‘मोदी डॉक्ट्रिन’ सफल हुई तो विश्व के लिए होगा यह नया सिद्धांत

Edited By ,Updated: 30 May, 2019 02:52 AM

modi doctrine  will be successful for the world this new theory

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद नरेन्द्र मोदी का भाषण एक राजपुरुष (स्टेट्समैन) का उद्बोधन था, समाज सुधारक का निरपेक्ष संत-भाव वाला उद्गार था और किसी कॉलेज के प्रिंसीपल का तरुणाई के वय वाले...

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद नरेन्द्र मोदी का भाषण एक राजपुरुष (स्टेट्समैन) का उद्बोधन था, समाज सुधारक का निरपेक्ष संत-भाव वाला उद्गार था और किसी कॉलेज के प्रिंसीपल का तरुणाई के वय वाले छात्रों को अनुशासन की सख्ती से वाकिफ करवाने का उपक्रम था।

शायद आने वाले वर्षों में दुनिया के राजनीतिक पंडितों के लिए एक नया सिद्धांत (डॉक्ट्रिन) है-समाज की विभिन्न इकाइयों के हितों का समाहन (एग्रीगेशन ऑफ इंट्रस्ट) यानी सभी के हितों को समान रूप से साधने का प्रयास। मोदी के संदेश का अगर विवेचन करें तो पाएंगे कि पांच साल बाद उन्होंने सबका साथ, सबका विकास का विस्तार करके तीसरा नारा और जोड़ा-सबका विश्वास, हालांकि सबका साथ अगर सही है तो विश्वास उसकी तार्किक परिणति है लेकिन मोदी ने इसे कहा तो कोई तात्पर्य होगा। शायद अपने दूसरे शासनकाल में मोदी इसे सर्व-समावेशी विकास के रास्ते से पिछड़े वर्ग दलित के अलावा मुसलमानों के मन से भय हटा कर और विकास करके वह लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं। 

इस लक्ष्य के लिए जाहिर है उन्हें अनेक गडकरियों की तलाश ज्यादा होगी और गिरिराजों की संख्या कम करनी होगी। अरुण जेतली का अभाव भी अखरेगा। राजनीति शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार सर्वहित साधन के लिए सबसे बेहतरीन तरीका एकल-पार्टी सिस्टम में होता है क्योंकि इसमें बहुमत जीतने का दबाव नहीं होता लेकिन भारतीय संविधान के अनुसार अगर द्वि-दलीय सिस्टम भी इसके लिए बेहद कारगर माना जाता है।

बहु-दलीय व्यवस्था इसके लिए सबसे कमजोर पद्धति मानी गई है। एकल या द्वि-दलीय पार्टी सिस्टम में सरकार के समूह हित साधने के प्रयासों का लाभ मतों के रूप में मिलता है और अवरोध कम से कम हैं। लेकिन इसके विरोध में यह तर्क है कि प्रतियोगिता के अभाव में एक-दलीय पद्धति में सरकार को बहुमत के लिए न तो विरोध की चिंता होती है, न ही सबको साथ लेने का दबाव। द्वि-दलीय पार्टी सिस्टम में भी एक पेंच है।

अमरीकी द्वि-दलीय सिस्टम में हर राजनीतिक पार्टी सभी का वोट लेने के लिए उनके हितों को नजर में रखती है लेकिन वहीं ब्रिटिश द्वि-दलीय सिस्टम में 19वीं सदी में केवल कुछ हितों को साध कर बाकी को नजरअंदाज करना शुरू किया गया लगभग दोनों दलों द्वारा। दोनों के बीच अलिखित और गुमनाम समझौता होता था नस्ली-और धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितों को या तो नजरअंदाज करने का या यथासंभव दबाने का। ये सब अनकहे तरीके से होता था जोकि प्रजातांत्रिक मूल्यों के खिलाफ थे। क्या मोदी इस नए प्रयोग में सफल होंगे या होने दिए जाएंगे और भारत में नया अनौपचारिक एक-दलीय शासन चलेगा मोदी की व्यापक जन स्वीकार्यता के सहारे? क्या विकास का भौतिक शास्त्र गैर-भौतिक हितों पर भारी पड़ेगा? 

दुनिया के किसी भी विकासशील देश के प्रजातंत्र में यह अभी तक संभव नहीं हो सका है क्योंकि भारत जैसे ही इन मुल्कों में भी संसाधन कम होते हैं और दबाव समूहों का उन पर दावा प्रबल। लिहाजा हमेशा एक संघर्ष चलता रहता है। यादव अपना आरक्षण छोडऩा नहीं चाहेगा और अति पिछड़ा वर्ग इतने साल के आरक्षण के बाद भी अपनी संख्या का दसवां हिस्सा भी सरकारी नौकरियों में नहीं पाता। लिहाजा सरकार पर संख्यात्मक दबाव बढ़ रहा है। अब अगर इस तथ्य को देखते हुए सरकार अति-पिछड़ों के लिए आरक्षण के भीतर ही आरक्षण करती है तो पिछड़ों में ही ज्यादा शिक्षित वर्ग जो आरक्षण का लाभ दशकों से हजम कर रहा है, नाराज होगा जबकि चुनावी रूप से ऐसी सरकार को लाभ हो सकता है। तब मोदी का सबका विश्वास का सिद्धांत फिर कसौटी पर होगा। 

लेकिन इसके अलावा इसके अमल में आने और सफल होने की एक और शर्त है-क्या गैर-भौतिक हित एक-दूसरे से टकराएंगे नहीं? हालांकि मोदी ने इसका समाधान विकास के रास्ते बताया है यह कह कर कि सड़क बनेगी तो सबके लिए, अगर उज्जवला का लाभ मिलेगा तो सबको और अगर किसानों को आॢथक सहायता मिलेगी तो टोपी और तिलक देख कर नहीं लेकिन मोदी शायद भूल गए कि अगर वंदे मातरम् जोर से न कहने पर एक वर्ग पिटाई करेगा और यह खबर मोदी के रोड शो की तरह घंटों और कश्मीर से कन्याकुमारी तक दिखाई जाएगी तो यह सड़क, बिजली और कर्ज माफी से उपजे सकारात्मक भाव से ज्यादा वजनदार होगी। 

प्रधानमंत्री चुने जाने के दो दिन बाद स्वयं वाराणसी के भाषण में प्रधानमंत्री राजनीतिक विश्लेषकों पर व्यंग्य करते हुए बोले-ये लोग अंकगणित में फंसे रहे जबकि चुनाव लड़े या जीते जाते हैं रसायन शास्त्र से। अगर उनकी इस बात को आप्त-वचन मान कर इसे मोदी डॉक्ट्रिन के फ्रेम में रख कर देखा जाए तो चुनाव जीतने के तत्काल बाद की कुछ घटनाएं (गुजरात, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में) जिनमें अल्पसंख्यकों को टोपी, वंदे मातरम् न कहने के आधार पर सरेआम पीटा गया। रसायन शास्त्र बदलता है न कि अंकगणित। हालांकि भाजपा शासित स्थानीय सरकारों की पुलिस ने इसे अंकगणित में बदलने की चिर-परिचित कवायद में हर बार कहा-ये घटनाएं टोपी या नारे के कारण नहीं बल्कि दो लोगों या गुटों के बीच रंजिश की वजह से हुई थीं। 

हालांकि इसमें गलती समाज के वर्गों की है। राजनीति शास्त्र के अनुसार अगर कोई समाज बहु-दलीय व्यवस्था में रहने का आदी हो चुका है तो उसे एकल शासन पद्धति भले ही वह अनौपचारिक हो और समाज के हर वर्ग की सहमति से बना हो, ज्यादा दिन चल नहीं सकता। सोवियत संघ में 1990 में टूट होने के कई दशक पहले से ही ये वर्ग अलग हो चुके थे जिसके संकेत कम्युनिस्ट शासकों को देर में मिले। 

फिर एक प्रश्र और भी है। इस जीत से बने उद्वेग के तहत बहुसंख्यकों का एक वर्ग और ज्यादा आक्रामक हो रहा है जो चुनाव नतीजे के बाद की घटनाओं से जाहिर हो रहा है। चूंकि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है और आज भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) देश के करीब 19 राज्यों और 65 प्रतिशत आबादी पर शासन कर रही है, क्या मुख्यमंत्रियों को यह स्पष्ट संदेश जाएगा कि उनकी परफार्मैंस इससे नहीं आंकी जाएगी कि उन्होंने कितने स्कूलों में योग या वंदे मातरम् शुरू करवा दिया है बल्कि इससे कि कोई अखलाक न मरने पाए, किसी की टोपी पर उंगली न उठे या गौमाता के नाम पर हर दाढ़ी वाले का टिफिन न देखा जाए। शायद सामाजिक रसायन की क्रिया के लिए यह पहली शर्त है। 

मोदी का कहना था पिछले तमाम दशकों में अल्पसंख्यकों के साथ छल करके उनके मन में एक डर बैठाया गया था। प्रधानमंत्री अपने दूसरे कार्यकाल में उसमें छेद करेंगे। उसका तरीका क्या होगा और क्या वह तथाकथित गौ-सेवकों, राम भक्तों और वंदे मातरम् की तराजू पर राष्ट्र भक्ति को तोलने वाले स्व-नियुक्त राष्ट्र भक्तों को नियंत्रित किए बिना संभव होगा। अगर सड़क बन जाए  लेकिन उस पर किसी पहलू खान को अपने घर के लिए गाय ले जाने पर मार दिया जाए तो रसायन भौतिकी पर भारी पड़ेगी? 

लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि मोदी अगर इसमें सफल रहे तो यह दुनिया के प्रजातंत्र के लिए एक नया अध्याय होगा और दुनिया के रसायन से ज्यादा अंकगणित को तरजीह देने वाले राजनीतिक पंडितों (मोदी के शब्दों में) के लिए नया शोध विषय, शीर्षक होगा-पारस्परिक हित-टकराव के बावजूद विकास के जरिए सर्वसमाहन का मोदी सिद्धांत।-एन.के. सिंह 
 

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