‘बुर्के में कैद’ मुस्लिम महिलाएं अब अपनी बात रखने का दम रखती हैं

Edited By ,Updated: 29 Jan, 2020 01:38 AM

muslim women  imprisoned in the burqa  now hold their own

नागरिकता संशोधन कानून (सी.ए.ए.), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एन.आर.सी.) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एन.पी.आर.) को लेकर देश भर में आंदोलन हो रहे हैं लेकिन दिल्ली का शाहीन बाग सबसे अधिक चर्चा में है। शाहीन बाग में पिछले एक महीने से अधिक समय से...

नागरिकता संशोधन कानून (सी.ए.ए.), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एन.आर.सी.) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एन.पी.आर.) को लेकर देश भर में आंदोलन हो रहे हैं लेकिन दिल्ली का शाहीन बाग सबसे अधिक चर्चा में है। शाहीन बाग में पिछले एक महीने से अधिक समय से प्रदर्शन चल रहा है। दिल्ली-एन.सी.आर. में कड़ाके की रिकार्डतोड़ ठंड भी रुकावट बनने में नाकाम रही है। विषम परिस्थितियों में भी रात भर लोगों का धरना प्रदर्शन पर डटे रहना आश्चर्यचकित करता है। खासकर मुस्लिम महिलाओं का बड़ी संख्या में शामिल होना इस बात का सबूत है कि मुस्लिम महिलाओं में बदलाव की बेताबी है। 

घरेलू कामों और अन्य जिम्मेदारियों के बीच मुख्य रूप से बुर्काधारी महिलाएं बड़ी संख्या में उस दिन से मौजूद हैं जिस दिन से विरोध शुरू हुआ था। इस प्रदर्शन को चाहे किसी भी तरीके से देखें, मगर जिस तरह शांतिपूर्ण तरीके से लगातार यह प्रदर्शन चल रहा है उसने ऐसी हलचल मचाई है जिसका प्रभाव देश भर में पड़ा है। इस प्रदर्शन में मुस्लिम महिलाओं की हिस्सेदारी बताती है कि अब वे भी सामाजिक आंदोलनों में उतरने का मन बना चुकी हैं। बदलते समय, बदलते समाज, बदलते परिवेश और शिक्षा के बढ़ते महत्व के बीच हिंदुस्तान की मुस्लिम महिलाओं ने भी बंदिशों की बेडिय़ों को झकझोरना शुरू कर दिया है। 

मुस्लिम महिलाओं का मुखर होना अचरज भरा है
सदियों से रीति-रिवाज के बंधनों मेें जकड़ी और अक्सर बेतुके फतवों की मार झेलती बुर्के में कैद मुस्लिम महिलाएं अब अपनी बात रखने का दमखम रखती हैं। ट्रिपल तलाक, हलाला, मजारों पर हाजिरी जैसे मुद्दों पर भी मुस्लिम महिलाओं की अच्छी खासी संख्या सड़कों पर उतर चुकी है, लेकिन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर मुस्लिम महिलाओं का मुखर होना अचरज भरा है। मुद्दों की गलत या सही की परिभाषा में न पड़ते हुए अगर मुस्लिम महिलाओं के इस आंदोलन को देखा जाए तो यह बदलाव आने वाले समय में मुस्लिम महिलाओं के लिए मील का पत्थर साबित होगा। धर्म की नाजायज बंदिशों को तोडऩे के लिए मुस्लिम महिलाएं सड़क पर उतरने से गुरेज नहीं कर रही हैं। धार्मिक न्यायाधिकारी के रूप में काम करने वाले काजी के पद पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है लेकिन अब मुस्लिम महिलाएं भी काजी बन रही हैं। अफरोज बेगम और जहांआरा ने बाकायदा महिला काजी की ट्रेङ्क्षनग ली है। नादिरा बब्बर, शबाना आजमी, नजमा हेपतुल्लाह, मोहसिना किदवई जैसी कई ऐसी मुस्लिम महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपने बूते कामयाबी हासिल कर अपना अलग मुकाम बनाया है। 

इस्लाम में मुस्लिम महिलाओं को वैसे भी बड़े अधिकार दिए गए हैं। यह अलग बात है कि आम मुसलमान उस पर अमल नहीं करता। इस्लाम महिला अधिकारों के बारे में क्या कहता है, यह जान लेना वक्त की जरूरत है। अक्सर इस मुद्दे पर भ्रम पैदा होता है। जब गुमराह तालिबानी विचारधारा के पोषक या कट्टपंथी उलेमा महिलाओं के संदर्भ में कोई भी बेतुका फरमान जारी करते हैं, तब उस फतवे को तोड़-मरोड़ कर इस्लाम के बुनियादी उसूलों से जोड़ दिया जाता है। उसे इस्लामिक फतवे के नाम से प्रचारित किया जाता है। सही इस्लाम को न जानने वाले मुस्लिम और गैर मुस्लिम भी अक्सर इसे इस्लाम का एक हिस्सा समझ लेते हैं जो सर्वथा गलत है। एक बात गांठ मार लेनी चाहिए कि सही इस्लाम की शिक्षा में ऐसी किसी भी बात से इस्लाम का ताल्लुक नहीं है जो मानव अधिकारों की रक्षा न करे। इस्लाम तो सजायाफ्ता कैदी के अधिकारों की भी बात करता है, फिर भला वह आम आदमी के खिलाफ जुल्म का हिमायती कैसे हो सकता है। ऐसे में मुस्लिम महिलाओं पर जुल्म की बात करने वाला मुसलमान कैसे हो सकता है? 

इस्लाम ने युद्ध और रक्तपात को अस्वीकार्य बताया है
दरअसल इस्लाम को समझने के लिए सबसे पहले इसे संस्कृति विशेष और समाज विशेष की संरचना से अलग करके देखना जरूरी है। सऊदी अरब, मिस्र, ईरान, ईराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान सहित अन्य इस्लामी मुल्कों में अगर कुछ लोग अपनी अलग शैली में जीवन यापन करते हैं तो इसकी वजह वहां की सामाजिक व्यवस्था, वहां की संस्कृति, वहां का भौगोलिक वातावरण वगैरह है, न कि इस्लाम। इस्लाम की दृष्टि से हर मनुष्य का जीने का अधिकार इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि पवित्र कुरान ने इस अधिकार के हनन को इंसान और इंसानियत की हत्या के समान कहा है। इसीलिए इस्लाम ने युद्ध और रक्तपात को अस्वीकार्य बताया है। केवल विशेष परिस्थितियों में अपने देश, धर्म या पीड़ितों की रक्षा के लिए युद्ध को सही ठहराया है। इसी को जेहाद का नाम देकर बदनाम किया जाता है। हालांकि ध्यान देने वाली बात यह है कि इस प्रकार के युद्धों में भी आम नागरिकों, बंदियों, घायलों और यहां तक कि पशुओं और पेड़-पौधों के अधिकारों पर ध्यान देना भी इस्लाम में आवश्यक बताया गया है लेकिन मजहब के नाम पर अपनी दुकान चमकाने वाले धर्मगुरुओं और राजनेताओं ने इस्लाम की कुरान और हदीस से अलग और गलत व्याख्या कर इसे बदनाम कर दिया है जिसका खमियाजा आम मुसलमानों को भुगतना पड़ता है। दरअसल इस्लाम वह है ही नहीं जो आज के मुसलमानों को देखकर समझा जाता है। 

अगर मुस्लिम महिलाओं की बात की जाए तो शाहीन बाग और देश के अन्य हिस्सों से आने वासी खबरें बता रही हैं कि अब मुस्लिम महिलाओं को भी यह आभास हुआ है कि उन्हें मुखर होना होगा। यहां यह बात ध्यान देने की है कि पहली उम्मुल मोमिनीन हजरत खदीजा का व्यापार के क्षेत्र में खुद में एक बहुत बड़ा और सम्मानित नाम था। हजरत आयशा ने जंग में हिस्सा लिया था। हजरत बीबी फातिमा को तो महिलाओं की सरदार का लकब मिला हुआ है। तो क्या यह सब इस्लाम से बाहर की थीं? नहीं, बल्कि ये सभी पैगम्बर मोहम्मद साहिब के बताए इस्लाम का अनुसरण करती थीं। लेकिन आज के मौलवी हजरात ने इस्लाम की अपनी नई परिभाषा गढ़ ली है। कुरान की ज्यादातर आयतें महिला और पुरुष दोनों को सम्बोधित करते हुए हैं। कुरान का दृष्टिकोण दोनों के लिए समान है और यह महिला और पुरुष में भेदभाव नहीं करता। कुरान कहती है, ‘‘हमने महिला और पुरुष दोनों को एक समान आत्मा दी है, दोनों की महत्ता एक समान है।’’ शायद मुस्लिम महिलाओं ने अब जाकर इन बातों को समझा है। हालांकि मुद्दा शुद्ध राजनीतिक हो सकता है लेकिन मुस्लिम महिलाओं का सी.ए.ए., एन.आर.सी., एन.पी.आर. के मुद्दे पर शांतिपूर्ण आंदोलन में उतरना स्वागतयोग्य है।-सैयद सलमान

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