दूध के नाम पर हो रहा फरेब बंद होना चाहिए

Edited By ,Updated: 01 Feb, 2016 01:21 AM

milk should be closed in the name of getting fraud

इसी हफ्ते गुजरात उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका का संज्ञान लेते हुए सरकार को नोटिस जारी किया है। याचिकाकत्र्ता ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह बताने की कोशिश की है कि

(विनीत नारायण): इसी हफ्ते गुजरात उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका का संज्ञान लेते हुए सरकार को नोटिस जारी किया है। याचिकाकत्र्ता ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह बताने की कोशिश की है कि देसी गाय के मुकाबले जर्सी गाय का दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इसलिए दूध विक्रेताओं को दूध के पैकेटों या बोतलों पर यह साफ-साफ लिखना चाहिए कि जो दूध बेचा जा रहा है वह देसी गाय का है या जर्सी गाय का। 

 
याचिकाकत्र्ता चिंतन गोहेल ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि जर्सी गाय का दूध ए-1 श्रेणी का होता है जबकि देसी गाय का दूध ए-2 श्रेणी का। यह दूध स्वास्थ्यवद्र्धकऔर पाचक होता है। जबकि ए-1 श्रेणी का दूध न केवल पाचन में तकलीफ देता है  बल्कि कई रोगों का कारण भी बनता है। याचिकाकत्र्ता ने यूरोप, अमरीका और आस्टे्रलिया में हुए कई अनुसंधानों का हवाला देते हुए अपनी बात रखी है। 
 
उल्लेखनीय है कि वैज्ञानिक लेखक कीथ वुडफोर्ड ने अपनी पुस्तक ‘डैविल इन द मिल्क’ (दूध में राक्षस) में बताया है कि किस तरह जर्सी गाय का दूध पीने से मधुमेह, शीजोफ्रेनया, हृदय रोग और मंदबुद्घि जैसी बीमारियां पनपती हैं। विशेषकर 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को जर्सी गाय का दूध बिल्कुल नहीं दिया जाना चाहिए। ङ्क्षचता की बात यह है कि मदर डेयरी से लेकर सारी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और विभिन्न नगरों के दूध विक्रेता खुलेआम जर्सी गायों का दूध बेच कर हमारी पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर रहे हैं और इन पर कोई रोक-टोक नहीं है। 
 
इतना ही नहीं ‘गाय का शुद्ध देसी घी’ नाम से जो घी देशभर में बेचा जा रहा है, वह भी देसी गाय का नहीं है। याचिकाकत्र्ता की मांग बिल्कुल जायज है कि दूध और घी विक्रेताओं को डिब्बे पर साफ-साफ लिखना चाहिए कि यह ‘देसी गाय का दूध’ है या ‘देसी गाय का घी’ है। अगर ऐसा नहीं है, तो साफ लिखना चाहिए कि ‘जर्सी गाय का दूध’ या ‘जर्सी गाय का घी’। साथ ही यह चेतावनी भी छापनी चाहिए कि जर्सी गाय का दूध स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। 
 
पिछले दिनों दादरी में गौहत्या को लेकर जो सांप्रदायिक तनाव बना था और जिसके विरोध स्वरूप कुछ मशहूर लोगों ने इसे अनावश्यक रूप से धार्मिक असहिष्णुता का मुद्दा बना दिया, उस वक्त ही हमने यह बात कही थी कि देसी गाय कोई धार्मिक या भावनात्मक नहीं बल्कि यह शुद्ध रूप से वैज्ञानिक और आर्थिक मुद्दा है। 
 
भारत के ऋषियों ने हजारों साल के वैज्ञानिक प्रयोगों के बाद योग, आयुर्वेद, गौसेवा, यज्ञ, संस्कृत पठन-पाठन, मंत्रोच्चारण आदि व्यवस्थाओं को समाज के व्यापक हित में स्थापित किया था। उनकी सोच और उनका दिया ज्ञान आज भी विज्ञान की हर कसौटी पर खरा उतरता है। इन मुद्दों को धार्मिक या भावनात्मक बनाकर हिन्दू समाज का ही एक हिस्सा अपनी जग हंसाई करवाता है। 
 
आवश्यकता इस बात की है कि इन सब चीजों के वैज्ञानिक व आर्थिक आधार को जोर-शोर से प्रचारित किया जाए। अगर किसी को यह समझ में आ जाए कि देसी गाय के गौरस से बने पदार्थों, उसके गोबर और मूत्र से उस परिवार की सम्पन्नता, स्वास्थ्य, चेतना और आनंद में वृद्धि होती है, तो कोई क्यों गाय बेचेगा और काटेगा ? ठीक ऐसे ही अगर देशवासियों को पता चल जाए कि जर्सी गाय का दूध पीने के कितने नुक्सान हैं तो दूध और घी का धंधा करने वाले ज्यादातर लोगों की दुकानें बंद हो जाएंगी। 
 
अब सवाल उठता है कि दूध की तो वैसे ही देश में कमी है और अगर यह बवंडर खड़ा कर दिया जाए तो हाहाकार मच जाएगी-ऐसा नहीं है। हमारे कत्लखाने उस औपनिवेशक सोच का परिणाम हैं, जिसने साजिशन गौमाता का उपहास कर भारत के हुक्मरानों के दिमाग में गौवंश का सफाया करने का मॉडल बेच दिया है। सरकार किसी की भी हो, देसी गायों, उनके बछड़ों और बैलों की नृशंस हत्या और मांस का कारोबार दिन दोगुना और रात चौगुना पनप रहा है। इस पर अगर प्रभावी रोक लगा दी जाए तो पूरे भारत के समाज को सुखी, सम्पन्न और स्वस्थ बनाया जा सकता है। 
 
ङ्क्षचता की बात तो यह है कि परंपराओं और देसी इलाज की पद्धतियों का प्रचार-प्रसार करने वाली कम्पनियां भी भारत की परंपराओं से खिलवाड़ कर रही हैं। उनके उत्पादों में आयुर्वेद के शुद्ध सिद्धांतों का पालन नहीं होता। पूरी दुनिया जानती है कि प्लास्टिक और प्लास्टिक से बने पदार्थ पर्यावरण पर आधुनिक समाज के आणविक हमले जैसे हैं, पर हर आयुर्वैदिक कम्पनी प्लास्टिक के डिब्बों और बोतलों में अपना माल बेचने में लगी है, बिना इस बात की परवाह किए कि यह प्लास्टिक देशभर के गांवों, जंगलों और शहरों में नासूर की तरह बढ़ता जा रहा है। 
 
कुल मिलाकर बात इतनी-सी है कि देसी गाय, गौवंश, बिना घालमेल के शुद्ध आयुर्वैदिक परंपरा और भारत की पुरातन प्राकृतिक कृषि व्यवस्था की स्थापना ही भारतीय समाज को सुखी, सम्पन्न और स्वस्थ बना सकती है। इसके लिए हर समझदार व्यक्ति को जागरूक और सक्रिय होना पड़ेगा ताकि हम मुनाफे के पीछे भागने वाली कम्पनियों के मकडज़ाल से छूटकर भारत के हर ग्राम को गोकुल बना सकें।
 

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