहिर है कि सरकारी शिक्षा को लेकर न तो कोई ठोस नीति ही है और न ही गहरी चिंता। हां एक बात जरूर देखी जा रही है जिसमें तमाम प्रयोगों के दौर से शिक्षा प्रणाली गुजर रही है और शिक्षक बच्चों को पढ़ाने से ज्यादा पोर्टलों में फीङ्क्षडग और कागजों के लेखा-जोखा के तनाव से गुजर रहे हैं, जिसका असर उत्कृष्टता और गुणवत्ता दोनों पर पड़ता है। नित नए फरमानों और अमल की सख्ती ने गुणवत्ता को सुधारने की बजाय प्रभावित किया है। यदि शिक्षकों को पढ़ाने के लिए फ्री हैंड दिया जाता और खुले मंच में संवाद किया जाता तो मैदानी अनुभवों से व्यवस्था में सुधार की गुंजाइशों को अमलीजामा पहनाने की पहल हो सकती। 

किसी भी देश के विकास के लिए उसकी शिक्षा का दुरुस्त होना सबसे जरूरी होता है। विश्व बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि भारत उन 12 देशों की सूची में दूसरे क्रम पर है जहां दूसरी कक्षा के छात्र एक छोटे से पाठ का एक शब्द भी नहीं पढ़ सके। इसमें पहले क्रम पर मलावी है। विश्व बैंक ने माना है कि बिना ज्ञान के शिक्षा देना न केवल विकास के अवसर को रौंदना है बल्कि दुनिया भर के बच्चों और युवाओं के साथ बड़ा अन्याय भी है। 26 सितम्बर 2017 को इस संबंध में जारी रिपोर्ट बेहद डराती है जिसमें लिखा है कि इन देशों में लाखों युवा छात्र बाद के जीवन में कम अवसर और कम वेतन की आशंका का सामना करते हैं क्योंकि उनके प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल उन्हें जीवन में सफल बनाने के लिए शिक्षा देने में विफल थे और हैं। 

सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में खाई
सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के बीच की बढ़ती खाई के चलते पढ़ाई अमीरों के लिए शिक्षा तो गरीबों के लिए साक्षरता के बीच पैंडुलम बनकर रह गई है। वल्र्ड डिवैल्पमैंट रिपोर्ट 2018 यानी विश्व विकास रिपोर्ट में लॄनग टू रियलाइज एजुकेशंस प्रॉमिस में भारत में तीसरी कक्षा के तीन चौथाई छात्र दो अंकों को घटाने वाले सवाल हल नहीं कर पाए और पांचवीं कक्षा के आधे छात्र ऐसा नहीं कर सके यानी अधिकांश विद्यार्थी पठन दक्षता के न्यूनतम स्तर पर थे। ऐसे विद्यार्थी आगे बने रहेंगे तब भी प्राइवेट स्कूलों के साधन संपन्न विद्याॢथयों की तुलना में इनका स्तर न्यूनतम ही रहेगा। यही कारण है कि गरीब परिवारों से आने वाले बच्चों का औसत प्रदर्शन अमीर परिवारों से आने वाले बच्चों की तुलना में कम होता है। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के 1300 गांवों में प्राथमिक विद्यालय के औचक निरीक्षण के दौरान 24 प्रतिशत शिक्षक अनुपस्थित पाए गए जबकि शहरों में तैनाती के लिए वर्चस्व और प्रभाव के चलते सरकारी शिक्षकों में अघोषित लेकिन श्रेष्ठता को लेकर दो धड़े बन गए हैं जिसमें ग्रामीण इलाकों में तैनात शिक्षक खुद को दोयम दर्जे का पाता है। शहरों में राजनीति भी जमकर होती है। 

मजबूरी कहें या कुछ और देखने में आता है कि प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले सरकारी  स्कूलों में विद्याॢथयों की संख्या काफी कम होती है और खर्च बेहद ज्यादा तथा विषयवार शिक्षकों का असंतुलन अलग से जिससे प्राय: अतिथि शिक्षकों का सहारा लेना पड़ता है। तमाम रिपोर्टें बताती हैं कि बच्चे तय गुणवत्ता को हासिल नहीं कर पाते हैं क्योंकि नियमित शिक्षकों की तुलना में हर दृष्टि से कमजोर अतिथि शिक्षक की दक्षता शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। लेकिन सच  यह है कि हमारी प्राथमिक, पूर्व माध्यमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक सरकारी शिक्षा इन्हीं अतिथियों के दम पर चल रही है जबकि गतिविधि आधारित शिक्षा का प्रशिक्षण अमूमन नियमित शिक्षकों के लिए होता है। ऐसे में अतिथि को कोसना भी गलत है क्योंकि यह रिक्तता के चलते औपचारिकता की पूर्ति है। 

इसके अलावा शहरों व ग्रामीण स्कूल केन्द्रों में अक्सर हर कहीं ऐसे शिक्षक मिल ही जाते हैं जिनकी रुचि पढ़ाने से ज्यादा स्कूल के दफ्तरी कामों में ज्यादा होती है। संस्था प्रमुख भी इन शिक्षकों को बाबूगिरी में झोंक देते हैं और उस विषय की पढ़ाई प्रभावित होती है। कई जगह दफ्तरी का काम करने वाले शिक्षक हाथ में बिना चाक उठाए और कक्षा में गए पदोन्नत तक हो जाते हैं क्योंकि ये कार्यालयीन काम जैसे खंड, जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय, कोषालय दौडऩा व कम्प्यूटर आप्रेटर का काम करते हैं। इस तरह अक्सर शिक्षक होकर भी गैर शिक्षकीय कामों में जुटे रहते हैं और अध्यापन को संस्था प्रमुख की शह पर खुलेआम धता बताते हैं।  देखने में भी आया है कि इस तरह के शिक्षक अतिरिक्त कमाई के लालच में अपने मूल लक्ष्य से भटक जाते हैं। संकुल, जनपद, खंड इकाई के विद्यालयों में खुद के वाट्स एप ग्रुप का भी चलन खूब है, जिसमें शिक्षकों को सीधे आदेश व जानकारी भेजी जाती है। लेकिन यह काम संस्था प्रमुख, जनशिक्षक, दफ्तरी या लिपिक न भेजकर वही शिक्षक भेजते हैं जो पढ़ाने की बजाय दूसरा काम करते हैं जिससे उस क्षेत्र की संस्थाओं और वहां तैनात शिक्षकों में इनकी पकड़, पहुंच और रुतबा बन जाता है जिसको किसी न किसी रूप में ये भुनाते हैं। कई ऐसे उदाहरण भी हैं जिनमें दफ्तरी काम करने वाले शिक्षक अपना अलग ही बड़ा कारोबार जमा  लेते हैं जैसे बैंकिंग, बीमा, आर.डी. कियोस्क वगैरह शामिल हैं। 

शिक्षा में गुणवत्ता की कमी
सच तो यह है कि हर शिक्षक में नवाचार की संभावनाएं होती हैं लेकिन व्यावहारिक रूप से इस पर ध्यान नहीं दिए जाने से वह केवल खुद को बच्चों की परीक्षा पास कराने का जरिया समझ बैठता है और यही बड़ी चूक है। वहीं स्कूलों के शिक्षक विहीन होने की बात तो सबको पता होती है लेकिन प्राचार्य नहीं होने की जानकारी सभी को अमूमन नहीं होती। नीति आयोग की विद्यालय शिक्षा गुणवत्ता सूचक की प्रथम रिपोर्ट भी बताती है मध्य प्रदेश में 62 प्रतिशत तो बिहार में 80, झारखंड में 76, तेलंगाना में 65, छत्तीसगढ़ में 46 प्रतिशत स्कूलों में प्राचार्य नहीं हैं। ऐसे में एक प्राचार्य के कंधे पर कई विद्यालयों का प्रभार भी दे दिया जाता है फिर देखा जाता है कि  प्राचार्य नियमित रूप से विद्यालय नहीं आते हैं। कोई कह भी नहीं सकता कि वह आज किस विद्यालय की कुर्सी पर सुसज्जित होगा। ऐसे में कल्पना की जा सकती है कि उस विद्यालय की क्या दशा होगी जिसका कोई अपना मुखिया न हो? 

सरकारी स्कूलों की चरमराती व्यवस्था के लिए आर.टी.ई. भी कुछ जवाबदेह जरूर है जहां 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में प्रवेश देना ही है। इस तरह यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकारें खुद सरकारी स्कूलों के लिए दोहरा मानदंड अपनाती हैं, जबकि बहुत थोड़े से फंड और  प्रयासों से सरकारी व्यवस्थाएं बेहतर हो सकती हैं जिसमें हर सरकारी स्कूल को आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस के जरिए कैमरे और ब्रॉडबैंड से लैस कर दिया जाए जो जनपद, जिला, संभाग व राज्य के शिक्षा कार्यालयों से जुड़े हों और वहां बैठा कोई भी  अधिकारी औचक रूप से कभी भी किसी विद्यालय की स्थिति से रू-ब-रू हो सके या सी.सी.टी.वी. रिकार्ड खंगाल सके। 

इससे जहां व्यवस्था तो सुधरेगी ही वहीं शिक्षकों,  विद्यार्थियों की उपस्थिति भी बढ़ेगी और दक्षता में भी सुधार होगा। आखिर जिस स्कूल का हर महीने लाखों का बजट होता है वहां क्या केवल वन टाइम इंवैस्टमैंट के बाद भवन, फर्नीचर और  आॢटफिशियल इंटैलीजैंस के लिए चंद हजार रुपयों से हर स्कूल, हर अधिकारी की नजर में हर समय रहेगा जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था के लिए वरदान भी होगा। जरूरत है इच्छा शक्ति और फैसले की क्योंकि जहां केन्द्र और राज्य सरकारें मध्यान्ह भोजन, पुस्तकें, ड्रैस, वजीफा आदि में करोड़ों खर्च करती हैं वहीं इस थोड़े से खर्च पर आल इज वैल को अंजाम दिया जा सकता है। निश्चित रूप से इससे शिक्षा का बाजारवाद खुद ही थमेगा और यह शिक्षा क्रांति जैसी बात होगी। बस जरूरत है इस पर ईमानदार अमल की।-ऋतुपर्ण दवे

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