यदि इमरान की ओर से निमंत्रण मिले तो मोदी को पाकिस्तान नहीं जाना चाहिए

Edited By Pardeep,Updated: 04 Aug, 2018 03:45 AM

modi should not go to pakistan if invited from imran

भारतीय मीडिया में इस बात को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या पाकिस्तान के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री इमरान खान अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रित  कर प्रधानमंत्री मोदी को भी बुलाएंगे? हालांकि यह विचार कहीं से भी सामने नहीं...

भारतीय मीडिया में इस बात को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या पाकिस्तान के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री इमरान खान अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रित  कर प्रधानमंत्री मोदी को भी बुलाएंगे? 

हालांकि यह विचार कहीं से भी सामने नहीं आया है मगर मीडिया ने इसे प्रचारित कर इस विषय पर चर्चाएं शुरू कर दी हैं। पाकिस्तान के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री की ओर से अभी भारतीय प्रधानमंत्री को निमंत्रण नहीं भेजा गया है मगर इस बात को लेकर तर्क-वितर्क शुरू हो गया है कि यदि ऐसा कोई निमंत्रण आता है तो भारत को उस पर किस तरह प्रतिक्रिया करनी चाहिए। यह नाटकबाजी नहीं है तो और क्या है? 

इसके कई कारण हैं कि क्यों भारतीय प्रधानमंत्री को पाकिस्तान को लेकर ठंडा रवैया अपनाना चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसा दिखाई देता है कि वह इसके विपरीत कर रहे हैं। विदेशी मामलों के मंत्रालय द्वारा एक बार पाकिस्तान के चुनाव परिणामों पर वक्तव्य जारी करने के बाद भारतीय पक्ष की तरफ से कुछ और करने की जरूरत नहीं थी। यह प्रधानमंत्री के लिए बिल्कुल गैर जरूरी था कि वह इमरान खान को फोन कर उन्हें बधाई देते और घोषित करते कि वह ‘पाकिस्तान के साथ संबंधों के एक नए युग में प्रवेश करने के लिए तैयार हैं।’ मोदी ने कूटनीतिक विनम्रता दिखाई या वास्तव में उन्होंने खुद को बहका लिया है अथवा वह यह मानते हैं कि इमरान खान एक विश्वसनीय वार्ताकार हो सकते हैं, यह स्पष्ट नहीं है। 

भारत में यह तर्क दिया जा रहा है कि चूंकि इमरान खान आतंकवाद का ‘लाडला’ है इसलिए वह सब कुछ वही कहेंगे जो सेना उनसे कहने के लिए कहेगी। परिणामस्वरूप भारत पाकिस्तान की असैन्य सरकारों के साथ वार्ता में जिन समस्याओं का सामना करता रहा है वह इमरान खान के साथ बातचीत में नहीं होंगी। मगर यह एक नितांत दिखावटी तर्क है। पाकिस्तान की सेना ने अच्छा सैनिक, बुरा सैनिक  व्यवहार में महारत हासिल कर ली है। यह कोई मायने नहीं रखता कि वहां कौन-सी असैन्य सरकार है, उसे पाकिस्तानी सेना के बुरे सैनिक के साथ अच्छे सैनिक  का खेल खेलना पड़ता है। यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो कभी समाप्त नहीं होती और फिर भी यदि भारत इस दोहरे खेल के परिणामों को एक बार फिर सहना चाहता है तो मोदी सरकार को शुभेच्छाएं। 

यदि भारतीय प्रधानमंत्री अत्यधिक मैत्रीपूर्ण तथा कहीं आगे जाकर पाकिस्तान के लिए सद्भाव दिखाते हैं तो भी वह अच्छी स्थिति में होंगे। अच्छा होता यदि मोदी फोन उठाकर इमरान खान से बात करने की बजाय तब तक इंतजार करते जब तक इमरान खान शपथ ग्रहण नहीं कर लेते और फिर भारतीय उच्चायोग के माध्यम से उन्हें एक बधाई पत्र भेजते। मोदी जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ द्वारा भावनाओं में बहकर इमरान खान के विजयी भाषण का उद्धरण देना और उस पर सम्भवत: भावनाओं में बहकर प्रक्रिया देना कुछ हैरानीजनक है। इमरान खान ने जो कुछ कहा उसमें ऐसा कुछ नहीं था जो उनसे पहले किसी अन्य ने न कहा हो। यदि उसमें आगे बढऩे का कोई जरा-सा भी तत्व था तो इमरान खान ने कश्मीर को एक मुख्य विवाद बताकर उसे नष्ट कर दिया। 

यदि हम यह मान लें कि ऐसा कोई मायावी ‘निमंत्रण’ आएगा तो भारतीय प्रधानमंत्री के लिए सबसे बढिय़ा बात यह होगी कि वह भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए किसी जूनियर मंत्री को भेज दें। मोदी जब प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने अपने पड़ोसियों के साथ रिश्तों पर जमी बर्फ को तोडऩे के लिए अपनी इसी नीति का इस्तेमाल किया था। इस कदम ने वैश्विक स्तर पर यह हलचल पैदा कर दी थी कि मोदी कुछ करना चाहते हैं। हालांकि एक हवा बनाने के बावजूद कोई खास उपलब्धि प्राप्त नहीं की जा सकी। इससे भी खराब बात यह है कि मोदी ने कम से कम चार बार नवाज शरीफ के साथ बातचीत का प्रयास किया मगर उनके सभी प्रयास औंधे मुंह जा गिरे। 

इस बात में विश्वास करने का कोई कारण नहीं कि यदि अब मोदी इस्लामाबाद जाते हैं तो स्थितियां भिन्न होंगी। ऐसा केवल इसलिए क्योंकि कोई ऐसी बात नजर नहीं आती जो यह संकेत देती हो कि भारत के प्रति पाकिस्तान की नीतियों, विद्वेष अथवा विषैलेपन में कोई बदलाव आया है। दरअसल लश्कर-ए-तोयबा जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आतंकवादी संगठन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के अंतर्गत किए गए वायदे का उल्लंघन करके आम चुनाव लडऩे की आज्ञा देना तथा दक्षिणी पंजाब में जैश-ए- मोहम्मद द्वारा निर्मित की जा रही विशाल सुविधा इकाई की ओर से आंखें मूंदना पाकिस्तान द्वारा यह संदेश देना है कि भारत की यह नीति कि ‘वार्ता तथा आतंकवाद साथ-साथ नहीं चल सकते’ की कोई अहमियत नहीं है। यदि फिर भी भारत सरकार यह सोचती है कि उसे पाकिस्तान तक पहुंच बनानी चाहिए तो उसे या तो खराब सलाह दी गई है अथवा यह नितांत भोथरा विचार है। कूटनीतिक तौर पर भी (ठोस कारणों से) स्वार्थ का बायकाट करने के बाद अब शपथ ग्रहण समारोह के तमाशे के लिए जाने को न्यायोचित ठहराना कठिन होगा। 

अंतत: वहां जाने से सुरक्षा चिंताएं भी जुड़ी हैं। जिस तरह से वहां भारतीय प्रधानमंत्री के खिलाफ एक तरह की नफरत फैलाई गई है और उनके खिलाफ विषैला प्रचार अभियान छेड़ा गया है, जिस कारण अधिकतर पाकिस्तानी उन्हें एक राक्षस के रूप में देखते हैं, उनके लिए एक ऐसे देश में जाना असुरक्षित होगा जहां सुरक्षा कर्मी उन लोगों की हत्या करने के लिए जाने जाते हैं जिनकी सुरक्षा के लिए उन्हें तैनात किया जाता है। इस मामले में आपको सम्भवत: मुमताज कादरी याद होंगे। इस मामले में कोई गारंटी नहीं दी जा सकती कि कोई उन्मादी जेहादी मोदी के साथ भी वैसा ही व्यवहार नहीं करेगा। इसलिए भारत के लिए यही सर्वश्रेष्ठ होगा कि शत्रु के साथ वार्ता का एक और जुआ खेलने से पहले वह तब तक प्रतीक्षा करे जब तक कि पाकिस्तान की ओर से परिवर्तन के कुछ वास्तविक संकेत नहीं मिलते।—एस. सरीन

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