मीडिया ने ‘लोकतंत्र के रखवाले’ के तौर पर कार्य किया

Edited By ,Updated: 22 Jun, 2019 01:44 AM

media acted as a  keeper of democracy

कैसे मीडिया कर्मियों पर गुस्से में हमलों की संख्या बढ़ती जा रही है, चाहे वह कर्नाटक हो, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश या देश के अन्य राज्य? जिस तरह से आज के पत्रकार अपना काम कर रहे हैं, क्या उसमें कोई गलती है? या फिर मीडिया कर्मी मुख्यमंत्रियों तथा...

कैसे मीडिया कर्मियों पर गुस्से में हमलों की संख्या बढ़ती जा रही है, चाहे वह कर्नाटक हो, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश या देश के अन्य राज्य? जिस तरह से आज के पत्रकार अपना काम कर रहे हैं, क्या उसमें कोई गलती है? या फिर मीडिया कर्मी मुख्यमंत्रियों तथा जिला अधिकारियों की जरा सी आलोचना करने के लिए बढ़ती असहिष्णुता का निशाना बन रहे हैं? ऐसा लगता है कि अधिकारियों की ओर से मिलने वाली सूचनाएं वास्तव में रुक गई हैं। इस बदली हुई राजनीतिक स्थिति में मीडिया कर्मियों को दूसरे या तीसरे दर्जे के सूचना स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ रहा है और इस प्रक्रिया के दौरान रिपोॄटग में कुछ व्यवधान या कमियां स्वाभाविक हैं।

बनता जा रहा ‘धंधा’ 
इसके बावजूद, हमारे जैसे संवेदनशील लोकतंत्र में लोगों को बेहतर सूचित रखने की सेवा की बजाय यह व्यवसाय एक अधिक हाईप्रोफाइल ‘धंधा’ बनता जा रहा है। यह अफसोसनाक है। मगरमच्छ के आंसू बहाकर कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। जो कुछ चल रहा है उस पर सोचने तथा प्रतिक्रिया व्यक्त करने और अपने संसदीय लोकतंत्र की गतिशीलता को जीवित रखने के लिए सुधारों पर ध्यान देने का समय आ गया है। 

उदाहरण के लिए नोएडा के एक चैनल के लिए काम करने वाले दिल्ली स्थित पत्रकार प्रशांत कन्नौजिया तथा अन्य दो के सुॢखयों में रहने वाले हालिया मामले को लेते हैं। यह हमें योगी आदित्यनाथ सरकार की प्रशासनिक ज्यादतियों के बारे में बताता है। यह कहना कुछ पत्रकारों के बढ़ते ढीले-ढाले रवैये से इंकार करना नहीं है। मैं इतना अवश्य कहूंगा कि मीडिया ने बदली हुई मालिकाना पद्धति के बावजूद काफी हद तक निष्पक्षता से काम किया है। आज रामनाथ गोयंका जैसे लोग नहीं हैं जो लोगों को जो कहना चाहते हैं ‘उसे कहने की स्वतंत्रता’ के लिए सर्वशक्तिशाली के सामने भी डट सकते थे। 


न्यायपालिका की भूमिका
फिर भी हम प्रैस की स्वतंत्रता के लिए खुलकर बोलने हेतु न्यायपालिका के शुक्रगुजार हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की इंदिरा बनर्जी तथा अजय रस्तोगी पर आधारित पीठ ने उत्तर प्रदेश के अधिकारियों को कन्नौजिया तथा अन्य दो को जमानत पर रिहा करने का निर्देश दिया था और मुख्यमंत्री योगी की सरकार को उदार बनने को कहा क्योंकि यह ‘स्वतंत्रता के हनन का एक सुस्पष्ट’ मामला था। पीठ ने राज्य की दलील को खारिज कर दिया तथा पत्रकारों को 11 दिनों के लिए सलाखों के पीछे भेजने के अदालत के निर्णय पर प्रश्न उठाया। इसने कहा कि ‘यहां कुछ इतना स्पष्ट है कि अदालत खुद को तथा याचिकाकत्र्ता को उच्च अदालत में जाने को कहने से रोक नहीं सकती।’ पीठ ने व्यवस्था दी कि संविधान के अंतर्गत स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई है और यह अटल है तथा इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता।

सुप्रीम कोर्ट का संदेश व्यापक तथा प्रशासन के सभी क्षेत्रों पर लागू होता है। यह वास्तव में अधिकारियों के लिए एक चेतावनी है, संविधान को गम्भीरतापूर्वक लेने तथा मीडिया की स्वतंत्रता पर स्पष्ट प्रावधानों पर ध्यान व प्रतिक्रिया देने की। यह स्वतंत्रता किसी बुद्धिहीन अधिनायकवाद का विषय नहीं हो सकती जो स्वतंत्रता के आधारभूत नियमों के खिलाफ जाता हो। इस संदर्भ में मैं यह अवश्य कहूंगा कि लोकतंत्र की खामियों तथा सीमाओं को भुला नहीं दिया जाना चाहिए। यह सामाजिक तथा राजनीतिक तौर पर बहुत बड़ा संतुलन पैदा करता है। इसने सर्वाधिक गरीब को भी अपनी शक्ति बारे जानकार करवाया है, इसके बावजूद कि ऐसी शक्ति का इस्तेमाल आम तौर पर प्रत्येक पांच वर्षों या लगभग ऐसे ही समय के बाद केवल एक बार किया जाता है। यह एक ऐसे समाज में पर्याप्त रूप से अच्छा हो सकता है जो तेजी से आगे बढऩे की बजाय घोंघे की रफ्तार से रेंगने को अधिमान देता है। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस सच्चाई को काफी अच्छे से जानते हैं। वह जानते हैं कि उनके द्वारा किया गया प्रत्येक वायदा सही तथा गलत बारे नई जागरूकता पैदा करता है। यह वंचितों, जनजातीय तथा अनसूचित जातियों की निश्चितात्मकता को भी तीक्ष्ण करता है। कोई हैरानी की बात नहीं कि भारतीय राजनीति कभी-कभी जाति, धर्म तथा समुदाय के आधार पर बंटी विभाजित विशिष्टताओं की तस्वीर पेश करती है। इस रोशनी में हमें प्रधानमंत्री मोदी के ‘लोगों के दो वर्गों’ के दृष्टांत, एक वे जो गरीब हैं तथा दूसरे जो अन्यों की गरीबी खत्म करने में मदद कर सकते हैं, तक पहुंचने में लम्बा रास्ता तय करना है। इन सभी कार्यात्मक खामियों के बावजूद लोकतंत्र ने, यहां तक कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी सामान्य लोगों की समझ को धार देने में मदद की है। जागरूकता लोकतंत्र की सफलता की कुंजी है। 

लोकतंत्र का रखवाला
मैं यह अवश्य कहूंगा कि भारतीय मीडिया ने लोकतंत्र के रखवाले के तौर पर कार्य किया है। यह न्याय न मिल सकने के मामलों को सामने लाया है। इसने समाज के कमजोर वर्गों पर की गई ज्यादतियों का पर्दाफाश किया है। इसने भ्रष्टाचार तथा घोटालों के लिए अत्यंत शक्तिशाली लोगों का पर्दाफाश किया है। दरअसल ‘प्रैस’ जानती है कि अपनी स्वतंत्रता तथा लोगों के सूचना के अधिकार की रक्षा के लिए कब अधिकारियों पर झपटना है? भारत के मीडिया कर्मी काफी हद तक लोगों को सूचित करने तथा सत्ता में बैठे लोगों के सही तथा गलत कार्यों का एहसास करवाने बारे अपनी जिम्मेदारियों को जानते हैं। फिर भी उद्दंडता तथा अधिकारियों की एकतरफा मानसिकता के लिए अपनी व्यापक समझ सुनिश्चित करने हेतु इसे और अधिक रास्ता तय करना है।-हरि जयसिंह 
    

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