हमारे अधिकतर ‘निवारक नजरबंदी’ कानूनों का आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं

Edited By Pardeep,Updated: 07 May, 2018 03:21 AM

most of our preventive detention laws have nothing to do with terrorism

90 वर्ष पूर्व अप्रैल 1919 में जलियांवाला बाग में नरसंहार हुआ था। इसके विवरण हम सभी को स्कूलों में पढ़ाए जाते हैं। जनरल डायर (बाद में ब्रिगेडियर जनरल) ने 90 सैनिकों (जिनमें से 65 गोरखा जवान और शेष 25 बलोच रैजीमैंट के पंजाबी सैनिक थे) को अमृतसर में...

90 वर्ष पूर्व अप्रैल 1919 में जलियांवाला बाग में नरसंहार हुआ था। इसके विवरण हम सभी को स्कूलों में पढ़ाए जाते हैं। जनरल डायर (बाद में ब्रिगेडियर जनरल) ने 90 सैनिकों (जिनमें से 65 गोरखा जवान और शेष 25 बलोच रैजीमैंट के पंजाबी सैनिक थे) को अमृतसर में जमा हुई भीड़ में गोली चलाने का आदेश दिया था। 

सैनिकों ने अपनी ली एन्फील्ड .303 राइफलों से गोली चलाई। प्रत्येक कुछ सैकेंड बाद उन्हें इन राइफलों को री लोड करने के लिए रुकना पड़ता था। लगभग 10 मिनट में इन भारतीय सैनिकों ने निहत्थी भीड़ पर 1600 से भी अधिक गोलियों की बौछार की। सरकार ने कहा कि भीड़ वहां आदेशों का उल्लंघन करते हुए जमा हुई थी और सरकारी आंकड़ों के अनुसार 379 लोग मौत का शिकार हुए थे जबकि 1100 से अधिक घायल हुए थे। 

कांग्रेस पार्टी ने कहा था कि मरने वालों की संख्या 1000 से ज्यादा थी लेकिन हम अभी भी यह नहीं जान पाए कि वास्तव संख्या कितनी थी। कई कारणों से मेरे लिए सरकारी आंकड़े को गलत मानना मुश्किल है। कुछ भी हो इस प्रकरण से दुनिया को सदमा पहुंचा था और रबीन्द्र नाथ टैगोर ने रोष स्वरूप नाइट हुड (यानी ‘सर’ की उपाधि) लौटा दी थी। हममें से बहुत लोग जानते होंगे कि भीड़ रौलट एक्ट के विरुद्ध रोष व्यक्त कर रही थी। इस कानून के संबंध में इतनी एतराज योग्य बात आखिर क्या थी? रौलट एक्ट में कहा गया था कि किसी भी भारतीय को बिना मुकद्दमा चलाए हिरासत में रखा जा सकता है। यह एक निरोधक हिरासत का प्रावधान था जिसका तात्पर्य यह था कि वास्तव में कोई अपराध किए बिना भी किसी नागरिक को जेल में डाला जा सकता था। 

मुख्य रूप में इसका अर्थ यह है कि सरकार में मौजूद किसी व्यक्ति को ऐसी आशंका होती है कि अमुक नागरिक शायद भविष्य में किसी अपराध को अंजाम दे सकता है इसलिए उसे पहले ही सलाखों के पीछे बंद कर दिया जाता। भारतीय इस तरह के कानून पर भड़क उठे थे और लाहौर के एक अखबार ने अपनी सुर्खी में रौलट एक्ट को इस तरह बयां किया था : ‘‘कोई दलील, कोई वकील, कोई अपील नहीं।’’ यह निरोधक हिरासत के चरित्र का बहुत बढिय़ा वर्णन है। जलियांवाला बाग हत्याकांड की पृष्ठभूमि वास्तव में यही थी और इस काले कानून के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए हमारे अनेक नागरिक साथी मौत का शिकार हुए थे। वह यह मानते थे कि बिना मुकद्दमा चलाए या बिना किसी आरोप के भारतीयों को जेलों में बंद करने का औपनिवेशक सरकार का फैसला गलत था। ऐसे में यह कहना बहुत मुश्किल है कि उनके रोष प्रदर्शन में क्या गलती थी। जलियांवाला बाग हत्याकांड के कारण ही रौलट एक्ट के प्रावधान सम्पूर्ण रूप में लागू नहीं किए गए थे। 

यह काम 99 वर्ष पूर्व तब हुआ था जब हम एक विदेशी सरकार की सत्ता के अधीन थे। अब हम वर्तमान की ओर लौटते हैं। नवम्बर 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने दलित नेता चंद्र शेखर आजाद रावण को बिना किसी आरोप के जेल में ठूंस दिया था। उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एन.एस.ए.) लागू किया गया था। एन.एस.ए. के अंतर्गत चंद्रशेखर आजाद को मानवाधिकारों के अंतर्गत ऐसी कोई सुविधा या सुरक्षा या संरक्षण नहीं मिल सकता जो सामान्य आपराधिक प्रक्रिया के अंतर्गत उपलब्ध होता है और न ही उनके मुकद्दमे की सुनवाई निष्पक्ष मानकों के अनुरूप होगी। बिना किसी सुनवाई और बिना किसी मुकद्दमे के उन्हें 12 माह तक जेल में रखा जा सकता है। अपनी रिहाई पर (यदि रिहाई हो जाती है) चंद्रशेखर आजाद को फिर से किसी अन्य किसी राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत जेल में ठूंसा जा सकता है। 

चंद्रशेखर आजाद के कारावास की अवधि दो मई को सम्पूर्ण हो गई थी उसी दिन एन.एस.ए. के अंतर्गत एक गैर अदालती सलाहकार बोर्ड का गठन किया गया था, जिसने चंद्रशेखर को 6 महीने के लिए फिर से जेल में भेज दिया। दलितों के साथ लंच के वायदे करने की बजाय बेहतर यही होगा कि हमारे नेता उनके साथ यह वायदा करें कि उनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार होगा और उनके आधारभूत संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानून के विरुद्ध प्रयुक्त नहीं किए जाएंगे। 

हाईकोर्ट ने भी चंद्रशेखर आजाद को रिहा करने से इंकार कर दिया है। स्मरण रहे कि उन पर किसी भी अपराध का दोष नहीं है। उनकी हिरासत पूरी तरह निरोधात्मक (निवारक) है और अतीत में सुप्रीम कोर्ट खुद कह चुका है कि ‘निवारक नजरबंदी’ के कानून ‘जंगल के कानून’ के समान हैं। भारत सरकार के अंतर्गत एन.एस.ए. जैसे बहुत से कानून हैं और हमारी राजनीतिक सरकारें ऐसे भारतीयों को हिरासत में भेज सकती हैं जिनके साथ उनका व्यक्तिगत मतैक्य न हो या जिन्हें वह निजी रूप में पसंद न करती हों। हम अपने लोगों के साथ वह व्यवहार कर रहे हैं जैसा करने से विदेशी सरकार भी झिझकती थी। साथी भारतीयों के साथ इस तरह का व्यवहार करवाने के लिए भारतीय जज और नौकरशाह ढूंढने में कोई दिक्कत नहीं आती। 1919 के नरसंहार को मैंने केवल यह रेखांकित करने के लिए इतने विवरण से बयां किया है कि हमारे साथ गोरखा और पंजाबी भारतीयों ने ही वास्तव में हमारे अनेक लोगों पर निशाना साध-साध कर गोलियां चलाईं। 

देखने को तो ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम सचमुच में कानूनदानी का एक गम्भीर उदाहरण  है जिसका उद्देश्य भारत को सुरक्षा चुनौतियों से बचाना है। लेकिन सरकार चंद्र शेखर आजाद को किसी आतंकी गतिविधियां भय के कारण सलाखों के पीछे नहीं रखे हुए है। वास्तव में हमारे अधिकतर निवारक नजरबंदी कानूनों का आतंकवाद के भय से कोई लेना-देना ही नहीं। ‘गुजरात असामाजिक गतिविधियां निवारक कानून’ के अंतर्गत गुजरात सरकार अपने नागरिकों को जेल भेज सकती है। कर्नाटक सरकार के पास भी ‘खतरनाक गतिविधियां निवारक कानून मौजूद है’ जिसे लोकप्रिय भाषा में ‘गुंडा एक्ट’ कहा जाता है। 

प्रादेशिक कानूनों के अंतर्गत सम्भावी हिरासत की अवधि 6 माह से 2 वर्ष तक हो सकती है। अधिकारी विभिन्न राज्यों में अनेक तरह की गतिविधियों के लिए निरोधक हिरासत कानून लागू कर सकते हैं। नाजायज शराब निकालना, भूमि हड़पना और यहां तक कि वीडियो पायरेसी भी इसी कानून के अंतर्गत आती है। तमिलनाडु में निरोधक हिरासत के अंतर्गत 2016 में 1258 लोग जेलों में बंद थे जिनमें से 62 लोग ग्रैजुएट या पोस्ट ग्रैजुएट थे और 21 महिलाएं थीं। नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की 2015 की रिपोर्ट में दिखाया गया है कि गुजरात में 219, कर्नाटक में 232 और तेलंगाना में 339 भारतीयों को अवैध शराब, नशीले पदार्थों की बिक्री, जंगल में से लकड़ी काटने, गुंडा गर्दी, अनैतिक मानव तस्करी, झुग्गी झोंपडिय़ों पर अतिक्रमण करने और वीडियो पायरेसी जैसी खतरनाक गतिविधियों के नाम पर जेलों में ठूंस रखा था। 

कानून की शब्दावली की अस्पष्टता तथा दोगली भाषा बिल्कुल सोची समझी है। औपनिवेशक  सरकार की तरह भारत की जनतांत्रिक सरकार भी अपने नागरिकों को केवल शरारतों के पुतले ही समझती हैं। इसे कानूनी प्रणाली पर कोई भरोसा नहीं और ऐसे रक्त-पिपासु कानून चाहती है जिनके अंतर्गत इसे निर्बाध शक्तियां हासिल हों और बिना किसी अपराध के नागरिकों को जेलों में ठूंसा जा सके। जब तक हम 2018 में अपने साथी नागरिकों के साथ गठित वास्तविकताओं को समझ नहीं लेते और इनका संज्ञान नहीं लेते तब तक पाठ्य पुस्तकों में 1919 के जलियांवाला कांड की शिक्षा जारी रखना सिवाय पाखंड के और कुछ नहीं।-आकार पटेल

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