मोदी की ‘पड़ोसी पहले’ नीति और आतंकवाद

Edited By ,Updated: 15 Jun, 2019 12:07 AM

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नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री के तौर पर अपने दूसरे कार्यकाल में पहले मालदीव का दौरा कर अपनी अति सक्रिय पड़ोसी नीति को एक रफ्तार दी है। इसके बाद वह श्रीलंका गए और द्वीपीय देश की आतंकवाद, जो हमारा सांझा दुश्मन है, के...

नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री के तौर पर अपने दूसरे कार्यकाल में पहले मालदीव का दौरा कर अपनी अति सक्रिय पड़ोसी नीति को एक रफ्तार दी है। इसके बाद वह श्रीलंका गए और द्वीपीय देश की आतंकवाद, जो हमारा सांझा दुश्मन है, के साथ लड़ाई में एकजुटता का वायदा दोहराया। वह कोलंबो स्थित सेंट एंथनीज गिरजाघर भी गए जिसे ईस्टर संडे को आत्मघाती हमलावरों ने निशाना बनाया था। उन्होंने कहा कि आतंक की कायराना कार्रवाइयां श्रीलंका की भावना को पराजित नहीं कर सकतीं।

प्रधानमंत्री मोदी के चुनावों के बाद के दौरे सरकार की पड़ोसी पहले नीति का हिस्सा हैं। उनका मालदीव का दौरा महत्वपूर्ण है क्योंकि अब्दुल्ला यामीन शासन के दौरान चीन इसे बहुत सक्रियतापूर्वक लुभा रहा था। मालदीव पर अब राष्ट्रपति सोलिथ का शासन है, जिनका झुकाव भारत की तरफ है। प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें हर तरह की वित्तीय तथा रणनीतिक सहायता का आश्वासन दिया। हिन्द महासागर पर चीन की परछाईं काफी गहरी होने के कारण भारत तथा मालदीव के बीच मजबूत संबंध भारत तथा क्षेत्र की समुद्री सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं।

इस संदर्भ में नरेन्द्र मोदी का पूरा ध्यान आतंकवाद पर है और उन्होंने आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए एक वैश्विक कांफ्रैंस बुलाने का आह्वान किया है। मालदीव की संसद को सम्बोधित करते हुए उन्होंने सही कहा कि आतंकवाद तथा कट्टरवाद के खिलाफ लड़ाई विश्व की सबसे बड़ी चुनौती है। लंबी चलने वाली इस लड़ाई का सही आकलन करते हुए नीतियां तथा रणनीतियां बनानी होंगी।

दिलचस्प बात यह है कि एक प्रश्र आतंकवाद संबंधी विशेषज्ञों द्वारा आमतौर पर पूछा जाता है कि अपनी 14.2 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के साथ भारत में आई.एस.आई.एस. की गतिविधियों के इतने कम मामले क्यों हैं और यह भारत की आतंकवाद विरोधी रणनीतियों के बारे में बहुत कुछ कहता है।

पाक प्रायोजित आतंकवाद का शिकार
निश्चित तौर पर भारत जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित छद्म आतंकवादी युद्ध का शिकार है। नई दिल्ली अपनी आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में जुटी हुई है। निश्चित तौर पर भारत, दक्षिण एशिया तथा बाकी दुनिया को सबसे बड़ी चुनौती से निपटने के लिए मिलकर काम करना होगा। प्रस्तावित वैश्विक सम्मिट इस संबंध में मदद कर सकती है।
ऐसा लगता है कि नई चुनौती अब केवल आई.एस.आई.एस. तक सीमित नहीं है। हमें आतंकवाद से संबंधित नए रुझानों को देखना होगा, जिन्हें भविष्य में अन्यों द्वारा दोहराया जा सकता है। वैश्विक सम्मिट को इस मुद्दे का विस्तृत समाधान करना होगा और समन्वित तरीके से कार्ययोजना बनानी होगी। यह अल्पकालिक कार्य योजना नहीं हो सकती बल्कि इसे एक व्यापक वैश्विक नजरिए से देखना होगा।

यद्यपि एक प्रभावी आतंकवाद विरोधी लड़ाई के लिए भारत को पड़ोसी देशों से सहयोग दरकार होगा। प्रधानमंत्री मोदी तथा नए विदेश मंत्री एस. जयशंकर इस काम पर सही जा रहे हैं। उन्होंने हिमालयी रणनीतिक देश के साथ संबंध मजबूत बनाने के लिए भूटान का दौरा किया है। पड़ोसियों के लिए एक नए नीति दृष्टिकोण के तौर पर उन्होंने कहा कि पारस्परिक आदान-प्रदान पर बहुत अधिक जोर न देकर भारत को ‘उदार नीतियों’ तथा ‘प्रोत्साहनकारी सहयोग’ का अनुसरण करना चाहिए। सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कैसे साऊथ ब्लाक नौकरियों संबंधी कदम उठाता है, हमारे पड़ोसियों को सहकारी सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों से जोड़ता है जहां पेचीदा राजनीतिक तथा रणनीतिक वैश्विक व्यवस्थाओं के बीच हम मजबूती से खड़े हैं।

मुख्य समस्या पाकिस्तान से
भारत की प्रमुख समस्या मुख्य रूप से हमारे पड़ोसियों में से पाकिस्तान तथा इसकी बदलती आतंकवादी चालों से है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि आतंकवाद तथा वार्ता साथ-साथ नहीं चल सकते। मेरा भी यही विचार है। फिर भी मैं महसूस करता हूं कि वहां कट्टर आतंकवादी तत्वों से निपटने के लिए साऊथ ब्लाक को इस्लामाबाद के साथ ‘पिछले 
दरवाजे की कूटनीति’ शुरू करने की सम्भावना तलाशनी चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस्लामाबाद भारत के साथ आतंकवाद मुक्त नीतियों पर चले, हमें आई.एस.आई. तथा जनरलों को सही रास्ते पर लाने के रास्ते तलाशने की जरूरत है।

भारत के नजरिए से पाकिस्तान का सत्ता अधिष्ठान अविश्वसनीय है। एक दिन यह एक बात कहता है मगर बाद में इसके ठीक उलट करता है। यह गत 70 वर्षों से भारत का अनुभव रहा है। दरअसल, यदि पाकिस्तानी नेता दोहरी तथा संदिग्ध चालें नहीं चलते तो भारत को तीन अनावश्यक युद्ध नहीं लडऩे पड़ते। जो भी हो, नई दिल्ली पाकिस्तान में परेशान करने वाले कई तथ्यों की ओर से अपनी आंखें नहीं मूंद सकती। इसे निरंकुश आतंकवाद के साथ-साथ इस्लामाबाद द्वारा सीमा पर अपनी ओर चलाए जा रहे इस्लामिक कट्टरवाद से निपटने के लिए एक प्रभावी उत्तर तलाशना होगा। भारत को नए खतरों का मजबूती से तथा मुखर होकर सामना करना होगा। इसे अवश्य देखना होगा कि अपना राष्ट्रीय मनोबल ऊंचा रखने के लिए कट्टरवाद तथा आतंकवाद की ताकतों को दृढ़ता से कुचल दिया जाए।

महत्वपूर्ण प्रश्र यह है कि क्या हम पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को गम्भीरतापूर्वक ले सकते हैं? मैं ऐसा नहीं समझता क्योंकि वह सैन्य जनरलों के हाथों की महज कठपुतली बताए जाते हैं। यह आसान कार्य नहीं है। मैं इस संबंध में जनरल परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा क्षेत्र वार्ता में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का हवाला देना चाहता हूं। वाजपेयी ने कहा था कि ‘हमारा सहयोग का भविष्य इस बात पर काफी हद तक निर्भर करता है कि हम कैसे मिलकर आतंकवाद से निपट सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय सहमत है कि कोई भी देश अपनी धरती का इस्तेमाल सक्रिय अथवा परोक्ष रूप से आतंकवादी समूहों को धन, शरण, हथियार तथा प्रशिक्षण देने के लिए नहीं करने देगा।’

आतंक का दानव
पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा था कि ‘अफगानिस्तान के अनुभव ने भी दिखाया है कि सहनशीलता, स्वीकृति अथवा आतंकवाद को प्रायोजित करना एक ऐसा दानव बनाता है जो उसके खुद के रचनाकार के नियंत्रण से बाहर हो जाता है।’ मुझे इन साधारण अवधारणाओं में एक सख्त वाजपेयी का उभार दिखता है। सम्भवत: आगरा के दुखद अनुभव ने उन्हें एहसास करा दिया था कि पाकिस्तानी नेता अच्छी तथा भद्रपुरुषों की भाषा नहीं समझते।

यह संतोष की बात है कि प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तानी नेताओं की नकारात्मक मानसिकता को समझते हैं, जिनमें प्रधानमंत्री इमरान खान भी शामिल हैं। यही कारण है कि वह पूर्व क्रिकेटर को गम्भीरतापूर्वक नहीं लेते। यह दुख की बात है कि वर्षों के दौरान वैश्विक नेता भारतीय संवेदनशीलताओं को समझने में असफल रहे और पाकिस्तानी नेताओं द्वारा चलाई जा रही अत्यंत साम्प्रदायिक राजनीति की तुलना में भारतीय परम्पराओं के ऐतिहासिक विकासक्रम को नजरअंदाज किया।
- हरि जयसिंह   hari.jaisingh@gmail.com

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