गौवध विरुद्ध मोदी का अभियान ‘गलत अवधारणाओं’ पर आधारित

Edited By ,Updated: 20 Nov, 2015 11:30 PM

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यह मानने का कोई कारण मौजूद नहीं कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की साम्प्रदायिक और जातिवादी राजनीति की निर्णायक पराजय का अर्थ यह होगा कि

(बृंदा कारत): यह मानने का कोई कारण मौजूद नहीं कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की साम्प्रदायिक और जातिवादी राजनीति की निर्णायक पराजय का अर्थ यह होगा कि गौ हत्या के विरुद्ध दुर्भावनापूर्ण अभियान का अंत हो जाएगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  (आर.एस.एस.) के अधिकृत ट्विटर हैंडल पर गौ चर्म से बनी वस्तुएं बेचने वालों को यह बिक्री बंद करने की ऑनलाइन धमकी इसका स्पष्ट प्रमाण है।

बेशक गौहत्या के विरुद्ध सामान्य अभियान मुस्लिमों को लक्ष्य बनाकर चलाया जाता है, फिर भी यदि गौहत्या पर मुकम्मल पाबंदी लगाने की हिन्दुत्व ब्रिगेड की अभिलाषा पूरी हो जाती है तो सबसे अधिक बुरी तरह हिन्दू ही प्रभावित होंगे। 
 
किसान, जिनमें से अधिकतर हिन्दू ही हैं, अपने गैर-उपजाऊ पशु ठेकेदारों के पास बेच देते हैं। गौवध पर मुकम्मल पाबंदी का अर्थ यह होगा कि किसानों को अपने गैर-उपजाऊ पशुओं की परवरिश करते रहना होगा, जोकि वर्तमान कीमतों के हिसाब से रोजाना प्रति पशु 100 रुपए या वाॢषक 36500 रुपए बनेंगे। क्या गंभीर कृषि संकट में फंसे हुए किसानों के लिए यह खर्च झेल पाना संभव होगा? क्या सरकार ऐसे पशुओं के लिए उन्हें सबसिडी देगी? पशु गणना के अनुसार देश में पहले ही 53 लाख ऐसे आवारा पशु हैं जिन्हें उनके मालिकों ने लावारिस छोड़ रखा है। 
 
किसानों के साथ-साथ समूचा लैदर उद्योग भी कच्चे माल की आपूर्ति में कमी आने से बुरी तरह प्रभावित होगा। चमड़ा निर्यात परिषद के अनुसार इस उद्योग में 25 लाख लोग कार्यरत हैं, जिनमें से अधिकतर अनुसूचित जातियों से संबंधित हैं। लगभग 8 लाख दलित मृत पशुओं की खाल उतारकर ही जीवन-यापन करते हैं। यह काम पूरी तरह कानून के दायरे में आताहै। 
 
लेकिन हिन्दुत्व ब्रिगेड की पहरेदारी के चलते पशुओं की खाल उतारने वाले लोगों, ठेकेदारों, ट्रक ड्राइवरों, व्यापारियों और इस उद्योग से संबंधित अन्य लोगों में भय व्याप्त होता जा रहा है। कानपुर की एक चमड़ा रंगने वाली इकाई (टैनरी) के मालिक ने कहा, ‘‘अब तो गौ की खाल उधेडऩा भी शेर की खाल उतारने जैसा है। शेर की खाल का काम पूरी तरह अवैध है। कोई भी मृत गौ की खाल को हाथ लगाने को तैयार नहीं क्योंकि सभी लोग सहमे हुए हैं।’’
 
देश के सबसे बड़े चमड़ा बाजारों में से एक कानपुर की पेशबाग चमड़ा मंडी में हर रोज पशुओं की खाल के लगभग 150 ट्रक आया करते थे। अब एक दिन में केवल 3 या 4 ट्रक ही आते हैं। टैनरियां और चमड़ा तैयार करने वाली छोटी व मझोली इकाइयां, जिन्होंने मुख्य तौर पर दलित लोगों को काम पर लगा रखा था, अब उनकी छंटनी कर रही हैं क्योंकि उन्हें पर्याप्त माल की आपूर्ति नहीं हो रही। एक ओर तो देश के चमड़ा उद्योग में कार्यरत लाखों श्रमिकों की रोजी-रोटी छिनने की नौबत आ गई है तथा दूसरी ओर सरकार ने गौ चर्म आयात करने की न केवल अनुमति दे रखी है बल्कि इस पर किसी प्रकार का भी आयात शुल्क नहीं लगता। यह कैसा ‘मेक इन इंडिया’ है जहां ‘विदेशी’ का अभिनंदन हो रहा है, वहीं ‘स्वदेशी’ को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा है।
 
कथित ‘गुलाबी क्रांति’ यानी कि निर्बाध गौ वध के विरुद्ध मोदी का ‘हल्ला बोल’ गलत अवधारणाओं पर आधारित है। उन्होंने जानबूझ कर इस तथ्य को छिपाया है कि निर्यात और घरेलू खपत के लिए मुख्य तौर पर भैंसों और गैर-उपजाऊ पशुओं का मांस प्रयुक्त किया जाता है न कि गायों का। जहां तक गौ का संबंध है 2012 की पशु धन गणना इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि ‘‘पूर्व गणना वर्ष यानी 2007 की तुलना में मादा गौ धन की संख्या में 6.52 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और 2012 में मादा पशुओं की कुल संख्या 12 करोड़ 29 लाख थी।’’ यह इस बात का संकेत है कि व्यापक गौ वध के आरोप केवल हवाई बातें हैं।
 
घृणा अभियान में इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि मुस्लिम लोग जानबूझ कर हिन्दू भावनाओं को आहत करने के लिए गौमांस खाते हैं। हिन्दुओं के गौ मांस भक्षण के बारे में लालू प्रसाद ने बेशक अपना बयान वापस लेने को राजनीतिक समझदारी मान लिया होगा लेकिन जो उन्होंने कहा था वही सत्य था। नैशनल सैम्पल सर्वे आर्गेनाइजेशन (एन.एस.एस.ओ.) ने 2011-12 में अनुमान लगाया था कि देश के 5.2 करोड़ लोग गाय अथवा भैंस का मांस खाते हैं। 
 
इससे पूर्व अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार द्वारा गौ मांस भक्षण पर प्रतिबंध को प्रोत्साहित करने के लिए स्थापित राष्ट्रीय पशु आयोग ने न चाहते हुए भी अपनी रिपोर्ट (पैरा 167) में माना था कि ‘‘अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों तथा अन्य पिछड़ी जातियों के कुछ वर्गों को घोर गरीबी एवं सामाजिक रीति-रिवाजों ने गौ मांस भक्षक बना दिया है।’’ गौ और भैंस का मांस खाने के साथ स्पष्ट रूप से वर्ग और जाति का पहलू भी जुड़ा हुआ है। अस्वीकार्य खाद्य मर्यादा (फूड कोड) जबरदस्ती थोपने का सीधा परिणाम यह होता है कि गरीब लोगों का पोषण प्रभावित होता है।
 
संघ परिवार दावा करता है कि पर्याप्त कानूनी प्रावधान न होने के कारण गौ वध होता है। यह भी संघ परिवार का एक नया झूठ है। पशुपालन विभाग की वैबसाइट के अनुसार पूर्वोत्तर के राज्यों को छोड़ कर अन्य सभी राज्यों में किसी न किसी रूप में गौ वध के विरुद्ध कानून बने हुए हैं।
 
लेकिन संघ परिवार की तो असली नाराजगी इसलिए है कि अधिकतर राज्यों में लाभदायक व अलाभदायक पशुओं के संबंध में कानूनों में फर्क किया गया है। गाय, सांड या बैल जैसे ही एक निश्चित आयु को पार कर जाता है तथा इससे न तो दूध हासिल किया जा सकता है और न ही इसे कृषि कार्य में प्रयुक्त किया जा सकता है तो ऐसे पशुओं का वध किया जा सकता है बशर्ते संबंधित अधिकारी प्रमाणित करे कि यह पशु ‘वध करने योग्य है’। 
 
ऐसे कानून केवल भारत तक ही सीमित नहीं हैं। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में भी दुधारू एवं जुताई वाले पशुओं के वध के विरुद्ध कठोर कानून बने हुए हैं। अमरीका द्वारा कई दशकों तक लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करने वाले समाजवादी क्यूबा ने 7 वर्ष से कम आयु वाले प्रत्येक बच्चे के लिए एक लीटर मुफ्त दूध तथा 7 वर्ष से अधिक आयु के प्रत्येक बच्चे के लिए मुफ्त दही की अपनी समाज कल्याण योजना को सुनिश्चित करने के लिए दुधारू गऊओं की हत्या के विरुद्ध कानून बना रखा है। हालांकि क्यूबा में भी गैर-उपजाऊ पशुओं को ‘वध के योग्य’ समझा जाता है।
 
परन्तु भारत में संविधान सभा के समय से ही हिन्दुत्ववादी शक्तियां इस दलील के आॢथक अधिकार को स्वीकार करने को तैयार नहीं। उनकी दलील है : यदि पाकिस्तान मजहबी आधार पर सूअर के मांस पर प्रतिबंध लगा सकता है तो भारत को क्यों गौ वध तथा गौ मांस रखने व इसके भक्षण पर पाबंदी नहीं लगानी चाहिए? दूसरे शब्दों में यह भारत को पाकिस्तान जैसा मजहबी देश यानी कि ‘हिन्दू पाकिस्तान’ बनाने का प्रयास था। उस समय डा. बाबा साहेब अम्बेदकर ने स्वयं गौ वध पर राष्ट्रव्यापी पाबंदी की मांग का विरोध करने वालों का नेतृत्व किया।
 
डा. अम्बेदकर ने जाति प्रथा व ब्राह्मणवादी कर्मकांड की जो जोरदार आलोचना की, उसमें दलितों के विरुद्ध होने वाली छुआछूत के कारणों के विश्लेषण में बताया गया था कि इसका एक आधार था दलितों द्वारा मुर्दा पशुओं  के मांस का भक्षण। बाबा साहेब का मत था कि गौ वध पर पाबंदी की मांग वास्तव में देश के सैकुलर संविधान में उच्च जातियों के हिन्दुत्व को घुसेडऩे का प्रयास था।
 
संविधान सभा में इस मुद्दे के पक्ष और विरोध में जोरदार दलीलों और मत विभाजन के मद्देनजर बाबा साहेब ने संविधान के मूल पाठ की बजाय इसके निर्देशक सिद्धांतों की धारा 48 में एक परस्पर समझौते का समावेश करने का रास्ता ढूंढ निकाला।
 
धारा 48 में कहा गया है: ‘‘सत्ता तंत्र आधुनिक और वैज्ञानिक पद्धति से कृषि और पशुपालन को संरक्षित करने का प्रयास करेगा और खास तौर पर नस्लों के संरक्षण और सुधार के लिए कदम उठाएगा तथा गायों व बछड़ों एवं अन्य दुधारू एवं जुताई में प्रयुक्त होने वाले पशुओं की हत्या पर पाबंदी लगाएगा।’’
 
दक्षिणपंथी हिन्दुत्व ब्रिगेड डा. अम्बेदकर के फार्मूले को उलटा घुमाते हुए ‘वध के योग्य’ प्रावधान को बाहर निकाल कर मुकम्मल राष्ट्रीय पाबंदी लगाना चाहता है और इसे गौ मांस भक्षण के साथ जोडऩा चाहता है। इस मांग के विरोध को केवल अल्पसंख्यकों के बचाव की लड़ाई के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए और न ही केवल किसानों, दलितों और गरीबों की रोजी-रोटी बचाने के रूप में; बल्कि इसे भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ में परिवर्तित करने में प्रयासों को रोकने की लड़ाई का भी अंग माना जाना चाहिए।   
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