मोदी ‘उस्ताद जादूगर’ परन्तु उन्हें अपनी ‘वरीयताएं’ दुरुस्त करनी होंगी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 16 Sep, 2017 12:35 AM

modi   ustad shaman   but they have to fix their   preferences

शेर के नेतृत्व में बारासिंगों की सेना उस सेना की तुलना में कहीं अधिक खतरनाक होती है, जिसमें शेरों का नेतृत्व बारासिंगा कर रहा होता है। लातीनी भाषा की...

शेर के नेतृत्व में बारासिंगों की सेना उस सेना की तुलना में कहीं अधिक खतरनाक होती है, जिसमें शेरों का नेतृत्व बारासिंगा कर रहा होता है। लातीनी भाषा की यह लोकोक्ति दुनिया के किसी भी भाग में मानवीय गतिविधि के प्रत्येक क्षेत्र पर लागू होती है।

दूरदृष्टि वाले तथा दिलेर नेता के मार्गदर्शन में इस सेना की मैदान-ए-जंग में कारगुजारी सचमुच निर्णायक हो सकती है। फिर भी राजनीतिक नेतृत्व का मामला कुछ अलग तरह का और जटिल होता है-खासतौर पर भारतीय परिस्थितियों में। यहां लोग बेशक करिश्माई और दूरदृष्टि वाले आदर्श पुरुष की बाट जोहते हैं लेकिन यह नेता परम्परागत सांचे में ढला हुआ होना चाहिए।

भारत की जटिल परिस्थितियों में प्रधानमंत्री मोदी इस पैमाने पर कहां तक फिट होते हैं? यह तो पक्की बात है कि वह शेर की तरह गरजते हैं। उनके तीन साल के शासनकाल के बाद भी गुजरात के इस पूर्व विवादित मुख्यमंत्री का वस्तुनिष्ठ आकलन करना अभी समय पूर्व बात होगी। फिर भी यह तो आसानी से कहा जा सकता है कि उन्होंने खुद को एक धुरंधर जादूगर सिद्ध किया है, जो कथनी और करनी में प्रत्यक्ष अंतर के बावजूद अपनी वाकपटुता से जोरदार प्रशंसा बटोर सकता है।

कोई उस्ताद जादूगर ही अपने टोप में से खरगोश निकाल कर दर्शकों  को प्रसन्न कर सकता है। विमुद्रीकरण के अपने विवादित ‘मास्टर स्ट्रोक’ की पृष्ठभूमि में भी प्रधानमंत्री मोदी अपना व्यक्तिगत जलवा बनाए रखने की रहस्यमयी कला को बखूबी अंजाम दे सके। जानकार लोगों ने विमुद्रीकरण के बारे में ढेर सारे असुखद सवाल उठाए हैं।

मैं प्रधानमंत्री के नेक इरादों पर उंगली नहीं उठा रहा। वह भविष्य की ओर देखने वाले नेता ही नहीं बल्कि नेक इरादों वाले इंसान भी हैं। उनके विमुद्रीकरण यानी नोटबंदी में कमी यह रह गई थी कि जमीनी स्तर तक जानकारियां हासिल नहीं की गई थीं। मुझे खेद से यह कहना पड़ता है कि प्रधानमंत्री नोटबंदी का ऐतिहासिक कदम उठाने से पहले जमीनी हकीकतों का वस्तुगत आकलन करने में विफल रहे।

वह और उनके करीबी साथी अभी भी अपनी औकात से बड़े अहंकार से इतराए हुए हैं जबकि कठोर आर्थिक वास्तविकताएं चिंताजनक संकेत दे रही हैं। केंद्रीय आंकड़ा कार्यालय (सी.एस.ओ.) की रिपोर्ट हमें बताती है कि वृद्धि दर मंद पड़ते-पड़ते बीती तिमाही में 5.7 प्रतिशत तक आ गई थी। इसके साथ ही बेरोजगारी बढ़ रही है, कृषि मोर्चे पर जड़ता की स्थिति बनी हुई है तथा यही हाल कारखाना क्षेत्र में है। यहां तक कि ‘बढिय़ा मानसून’ के प्रभाव के बारे में भी केवल अटकलें ही लगाई जा सकती हैं।

पूर्व आर.बी.आई. गवर्नर रघुराम राजन ने कहा कि ‘‘यदि नोटबंदी जैसे निर्णय की वास्तविकता बेनकाब हो जाती है तो देश यह पूछना चाहेगा कि यह फैसला किन जानकारियों के आधार पर लिया गया था।’’ भारत जैसे गुंजायमान लोकतंत्र देश में यह सवाल पूछा जाना पूरी तरह विवेकपूर्ण है।

प्रधानमंत्री की गवर्नैंस शैली अत्यंत व्यक्तिवादी और गोपनीय किस्म की है और यही उनकी समस्या है। वह नौकरशाहों तथा कुछ अदृश्य विशेषज्ञों की जुंडली पर भी निर्भर रहते हैं जिनके भारत की जटिल जमीनी हकीकतों के संबंध में पारंगत होने के विषय में मुझे आशंकाएं हैं।

ऐसे में मैं यह पूछना चाहूंगा कि पहले से ही आत्महत्याओं के रास्ते पर आगे बढ़ रहे किसानों के साथ-साथ साधारण नागरिकों को नोटबंदी से जितनी परेशानियां हुईं, उनके मद्देनजर क्या यह फैसला लेना तर्कसंगत था? लघु और मझोले उद्योगों को पहले ही जबरदस्त आघात लग चुका है। करोड़ों युवा बिना रोजगार के घूम रहे हैं। आर्थिक तौर पर पंगु हो चुके साधारण जनसमूह की कठिनाइयां चावल और दालों के उ"ा दामों के कारण कई गुणा बढ़ चुकी हैं।

एक करोड़ रोजगार पैदा करने के प्रधानमंत्री के वायदे का क्या बना? नए रोजगार सृजित होने की बजाय अनौपचारिक क्षेत्रों में अभी भी लाखों लोग बेरोजगार क्यों बैठे हैं? यही हाल दिहाड़ीदार मजदूरों का है। दुनिया का बड़े से बड़ा जादूगर भी अपने टोप में से रोजगार नहीं निकाल सकता। यह काम करने के लिए उ"ा गति वाली आॢथक वृद्धि तथा सही विकास वरीयताओं की जरूरत है।

जो हुआ सो हुआ, एक बात तो तय है कि अधिकतर आम जनता में प्रधानमंत्री मोदी पहले की तरह लोकप्रिय बने हुए हैं। सभी बातों के बावजूद वे उन पर भरोसा करते हैं कि वह अपने वायदे पूरे करने में सफल होंगे।

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के झंडे तले विपक्षी नेतृत्व की घटिया गुणवत्ता के मद्देनजर मोदी को सचमुच ही बेहतरीन विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। नीतीश कुमार में मोदी का विकल्प बन कर उभरने की संभावनाएं मौजूद थीं लेकिन भाजपा नीत राजग ने उन्हें भी अपने साथ सांठ लिया है। हम बिहार के मुख्यमंत्री के लिए सौभाग्य की कामना ही कर सकते हैं। वैसे बिहार में लालू प्रसाद यादव जैसे सदाबहार पंगेबाज के होते हुए नीतीश कुमार का राजनीतिक मार्ग कांटों से भरा हुआ है। ऊपर से शरद यादव भी उनके लिए नई समस्या बन गए।

2019 के आम चुनाव में अभी 18 महीने बचे हुए हैं और भाजपा नेतृत्व का लक्ष्य यह है कि इस चुनाव में लोकसभा में 350 सांसद बनाने का जादुई आंकड़ा कैसे हासिल किया जाए। गेंद अब आम जनता के पाले में है और इस जनता पर प्रधानमंत्री का जादू बरकरार है। यह तो अवश्य ही स्वीकार किया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का ऊंचा ग्राफ बालिका सशक्तिकरण, प्रत्येक घर में शौचालय तथा गांवों के लिए बिजली जैसी उनकी पुरुष पहलकदमियों का नतीजा है। यहां तक कि ‘ब्रिक्स’ शीर्ष वार्ता से ऐन पहले मंत्रिमंडल में किए गए फेरबदल का भी उन्हें लाभ ही मिला है।

निर्मला सीतारमण की प्रथम पूर्णकालिक व स्वतंत्र प्रभार वाली रक्षा मंत्री के रूप में पदोन्नति का व्यापक रूप में स्वागत किया गया है। पुरुष वर्चस्व वाली मंत्रिमंडल सुरक्षा समिति (सी.सी.एस.) में वह अब अपनी सहयोगी सुषमा स्वराज के साथ मौजूद हैं। यह बहुत ही बढिय़ा बात है लेकिन इस सांकेतिक कदम को महिला सशक्तिकरण के रूप में देखना गलत होगा। हम जानते हैं कि शहरी भारत हो या ग्रामीण, दोनों ही जगह महिलाओं और बालिकाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण के मामले में भारत को अभी बहुत लम्बा सफर तय करना है।

सुरेश प्रभु की जगह पीयूष गोयल को लाने मात्र से रेलवे की समस्याएं हल नहीं होंगी। ये समस्याएं आधुनिकीकरण तथा आम यात्रियों की सुविधाओं में सुधार से संबंधित हैं लेकिन इनके लिए पूरे रेल तंत्र की वरीयताओं को नए सिरे से तय करना होगा।

वैसे प्रधानमंत्री मोदी ने ‘प्रोफैशनल्जिम’ के बहाने बाहरी लोगों को मंत्रिमंडल में लाकर बढिय़ा काम किया है। लेकिन फिर भी विडम्बना यह है कि उन्हें उनकी इस विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों की जिम्मेदारी नहीं दी गई। वैसे एक बात तो तय है कि मोदी के मन को कोई नहीं पढ़ सकता है। उनके पास आश्चर्यों का खजाना है। पता नहीं कब, कौन-सी हैरानीजनक घोषणा कर दें। लेकिन उन्हें हर समय यह ध्यान रखना होगा कि भारतीय मतदाता भी कोई बहुत कम हैरानीजनक नहीं है। वह कभी भी किसी को पटखनी दे सकता है या उसका भाग्योदय कर सकता है।

मंत्रिमंडल के फेरबदल के अलावा चीन के शियामिन में हुए ब्रिक्स शीर्ष सम्मेलन में भी प्रधानमंत्री ने खूब रंग जमाया। उन्होंने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बातचीत के बाद बहुत सफलतापूर्वक डोकलाम विवाद के पश्चात पैदा हुए संकट को हल किया। पाकिस्तान आधारित दो आतंकी गुटों लश्कर-ए-तोयबा और जैश-ए-मोहम्मद को शियामिन घोषणापत्र में नामित करवाने में उन्होंने पूंजीगत भूमिका अदा की। इसी कारण इस घोषणापत्र में आतंकी समूहों द्वारा होने वाली हिंसा से क्षेत्र में सुरक्षा की स्थिति पर चिंता व्यक्त की गई।

यह पहला मौका है जब पाकिस्तान और चीन की सांठगांठ के बावजूद ब्रिक्स घोषणापत्र में आतंकी गुटों का उल्लेख किया गया। यह प्रधानमंत्री की बहुत बड़ी कूटनीतिक सफलता है। फिर भी उन्हें सबसे बड़ी चुनौती घरेलू मोर्चे पर दरपेश हैं। इस मोर्चे पर तेज रफ्तार आर्थिक विकास तथा रोजगार सृजन का वायदा पूरा करना ही होगा। यह काम करने के लिए भारत को ‘अवसरों की भूमि’ में बदलने हेतु कारोबारियों के लिए सुखद वातावरण सृजित करना होगा।

प्रधानमंत्री को अपनी वरीयताएं दुरुस्त करने की जरूरत है। अमीरों का पक्षधर होने की छवि सृजित करने की बजाय उन्हें पूरी तरह गरीबों और वंचितों के दुख-तकलीफों के प्रति संवेदनशीलता दिखानी होगी क्योंकि ये लोग अभी भी अग्रणी भारतीय गणतंत्र में सम्मानजनक स्थान हासिल करने का इंतजार कर रहे हैं।

सवाल केवल गरीबी और तेज रफ्तार विकास तक ही  सीमित नहीं। गवर्नैंस की गुणवत्ता भी दाव पर लगी  हुई है क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विरोध के  स्वरों  को  स्थान देने, सहिष्णुता एवं परस्पर सूझबूझ तथा खुलेपन का वातावरण सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है। वर्तमान में भारत को पीछे नहीं ले जाया जा सकता। गत कई वर्षों दौरान अनेक स्तरों पर असाधारण परिवर्तन हुए और आगे भी होते रहेंगे। इस बदले हुए  परिदृश्य में वैचारिक खुलेपन की जरूरत है ताकि नई चुनौतियों से प्रभावी एवं निर्णायक ढंग से निपटा जा सके।

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