‘मोदी की दुविधा-अन्ना या थैचर’

Edited By ,Updated: 06 Dec, 2020 05:17 AM

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क्या दिल्ली में किसानों की नाकाबंदी ने नरेन्द्र मोदी को थैचर क्षण या फिर अन्ना क्षण में ला खड़ा कर दिया है। यह मोदी पर निर्भर करता है कि वह इस सवाल का जवाब दें जिसका भारत इंतजार करता

क्या दिल्ली में किसानों की नाकाबंदी ने नरेन्द्र मोदी को थैचर क्षण या फिर अन्ना क्षण में ला खड़ा कर दिया है। यह मोदी पर निर्भर करता है कि वह इस सवाल का जवाब दें जिसका भारत इंतजार करता है। यह आने वाले वर्षों में राजनीतिक, अर्थव्यवस्था और यहां तक कि चुनावी राजनीति के पाठ्यक्रम को भी लिखेगा। 

स्पष्टता के लिए थैचर क्षण का अर्थ सुधार के लिए एक बड़ा दु:साहसी और जोखिम भरा कदम होगा। यह स्थापित संरचनाओं को अलग करने और निहित स्वार्थों को प्रभावित करता है। यही कारण है कि ब्रिटेन की पूर्वी प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने अपनी कट्टरपंथी पारी के साथ आॢथक अधिकार का सामना किया। उन्होंने अपने सींगों को इनसे भिड़ा दिया। वह जीत गईं और उसके बाद ‘आयरन लेडी’ कहलाए जाने लगीं। यदि वह दबाव में आत्मसमर्पण कर देतीं तब वह इतिहास में एक भुला दिए जाने वाली पट्टिका बन जातीं। 

अन्ना हजारे के पल को समझना आसान है क्योंकि यह हाल ही का वाक्या है। यह दिल्ली में स्थित था। थैचर के विपरीत जिन्होंने यूनियनों और ब्रिटिश वामपंथियों से लड़ाई लड़ी और उन्हें कुचल दिया। वहीं मनमोहन सिंह और उनकी यू.पी.ए. सरकार ने अन्ना हजारे के आगे समर्पण कर दिया। एक विशेष संसद सत्र आयोजित किया गया। घुटनों पर बैठ कर सभी बड़े मामलों के आरोपों को स्वीकार किया गया। मनमोहन सिंह ने सभी नैतिक अधिकारों और राजनीतिक पूंजी का हवाला दिया।

मोदी तथा उनके मंत्री दोनों उदाहरणों को भली-भांति समझते हैं। अपने साढ़े 6 वर्ष के कार्यकाल में वह सबसे बड़ी चुनौती से भिड़़ रहे हैं। मोदी के विरोधी इसकी तुलना सी.ए.ए. आंदोलन से न करें। ध्रुवीकरण को गहरा कर राजनीतिक रूप से वह आंदोलन भाजपा के लिए अनुकूल था। यह एक क्रूर बात है लेकिन आप राजनीतिक रूप से सिखों को मुस्लिम नहीं बना सकते। खालिस्तान हाथ की बात बकवास लगी। कांग्रेसी नेताओं को अन्ना हजारे ने सिर से पांव तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ बताया। 

सी.ए.ए. विरोधी आंदोलन में मुस्लिम और कुछ वामपंथी बौद्धिक समूह शामिल थे। उन्हें आप आसानी से अलग कर सकते हैं और यहां तक कि उन्हें कुचल भी सकते हैं। हम यहां पर वास्तविकता का उल्लेख कर सकते हैं। मोदी सरकार ने वार्ता के लिए आमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं समझी। वहीं किसानों के साथ प्रतिक्रिया अलग रही है। इसके अलावा यह संकट कई अन्य लोगों के ऊपर आया है जो संकल्प को धत्ता बता रहे हैं। चीनी लद्दाख में अपने धरने को समाप्त नहीं कर रहे, वायरस भड़क रहा है तथा अर्थव्यवस्था 6 तिमाहियों के लिए गिरावट पर है। राजनीतिक, आर्थिक, रणनीतिक और नैतिक रूप से किसान आंदोलन मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को शिकायत है कि उन्हें आर्थिक सुधारक के रूप में बहुत कम श्रेय दिया जाता है। वह दीवालियापन कानून, जी.एस.टी., पी.एस.यू. बैंक समेकन, एस.बी.आई. छूट लेकर आए। मगर फिर भी अभी तक कई लोग विशेषकर सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री उन्हें एक सुधारक के रूप में नहीं देखते। इस बात से कोई इंकार नहीं है कि मोदी ने सुधारवादी कदमों के साथ कुछ राजनीतिक भारी उठा-पटक की है मगर खराब ग्राऊंड वर्क और निष्पादन के कारण वह अपना रास्ता खो गए और अचानक नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था के पहिए को तोड़ दिया। उनकी विरासत अब तक धीमी है और भारत के विकास को उलट रही है। विरासत में मिली अर्थव्यवस्था जहां 8 फीसदी की वृद्धि थी और यह साधारण थी। अब आर.बी.आई. का कहना है कि यह वृद्धि 8 प्रतिशत की होगी मगर यह नकारात्मक रहेगी। मोदी के 7वें वर्ष में कोई भी व्यक्ति ऐसा रिकार्ड नहीं चाहेगा जिसमें भारत की पर-कैपिटा जी.डी.पी. बंगलादेश से भी कम हो चली है। 

कोरोना महामारी ने मोदी को एक ऐसा अवसर दिया कि वह इस संकट को व्यर्थ न जाने दें। यदि अल्पसंख्यक सरकार वाले नरसिम्हाराव और डा. मनमोहन सिंह 1991 के आॢथक संकट का इस्तेमाल भारत के आॢथक इतिहास में अपने लिए एक अच्छी जगह बनाने के लिए कर सकते हैं तो फिर अब ऐसा मोदी क्यों नहीं कर सकते?  इस तरह से महामारी पैकेज में दु:साहसिक कदमों की घोषणा की गई। कृषि सुधार कानून इनमें से सबसे शानदार है। इसके बाद श्रम कानूनों को लाया गया। अब उस बदलाव की तुलना करने योग्य है जिसे मार्गरेट थैचर ने लाने की हिम्मत की थी। थैचर मोदी जैसे कई संकटों से नहीं गुजर रही थीं। तब उनके पास लगभग पूरे रास्ते नहीं थे जो मोदी की राष्ट्रीय राजनीति में है। कोई भी बड़ा परिवर्तन भय और विरोध का कारण बनता है लेकिन वह एक ऐसे पैमाने पर है जो हमारी 60 प्रतिशत आबादी को ङ्क्षचतित करता है जो विभिन्न तरीकों से कृषि से जुड़ी है। 

मोदी तथा उनकी सरकार बेहतर कर सकती थी लेकिन यह सब अतीत की बातें हो गई हैं। वर्तमान हालात के साथ अन्ना आंदोलन की अधिक समानताएं हैं। ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की तरह किसान आंदोलन भी अपने आप में गैर-राजनीतिक स्थान पर है।  किसानों के लिए विश्वव्यापी सहानुभूति भी देखी जा रही है। उनके समर्थक उसी तरह से सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं जिस तरह से अन्ना हजारे के समर्थकों ने किया था। यू.पी.ए.-2 के विपरीत यह प्रधानमंत्री स्वयं का स्वामी है। उसे किसी और को लुटियन के बंगले में किसी को टालने की जरूरत नहीं है। 

मनमोहन सिंह की तुलना में उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता बहुत अधिक है। उनके पास शब्दों के साथ अपनी पार्टी के लिए लगातार चुनाव जीतने का रिकार्ड है लेकिन किसानों की यह हलचल उनके लिए बदसूरत लग रही है। सर्द मौसम की मार झेलने वाले, खाना पकाने और लंगरों को सांझा करने के दृश्य देखे जा सकते हैं। वे अपना भोजन पका रहे हैं और खा रहे हैं और खालिस्तानी आरोप का व्यापक रूप से संदेश देना चाहते हैं। 

थैचर के पास ऐसा कोई मुद्दा नहीं था और मनमोहन सिंह के पास खेलने को कुछ नहीं था मगर मोदी इस आंदोलन से कैसे निपटेंगे? पीछे हटने का प्रलोभन महान होगा। आप कानूनों को रद्द कर सकते हैं, वापस ले सकते हैं, उन्हें सिलैक्ट कमेटी के पास भेज सकते हैं। मोदी किसानों को गले लगा सकते हैं और समय की नजाकत को समझ सकते हैं। ऐसा नहीं कि मोदी और शाह पीछे हटना नहीं जानते।-शेखर गुप्ता

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