न्यूनतम आय गारंटी ‘समय की मांग’

Edited By ,Updated: 04 Feb, 2019 12:35 AM

minimum income guarantee demand for time

सरकार द्वारा छोटे किसानों को प्रति वर्ष 6000 रुपए नकद देने की घोषणा को एक समझदारी भरे कदम के रूप में देखा जा रहा है, जिसका राजनीतिक लाभ उसे मई में मिलेगा। बजट में इस स्कीम की घोषणा दो खास बातों के बाद हुई है। पहली, एक रिपोर्ट जिसे सरकार ने दबा दिया,...

सरकार द्वारा छोटे किसानों को प्रति वर्ष 6000 रुपए नकद देने की घोषणा को एक समझदारी भरे कदम के रूप में देखा जा रहा है, जिसका राजनीतिक लाभ उसे मई में मिलेगा। बजट में इस स्कीम की घोषणा दो खास बातों के बाद हुई है। पहली, एक रिपोर्ट जिसे सरकार ने दबा दिया, जिसके अनुसार बेरोजगारी पिछले 45 वर्ष में अपने सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई है। दूसरे, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी न्यूनतम आय गारंटी की बात कर रहे हैं।

पहले से ही चल रही योजनाएं
किसानों के लिए इस तरह की योजना देश में पहले से ही काम कर रही है। तेलंगाना में किसानों को 8000 रुपए प्रति एकड़ प्रति वर्ष दिए जा रहे हैं। मोदी सरकार की योजना उन किसानों के लिए है जिनकी भूमि 2 हैक्टेयर से कम है (अर्थात लगभग 5 एकड़)। इस तरह का किसान यदि तेलंगाना में रह रहा होता तो उसे पहले ही 40,000 रुपए मिल रहे होते।

ओडिशा में सभी किसानों को 5000 रुपए नकद मिलते हैं। इसके अलावा छोटे किसानों को बिजाई के 5 सीजनों के लिए सहायता के तौर पर 25,000 रुपए दिए जाते हैं तथा प्रत्येक भूमिहीन परिवार को 3 चरणों में 12,500 रुपए दिए जाते हैं। इन दोनों योजनाओं के आलोचक भी हैं, जिनका कहना है कि इन योजनाओं को लागू करना मुश्किल होगा क्योंकि इस बात का पता कैसे लगेगा कि कौन छोटा किसान है और कौन भूमिहीन। इसके अलावा संसाधनों की कमी के बारे में पता करना भी मुश्किल है। हालांकि ऐसी सम्भावना है कि राज्य सरकारें भी इस योजना का अनुकरण करेंगी क्योंकि केन्द्र ऐसा कर रहा है और राजनीतिक तौर पर भी यह लाभ का सौदा है।

यह विचार कि राज्य की ओर से सीधे नकदी हस्तांतरण के बिना लोगों का गुजारा नहीं चल सकता, केवल भारत तक सीमित नहीं बल्कि यह विदेश से उपजा विचार है। यू.के. में बेरोजगार दम्पतियों को सरकार की ओर से प्रति सप्ताह 114 पौंड (42,000 प्रति माह) दिए जाते हैं। जिन परिवारों के पास घर नहीं है अथवा खराब स्थितियों में रह रहे हैं उन्हें सरकार की ओर से बहुत रियायती दरों पर सरकारी आवास की सुविधा दी जाती है। अमरीका में भी बेरोजगारी लाभ दिए जाते हैं।

जून 2016 में स्विट्जरलैंड के नागरिकों ने एक प्रस्ताव को खारिज कर दिया, जिसके तहत सभी लोगों के लिए निश्चित मूल आय का प्रावधान किया गया था, जैसा कि राहुल गांधी प्रस्तावित कर रहे हैं। जनमत संग्रह में 77 प्रतिशत स्विस नागरिकों ने इस प्रस्ताव के खिलाफ वोट दिया जिसके तहत उन्हें हर महीने बिना शर्त एक निश्चित आय मिलनी थी चाहे उनके पास कोई नौकरी या अन्य आय हो या नहीं।

इस प्रस्ताव के समर्थकों ने प्रत्येक वयस्क को 2500 स्विस फ्रैंक्स प्रति माह (1.8 लाख रुपए प्रति माह) तथा प्रत्येक बच्चे के लिए 625 स्विस फ्रैंक्स (45000 रुपए प्रति माह) का प्रस्ताव रखा गया था। इस योजना के समर्थकों का तर्क था कि तेजी से बढ़ रहे आटोमेशन के कारण पश्चिमी देशों में नौकरियां लगातार घटती जाएंगी। योजना के विरोधियों का तर्क था कि ऐसी योजना से स्विट्जरलैंड में लाखों आप्रवासी पहुंच जाएंगे।

पाठकों के लिए यह रुचिकर होगा कि किसी भी स्विस पार्टी ने इसका समर्थन नहीं किया। भारत में स्थिति बिल्कुल भिन्न है, जहां पैसे की कमी के बावजूद सभी पार्टियां नकद पैसा देना चाहती हैं।

फिनलैंड में हुआ प्रयोग
कुछ दिन पहले फिनलैंड में एक प्रयोग सम्पन्न हुआ, जिसके तहत 28 से 58 वर्ष की उम्र के 2000 बेरोजगार लोगों को प्रति माह 45,000 रुपए दिए जाएंगे। नौकरी मिल जाने पर भी इन लोगों को यह राशि मिलती रहेगी ताकि इस बात का पता लगाया जा सके कि तयशुदा आय का क्या असर पड़ता है। स्पेन के बार्सीलोना और नीदरलैंड्स के यूट्रैक्ट शहर में भी ऐसे ही प्रयोग हो रहे हैं।

भारत से लेकर यूरोप तक यूनिवर्सल बेसिक इन्कम का विचार लोगों को लुभा रहा है। उदारवादियों का मानना है कि इससे गरीबी और असमानता घटेगी। दक्षिण पंथियों का मानना है कि यह कल्याणकारी योजनाओं का ज्यादा सटीक तरीका है। नरेन्द्र मोदी इस वायदे के साथ सत्ता में आए थे कि वह मनरेगा जैसी योजनाओं को दफना देंगे, लेकिन इस बजट में मोदी सरकार ने मनरेगा के लिए आबंटन 10 प्रतिशत बढ़ा दिया है, जिससे पता चलता है कि उसके बारे में उनके विचार बदल गए हैं।

वास्तविकता यह है कि दुनिया भर में नौकरियां घट रही हैं और आने वाले समय में और घटेंगी। बहुत से विशेषज्ञों का मानना है कि अगले 10-15 वर्ष में विकसित देशों में बेरोजगारी काफी बढ़ेगी। इसका अर्थ यह है कि यूनिवर्सल बेसिक इन्कम का महत्व और बढ़ेगा। हमारे देश में यह समस्या और भी गम्भीर है। पश्चिमी देशों के मुकाबले हम प्रति व्यक्ति आय में काफी पीछे हैं (औसत भारतीय नागरिक के मुकाबले औसत स्विस नागरिक 30 गुना अधिक कमाते हैं), इसलिए भारत में अन्य देशों के मुकाबले जल्दी ही और अधिक लोगों को वित्तीय सहायता देने की जरूरत पड़ेगी।

इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे पास प्रतिभाशाली प्रधानमंत्री (वर्तमान की तरह) है अथवा कुशल अर्थशास्त्री (पिछले की तरह)। यह ढांचागत समस्या है जिससे हम बच नहीं सकते और आगामी लोकसभा चुनावों के दौरान अन्य पार्टियां भी इस मसले पर चर्चा करेंगी।

आकार पटेल

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