मीडिया और फिल्मों द्वारा जानबूझ कर की जाती है बहुसंख्य भारतीयों की अनदेखी

Edited By ,Updated: 12 Sep, 2016 12:41 AM

media and movies are deliberately ignoring the majority of indians

इस स्तंभ के पुराने पाठकों को वह समय याद होगा जब 20 वर्ष पूर्व दहेज मृत्यु के समाचार नियमित रूप में अखबारों ....

इस स्तंभ के पुराने पाठकों को वह समय याद होगा जब 20 वर्ष पूर्व दहेज मृत्यु के समाचार नियमित रूप में अखबारों में छपा करते थे। ये घटनाएं एक निश्चित पैटर्न पर चलती थीं। हर एक-दो दिन बाद लगभग एक जैसी रिपोर्टें अखबारों के पहले पन्ने पर प्रकाशित होती थीं। किसी जवान औरत को उसके ससुरालियों द्वारा आग लगा दी जाती थी जोकि बाद में दावा करते थे कि रसोई में स्टोव फट गया था। मृतका के पति सहित ससुरालियों को गिरफ्तार कर लिया जाता था।

अब इस तरह के समाचार हमारी अखबारों में, खासतौर पर अंग्रेजी अखबारों में प्रकाशित नहीं होते और टी.वी. चैनलों पर तो कदापि नहीं।  इसका क्या कारण है? गत वर्षों दौरान कुछ कानून पारित किए गए थे जिन्होंने इस तरह की मौतों के मामलों में सबूत प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी  ससुरालियों पर डाल दी थी। जब भी किसी महिला की जलने के कारण मृत्यु हो जाती थी तो ससुरालियों को स्वत: ही आरोपी बना दिया जाता था। शायद इस तरह के कठोर कानून ही एक कारण हैं कि अब समाचारपत्रों में हमें दहेज मृत्यु की कहानियां पढऩे को नहीं मिलतीं।

वास्तव में इसका एक अन्य कारण वह तथ्य है कि दहेज मृत्यु के मामलों में कोई कमी नहीं आई है। वे उसी उच्च स्तर पर बने हुए हैं जिस पर 20 वर्ष पहले थे। 2015 में दहेज मृत्यु के 7634 मामले सामने आए जबकि 2014 में 8455, इससे पहले के 2 वर्षों में ये आंकड़े 8083 और 8833 थे। भारत में हर रोज इस तरह की हत्याओं के 20 से अधिक मामले सामने आते हैं। इन आंकड़ों में शायद इतना ही बदलाव आया है कि 20 वर्ष पहले की अवधि में ये कुछ ऊंचे उठ गए हैं।

ऐसा होने के बावजूद हम समाचारों में इनका उल्लेख क्यों नहीं सुनते और पढ़ते? इसका कारण यह है कि मीडिया-खासतौर पर राष्ट्रीय मीडिया और इससे भी अधिक खासतौर पर अंग्रेजी मीडिया, अब इस तरह के समाचारों की रिपोॄटग नहीं करता।  सम्पन्न वर्ग को अब न तो अपराध के समाचारों में कोई दिलचस्पी रह गई है और न ही ‘ह्यूमन इंट्रैस्ट’ की कहानियों में। भारतीयों का एक वर्ग, जोकि आबादी का सबसे बड़ा भाग बनता है, की मीडिया कवरेज में जानबूझ कर अनदेखी की जाती है।

इसका कारण यह है कि इस तरह की कहानियां और इसके साथ ही इनसे संबंधित लोगों को समाचारपत्रों के मालिक और विज्ञापन एजैंसियों के निदेशक ‘निचले स्तर की’ मार्कीट समझते हैं। उनका सिद्धांत यह है कि इस तरह की कहानियां और समाचार अंग्रेजी पाठकों को आकॢषत नहीं करते बल्कि वे तो ऐसे समाचारों की ओर आकॢषत होते हैं जो ‘उच्च स्तर की मार्कीट’ से संबंधित हों। यानी कि उन लोगों से संबंधित समाचार, जो उन्हीं की तरह सम्पन्न और विख्यात हों।

प्रारंभ में संपादकों और पत्रकारों ने इस रुझान का कुछ विरोध तब किया था जब 1995 के आसपास इसकी नई-नई शुरूआत हुई थी। लेकिन उसके बाद हम देखते हैं कि दहेज मृत्यु की कहानियों के साथ-साथ ये कहानियां ढूंढने और लिखने वाले पत्रकार भी विस्मृति के गर्भ में समा गए हैं। अब पत्रकार घटना की गंभीरता के आधार पर रिपोर्टें नहीं भेजते बल्कि इस आधार पर भेजते हैं कि घटनाओं के पात्र कौन लोग हैं?

जिन लोगों के बारे में आजकल समाचार छपते हैं इन्हें ‘पेज-3 के लोग’  कहा जाता है और इनके गिर्द होने वाली पत्रकारिता का प्रारंभ मुम्बई में 1995 के आसपास ही हुआ था। ऐसे समाचारों को भौगोलिक आधार पर तैयार करना काफी आसान होता था। समाचारपत्रों ने मुम्बई शहर के कुछ हिस्सों और वर्गों यानी मध्य वर्ग और गरीब आबादी वाले मोहल्लों के बारे में रिपोर्टं प्रकाशित करनी बंद कर दीं और केवल उन मोहल्लों के बारे में रिपोर्टें प्रकाशित करने लगे जहां सम्पन्न और सुविख्यात लोग रहते हैं।

मैं तो यह कहूंगा कि कुछ हद तक यह रुझान गैर अंग्रेजी समाचारपत्रों को भी प्रभावित करता है। जब एक दशक से भी अधिक समय पूर्व मैं अहमदाबाद में एक गुजराती समाचारपत्र का सम्पादन करता था तो बिल्कुल ऐसी ही परिस्थितियां देखने को मिलती थीं। शहर के कुछ हिस्सों की अनदेखी कर दी जाती थी क्योंकि इन इलाकों में अखबार का मुख्य पाठक वर्ग केन्द्रित नहीं था।

पाठकों को यह जानने की दिलचस्पी होगी कि  लगभग ऐसे ही घटनाक्रम में से भारतीय सिनेमा उद्योग को भी गुजरना पड़ा है। 3 दशक पूर्व बॉलीवुड फिल्मों में ऐसे लोग आम दिखने में आते थे जिनकी पृष्ठभूमि  बहुत गरीबी भरी थी और अपनी गरीबी के कारण वे किसी शॄमदगी के एहसास से पीड़ित नहीं थे। अमिताभ बच्चन ने 1983 में ‘कुली’ नामक हिट फिल्म में एक कुली की ही भूमिका अदा की थी। आज तो कोई यह परिकल्पना  करने को भी तैयार नहीं कि मजदूर वर्ग में से कोई हीरो पैदा हो सकता है।

1996 में बॉलीवुड ने ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ और ऐसी ही अन्य फिल्में रिलीज कीं। ये फिल्में भारत को दरपेश  विकराल समस्याओं और मुद्दों से संबंधित नहीं थीं  बल्कि वे परिवारों के अंदर बहुत संकीर्ण किस्म की सामाजिक समस्याओं के गिर्द घूमती थीं। इन फिल्मों में उस समाज की वास्तविकता की पूरी तरह अनदेखी की गई थी जिस समाज में इनका निर्माण किया जा रहा था। इसी अवधि दौरान शॉपिंग माल्स में मल्टीप्लैक्स थिएटरों की शुरूआत हुई। इनकी टिकटों की कीमत सामान्य सिनेमा हालों की टिकटों से दो गुणा या इससे भी अधिक होती थी।

इस प्रकार भारतीयों की एक बहुत बड़ी संख्या को सिनेमा दर्शकों में से  बाहर धकेल दिया गया क्योंकि वे महंगी टिकटें खरीदने की क्षमता नहीं रखते थे। वैसे अन्याय और ङ्क्षहसा के मुद्दे पर  फिल्म निर्माण का रुझान बॉलीवुड में जारी रहा लेकिन इन्हें ‘बी ग्रेड’ की फिल्में कहा जाता था और इनमें धर्मेंद्र व मिथुन चक्रवर्ती जैसे लोग हीरो होते थे। ये फिल्में मल्टीप्लैक्सों में नहीं बल्कि सिंगल स्क्रीन सिनेमा हालों में और यहां तक कि छोटे शहरों  (बी श्रेणी के शहरों) में दिखाई जाती थीं। अब इस तरह की फिल्मों का निर्माण ही बंद हो गया है।

हमारी पत्रकारिता और हमारी फिल्मों में एकरूपता दिखाई दे रही है। दोनों में जानबूझ कर बहुसंख्यावादी की अनदेखी की जाती है। इसलिए नहीं कि उनकी कहानियां महत्वपूर्ण नहीं होतीं या इन पर किसी फिल्म की पटकथा तैयार नहीं हो सकती बल्कि इसलिए कि फिल्म निर्माता और मीडिया जगत दोनों ही यह महसूस करते हैं कि भारत का शहरी, उच्च जाति और उच्च श्रेणी से संबंधित पाठक और दर्शक वर्ग इस प्रकार की बातों की कोई चिंता नहीं करता। लेकिन हमारे समाज पर पूरी तरह जानबूझ कर किए जा रहे इस अत्याचार  के भी अपने परिणाम हैं लेकिन इनके बारे में हम किसी अगले स्तंभ में चर्चा करेंगे। 
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