‘पैसा और चुनाव आयोग’ लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा रहे हैं

Edited By ,Updated: 18 Apr, 2021 04:31 AM

money and election commission  are taking away democracy

1977 में जब मैंने पहली बार एक चुनाव में प्रचार किया तब स्थिति बुरी नहीं थी। उस चुनाव में कुछ अवांछनीय चीजें थीं मगर बुरी चीजें न थीं जो हम आज के दौर में देखते हैं। वर्ष 1977 में मैं तमिलनाडु की बात करता हूं। इंदिरा गांधी ने एक चुनाव

1977 में जब मैंने पहली बार एक चुनाव में प्रचार किया तब स्थिति बुरी नहीं थी। उस चुनाव में कुछ अवांछनीय चीजें थीं मगर बुरी चीजें न थीं जो हम आज के दौर में देखते हैं। वर्ष 1977 में मैं तमिलनाडु की बात करता हूं। इंदिरा गांधी ने एक चुनाव करवाया था। आपातकाल के दौरान हिरासत में लिए गए नेताओं को रिहा किया गया था। उन्होंने एक पुनरुत्थान वादी विपक्ष का सामना किया था। 1972 में एम.जी. रामचंद्रन ने द्रमुक से अलग होकर अपनी पार्टी अन्नाद्रमुक बनाई और महत्वपूर्ण लोकसभा उपचुनाव जीता। उस समय रामचंद्रन लोकप्रियता और प्रशंसा की अभूतपूर्व लहर की सवारी कर रहे थे। 

कांग्रेस (आई) ने अन्नाद्रमुक से हाथ मिलाया और द्रमुक का सामना किया जोकि आपातकाल का विरोध करने के लिए सबसे अग्रणी पार्टी थी। ज्यादातर लोगों को आश्चर्यचकित करते हुए उत्तरी राज्यों में बहने वाली आपातकाल विरोधी लहर विंध्या को पार नहीं कर सकी। 

अच्छा और बुरा पहलू : यह चुनाव एक सभ्य, निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव था। चुनाव आयोग पूर्ण रूप से स्वतंत्र था। इसमें अन्नाद्रमुक के सभी उम्मीदवारों को एक सामान्य चिह्न आबंटित करने के तर्क को स्वीकार किया गया। हालांकि अन्नाद्रमुक एक मान्यताप्राप्त पार्टी न थी और उसने केवल एक उपचुनाव जीता था। उम्मीदवारों ने चुनावी प्रचार, पोस्टर, पत्रक और बैठकें करने के लिए पैसा खर्च किया। यह सही मायने में प्रचार था और वोट मांगने के लिए ही प्रचार किया जा रहा था। यहां तक कि मतदाताओं को लुभाने की कोई अफवाह भी नहीं थी। 

बुरा पक्ष यह था कि चुनाव आमतौर पर भू-स्वामी वर्ग द्वारा तय किए गए थे। दलितों और आदिवासियों के पास प्रमुख जातियों और जमींदारों की इच्छा के अनुरूप मतदान करने के लिए बहुत कम विकल्प थे। अल्पसंख्यक चुप थे लेकिन डरते नहीं थे। उन्होंने अपने समुदायों के नेताओं द्वारा निर्देशित होकर मतदान किया। 

कानूनी रूप से देखें तो यह एक स्वतंत्र चुनाव था लेकिन उतना नहीं जितना एक सच्चे लोकतंत्र में होना चाहिए। 2021 तक हम तेजी से बढ़े। चुनाव निश्चित रूप से इस मायने में अधिक लोकतांत्रिक हैं कि कोई भी वर्ग किसी दूसरे वर्ग से डरता नहीं और स्वतंत्र रूप से मतदान करते हैं। जाति महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है मगर इस तरह से नहीं जैसा कि वह पूर्व में करती थी। श्रेणी काफी हद तक अप्रासंगिक है। गरीब अमीर से डरते नहीं और स्वतंत्र रूप से मतदान करते हैं। 

परेशान करने वाली प्रवृत्तियां : नई बुराइयां पैसों में हैं। व्यापक रूप से यह सांझी धारणा है कि चुनाव आयोग वास्तव में स्वतंत्र ही नहीं। दोनों ही लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा रहे हैं। मिसाल के तौर पर तमिलनाडु में चुनाव आयोग पैसे को बांटने से रोकने के लिए असमर्थ रहा। पैसे का प्रस्ताव सबको स्वीकार्य रहा और प्रत्येक मतदाता ने इसे स्वीकारा। प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री की हर रैली पर बड़ी मात्रा में धन खर्च होता है। एक विशाल मंच तैयार किया गया। एल.ई.डी. स्क्रीन लगाई गई। रैली तक लोगों को पहुंचाने के लिए सैंकड़ों वाहन किराए पर लिए गए। लोगों को खाना और पैसा दोनों दिए गए। विज्ञापन पर करोड़ों रुपए खर्च किए गए। इसके अलावा सोशल मीडिया, शार्ट मैसेज, टैलीफोन कालें और पेड न्यूज (जिन्हें पैकेज कहकर पुकारा जाता है) पर अत्यधिक पैसा खर्च किया। कोई एक इंकार नहीं कर सकता कि राजनीतिक दलों ने करोड़ों रुपए खर्च किए मगर इन्हें खर्च वाले पक्ष पर दर्शाया नहीं गया। न ही पाॢटयां और न ही उम्मीदवारों द्वारा प्राप्तियां दिखाई गईं। 

तराजू को झुकाया जाता है : द्रमुक के ए. राजा को 48 घंटों तक चुनाव प्रचार के लिए गलत विचार और अपमानजनक टिप्पणी के लिए प्रतिबंधित किया गया था। लेकिन भाजपा के हेमंत बिस्वा शर्मा के मामले में, जिन्होंने सामान्य रूप से अपमानजनक टिप्पणी की थी, के 48 घंटे के प्रारम्भिक प्रतिबंध को 24 घंटे तक कम कर दिया गया। ऐसा क्यों? ममता बनर्जी के प्रत्येक भाषण पर चेतावनी दी गई। उन्हें नोटिस जारी किए गए और अंतत: 24 घंटे के लिए चुनावी प्रचार करने हेतु प्रतिबंधित किया गया। क्या चुनाव आयोग ने प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री के भाषणों में कोई गलती नहीं पाई? सड़क स्तर पर ‘दीदी-ओ-दीदी’ कहना क्या अच्छा तरीका है? क्या किसी मुख्यमंत्री को इस तरह से सम्बोधित करना अच्छा तरीका है? मैं जवाहर लाल नेहरू, मोरारजी देसाई या वाजपेयी द्वारा उस जैसी भाषा बोलने की कल्पना नहीं कर सकता? 

चुनाव आयोग की सबसे घिनौनी कार्रवाई पश्चिम बंगाल में 8 चरणों और 33 दिनों का चुनाव कलैंडर बनाना है। तमिलनाडु, केरल तथा पुड्डुचेरी की 404 सीटों पर एक ही दिन में 6 अप्रैल को चुनाव करवाए जा सकते थे तो 294 सीटों के साथ पश्चिम बंगाल में 8 चरणों की क्या जरूरत थी? संदेह यह है कि यह प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को पश्चिम बंगाल में अधिक दिनों तक प्रचार करने में सक्षम बनाने के लिए किया गया। चुनाव आयोग को टी.एन. शेषन जैसे व्यक्ति की जरूरत है। उन्हें एक बुलडॉग के तौर पर वॢणत किया गया मगर वह ऐसे बुलडॉग थे जिन्होंने न कभी डर महसूस किया और न ही अपने मालिक की बात मानी। मैं फिर भी चुनाव आयोग को संदेह का लाभ दूंगा और हम सब अब 2 मई के मध्य उसके व्यवहार की निगरानी करेंगे।-पी. चिदम्बरम

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!