मनरेगा, देश के युवा और बढ़ती जा रही बेरोजगारी

Edited By ,Updated: 20 Sep, 2021 04:27 AM

mnrega youth of the country and increasing unemployment

पदभार संभालने के कुछ महीनों बाद मोदी ने लोकसभा में कहा था कि-मनरेगा को इसलिए जारी रखा जाना चाहिए क्योंकि यह दिखाएगी कि कैसे मनमोहन सिंह की सरकार ने घटिया कारगुजारी दिखाई है। उन्होंने कहा कि ‘‘मेरी राजनीतिक सहजवृत्ति मुझे बताती है कि मनरेगा को समाप्त...

पदभार संभालने के कुछ महीनों बाद मोदी ने लोकसभा में कहा था कि-मनरेगा को इसलिए जारी रखा जाना चाहिए क्योंकि यह दिखाएगी कि कैसे मनमोहन सिंह की सरकार ने घटिया कारगुजारी दिखाई है। उन्होंने कहा कि ‘‘मेरी राजनीतिक सहजवृत्ति मुझे बताती है कि मनरेगा को समाप्त नहीं करना चाहिए,’’ उन्होंने विपक्षी बैंचों का मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘‘क्योंकि यह आपकी असफलताओं का जीवित स्मारक है। कई वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद आप बस यही उपलब्ध करवाने में सफल रहे कि गरीब आदमी महीने में कुछ दिनों के लिए गड्ढे खोदता रहे।’’ इसकी बजाय मोदी स्वाभाविक तौर पर इस योजना को मरने देते क्योंकि उनकी सरकार बेहतर नौकरियां पैदा करती। 

ऐसा जरूरत से कम धन उपलब्ध करवा कर तथा कम लोगों तक इसकी पहुंच से किया जा सकता था। सरकार द्वारा कामकाज संभालने के बाद नितिन गडकरी ने संकेत दिया था कि मनरेगा भारत के एक तिहाई से भी कम जिलों तक सीमित होगी। एक अन्य चीज जो मोदी सरकार मनरेगा के कार्य को हतोत्साहित करने के लिए कर सकती थी वह यह कि कामगारों को भुगतान में देरी की जाती जो 15 दिनों में करना होता है। यह देरी 2012 में 42 प्रतिशत से बढ़ कर 2014 में 70 प्रतिशत हो गई। मोदी द्वारा पदभार संभालने के 6 महीने बाद दिसम्बर 2014 तक 5 राज्यों के अतिरिक्त अन्य सभी को 2013 के मुकाबले 2014 में केंद्र से उल्लेखनीय रूप से कम कोष प्राप्त हुआ। 

चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर होनी शुरू हो गई थी तथा बेरोजगारी बढ़ गई थी, मोदी सरकार ने उन योजनाओं में अधिक से अधिक निवेश करना शुरू कर दिया जिन्हें प्रधानमंत्री ने असफल बताया था। 2014-15 में मनरेगा को 32000 करोड़ रुपए प्राप्त हुए, 2015-16 में 37000 करोड़, 2016-17 में 48000 करोड़, 2017-18 में 55000 करोड़, 2018-19 में 61000 करोड़, 2019-20 में 71000 करोड़ तथा 2020-21 में 1,11000 करोड़ रुपए प्राप्त हुए। मनमोहन सिंह के अंतर्गत अपने आकार से यह स्मारक लगभग 3 गुणा बड़ा हो गया। हालांकि अभी भी यह एक ऐसी जनसंख्या जिसके पास कोई काम नहीं है, के लिए नौकरियों की मांग पूरी करने में सक्षम नहीं है। 

वर्तमान वर्ष में इस अनुमान के साथ 73000 करोड़ रुपए अलग रखे गए हैं कि मांग कम है लेकिन इस वित्त वर्ष के पहले 5 महीनों में ही धन का 80 प्रतिशत खर्च कर दिया गया। जैसा कि हम देखेंगे मनरेगा के अंतर्गत काम के लिए अधिकतर मांग पूरी नहीं की जा सकेगी। मनरेगा एक वर्ष में 200 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से प्रत्येक पंजीकृत घर को 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देता है जिसका मतलब यह हुआ कि परिवार को वर्ष में 20,000 रुपए मिलेंगे। 

कुल 13 करोड़ भारतीय घर पंजीकृत हैं जो आधी जनसंख्या को कवर करते हैं, जिसमें 25 करोड़ घर शामिल हैं। 2016 में 25 लाख जॉब कार्ड्स की कमी आई लेकिन नोटबंदी के बाद उसके अगले वर्ष 18 लाख कार्ड्स की वृद्धि हुई। यह दिखाता है कि जब कभी भी आर्थिक दबाव होता है गरीब भारतीय फिर से मनरेगा की ओर लौट आते हैं लेकिन जब सब ठीक हो जाता है तो वे गैर-मनरेगा नौकरियों की राह तकते हैं। अशोका विश्वविद्यालय से संबंधित सैंटर फॉर इकोनॉमिक डाटा एंड एनालिसिस (सी.ई.डी.ए.) द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि गत वर्ष मनरेगा की मांग में 1.5 करोड़ की वृद्धि हुई अर्थात नोटबंदी के बाद कठिन वर्ष के मुकाबले 8 गुणा अधिक अतिरिक्त मांग पैदा हुई। 

दुर्भाग्य से हमारे सबसे बड़े राज्यों में सरकार यह सुनिश्चित करने में असफल हो रही है कि जो लोग काम चाहते हैं वे पा सकें। उत्तर प्रदेश में प्रति पंजीकृत घर के लिए औसत रोजगार 18 दिन (3600 रुपए) था तथा बिहार में यह 11 दिन (2200 रुपए) था। यह रकम इतनी नहीं है कि कोई घर एक वर्ष तक अपना अस्तित्व बनाए रख सके। पंजीकृत घरों में से 95 प्रतिशत को गत वर्ष पूरे 100 दिनों का काम नहीं मिल पाया। आज हम खुद को इस स्थिति में पाते हैं। सी.ई.डी.ए. के सर्वेक्षण में जिस अन्य चीज का खुलासा हुआ वह यह कि युवा कहीं अन्य स्थायी रोजगार पाने के सक्षम नहीं हैं जो अब मनरेगा नौकरियों की तलाश में है। 2018 में 18-30 आयु वर्ग के 20 प्रतिशत युवा मनरेगा में काम की तलाश में थे, जो आंकड़ा लगभग दोगुना होकर 37 प्रतिशत पर पहुंच गया है। 

सरकार के अपने आंकड़े बताते हैं कि 15 तथा उससे अधिक आयु के भारतीय जो काम कर रहे हैं या काम की तलाश में हैं, कार्यबल का 40 प्रतिशत हैं। अमरीका में यह संख्या 60 प्रतिशत से अधिक है। थाईलैंड तथा इंडोनेशिया में करीब 70 प्रतिशत तथा चीन में 70 प्रतिशत से अधिक। भारत की कार्य प्रतिभागिता दर पाकिस्तान तथा बंगलादेश से कम है। क्या भारतीय सुस्त हैं? नहीं, यहां नौकरियां नहीं हैं। सैंटर फॉर मानीटरिंग द इंडियन इकोनॉमी का कहना है कि 2016 में  भारत की 42 प्रतिशत काम करने वाली जनसंख्या बेरोजगार थी। 2017 में यह संख्या गिर कर 41 प्रतिशत और फिर 2018-19 में 40 प्रतिशत तथा 2019 में 39 प्रतिशत रह गई और अब यह 36 प्रतिशत है। आज जितने भारतीय काम कर रहे हैं उनकी कुल संख्या 5 वर्ष पहले के मुकाबले कम है। यद्यपि जनसंख्या में 7 करोड़ लोगों की वृद्धि हो चुकी है। 

यह समस्या ऐसी नहीं है जो दूर हो जाएगी क्योंकि यह स्थिति आगे और खराब हो रही है। इसका पहले तथा अब तक का जो प्रभाव है उसकी पूरी तरह से समीक्षा नहीं की गई क्योंकि हमारे देश में राजनीति अन्य चीजों पर केन्द्रित है। भारत हमेशा से एक गरीब देश रहा है जहां बहुसंख्यक चुपचाप यातना सहते हैं जबकि लोगों का एक नन्हा समूह अच्छी कारगुजारी दिखाता है। आज की स्थितियां संभवत: उनसे बहुत अलग दिखाई नहीं देतीं जो हजार वर्ष पहले थीं। प्रश्न यह है कि एक ऐसे समय में जब आज असमानता बहुत अधिक दिखाई दे रही है, क्या बहुसंख्यक जनता की यातनाएं चुपचाप ऐसे ही जारी रहेंगी? यदि इस प्रश्न का उत्तर न है तो यह महत्वपूर्ण है कि एक राष्ट्र के तौर पर हम समस्या पर चर्चा करें तथा इसके विस्फोट की प्रतीक्षा न करें।-आकार पटेल

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