Edited By ,Updated: 26 May, 2019 05:12 AM
17 मई 2019 को मध्य प्रदेश के खरगौन में एक रैली को सम्बोधित करते हुए नरेन्द्र मोदी ने कहा, ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कच्छ से कामरूप तक, पूरा देश कह रहा है ‘अब की बार, 300 पार, फिर एक बार, मोदी सरकार’ ’’। उनका चुनाव विश्लेषण सही था लेकिन भूगोल गलत...
17 मई 2019 को मध्य प्रदेश के खरगौन में एक रैली को सम्बोधित करते हुए नरेन्द्र मोदी ने कहा, ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कच्छ से कामरूप तक, पूरा देश कह रहा है ‘अब की बार, 300 पार, फिर एक बार, मोदी सरकार’ ’’। उनका चुनाव विश्लेषण सही था लेकिन भूगोल गलत था।
अंतिम तौर पर आए परिणामों से यह स्पष्ट है कि जनादेश को लेकर उनका अनुमान सही था। इसलिए मोदी, भाजपा, पार्टी के लाखों कार्यकत्र्ताओं और उनके सहयोगियों को शुभकामनाएं। दूसरा कार्यकाल शुरू करने पर मैं प्रधानमंत्री को यह शुभकामनाएं देता हूं कि वह जनता की सेवा में सरकार को लगाने में सफल हों।
दो विरोधी दृष्टिकोण
अगला सफर आज शुरू हो रहा है। यह यात्रा कभी समाप्त नहीं होगी। 5 साल के बाद एक विराम होगा और यात्रा फिर शुरू हो जाएगी। देश पर शासन करने के अधिकार के बारे में विभिन्न दलों में मतभेद रहे हैं और आगे भी रहेंगे। एक बहुलतावादी और विविधता भरे समाज में ये मतभेद बहुदलीय और जीवंत लोकतंत्र का प्रमाण हैं। कोई पार्टी इस विविधता को स्वीकार करने से इंकार करने के बावजूद आम चुनाव जीत सकती है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि यह विविधता वास्तविक नहीं है।
भारत के बारे में भाजपा का दृष्टिकोण है : एक सिविल कोड, एक राष्ट्रीय भाषा और एकत्व के बहुत से पहलू। कांग्रेस का दृष्टिकोण अलग है : एक देश, इतिहास की कई तरह की व्याख्या, बहुत-से उपइतिहास, अनेक संस्कृतियां, अनेक सिविल कोड, अनेक भाषाएं तथा विविधता के अन्य अनेक पहलू, जिनमें अनेकता में एकता का प्रयास किया जाता है। क्षेत्रीय दलों का अपना दृष्टिकोण है: अलग-अलग राज्य में दृष्टिकोण में अंतर हो सकता है, उनकी राजनीतिक टिप्पणियों में एक बात सामान्य है: कि राज्य का इतिहास, भाषा तथा संस्कृति को सम्मान दिया जाना चाहिए तथा विशेष तौर पर प्रदेश की भाषा का पोषण करने के साथ-साथ उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
भाषा की विशेषता
भाषा विशेष तौर पर भावनात्मक मुद्दा है। संस्कृति, साहित्य, कला और लोगों के जीवन का अन्य प्रत्येक पहलू भाषा के इर्द-गिर्द घूमता है। यह बात न केवल तमिल लोगों के बारे में सही है बल्कि तेलगू, मलयालम, कन्नड़, उड़ीया, बंगाली और मेरा ख्याल है कि प्रत्येक प्राचीन भाषा बोलने वालों पर भी लागू होती है। राजनीति और विशेष तौर पर राजनीतिक संवाद में भाषा की विशेषता को दरकिनार नहीं किया जा सकता।
मैं तमिल लोगों को अच्छी तरह जानता हूं। भाषा, उनकी सभ्यता और संस्कृति के मूल में है। तमिलभाषी लोगों की पहचान तमिल से है। कर्नाटक संगीत के तीन महान कम्पोजर तमिलनाडु में पैदा हुए थे लेकिन उन्होंने अपने छंद संस्कृत और तेलगू में लिखे। मंदिरों में अर्चना संस्कृत में की जाती थी और आज भी अधिकतर अर्चक और पूजा करने वाले अपनी मर्जी की भाषा का प्रयोग करते हैं; सरकार द्वारा तमिल अर्चना को एक विकल्प के तौर पर जरूरी किया गया था और इस नीति को सब लोगों ने स्वीकार किया था। हिन्दूवाद का अर्थ शैव मत और वैष्णव मत था। और इसी प्रकार से तमिल इतिहास और धार्मिक साहित्य में उन्हें दर्ज किया जाता है।
दरअसल, तमिल ग्रंथ न केवल धर्म के वाहक थे बल्कि साहित्य के भी उत्कृष्ट उदाहरण थे। इसके अलावा ईसाई और मुसलमान विद्वानों ने भी तमिल भाषा की उन्नति में भरपूर योगदान दिया। तमिल लोगों व तमिल भाषा के बारे में मैंने जो कुछ कहा है वही बात केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल के लोगों और भाषाओं पर भी लागू होती है। आप अपने दोस्तों से इस बात की पुष्टि कर सकते हैं।
21वीं शताब्दी में धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का विचार भारत में पैदा नहीं हुआ। यह आधुनिक लोकतंत्र और गणतंत्र का एक बड़ा प्रमाण है, जिसके सबसे अच्छे उदाहरण यूरोप के देश हैं। कोई भी यह नहीं कह सकता कि यूरोपीय देशों के लोग धार्मिक नहीं हैं लेकिन वे सरकार और राजनीति के मामले में धर्मनिरपेक्षता के रास्ते पर चलने के लिए दृढ़संकल्प हैं। मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता का अर्थ था ‘धार्मिक और आध्यात्मिक मामलों से असंबद्ध’। समय बीतने के बाद, विशेष तौर पर यूरोप में इसका अर्थ चर्च और सरकार को अलग-अलग रखना था। वर्तमान में, विशेष तौर पर विविधता भरे समाज में धर्मनिरपेक्ष का मतलब है कट्टरवादी धारणा का त्याग और समावेशी होना। मेरा तर्क यह है कि भारत-भारत सरकार और उसकी सभी संस्थाओं को हमेशा समावेशी रहना चाहिए।
क्या भाजपा ने इन चुनावों को समावेश के आधार पर लड़ा? मुझे इसमें संदेह है। खबरों के अनुसार भाजपा के 302 सांसदों में से एक भी मुस्लिम समुदाय से नहीं है। इसके अलावा दलित, आदिवासी, ईसाई तथा कृषक भी यह महसूस करते हैं कि उन्हें बाहर रखा गया है। कुछ ऐसे वर्ग हैं जिन्हें जाति, गरीबी, अशिक्षा, बुढ़ापे अथवा दूरी के कारण विकास प्रक्रिया से बाहर रखा गया है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि प्रधानमंत्री एक बार फिर अपने मूल नारे ‘सबका साथ, सबका विकास’ पर जोर दें। मुझे डर है कि भाजपा ने यह चुनाव बहिष्कार के एजैंडे पर लड़ा है। मैं आशा करता हूं कि शासन की प्रक्रिया सबको साथ लेकर चलने वाली होगी।-पी. चिदम्बरम