‘मेरा अम्बेदकर बनाम आपका अम्बेदकर’ वोट बैंक के खेल में फंस चुकी है राजनीति

Edited By Pardeep,Updated: 17 Apr, 2018 03:10 AM

my ambedkar versus your ambedkar is stuck in the game of vote bank politics

अम्बेदकर आज प्रचलित शब्द बन गया है। इसीलिए पिछले सप्ताह देश के संविधान के जनक के बारे में खूब शोर-शराबा सुनने को मिला। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा ‘‘हर कोई अम्बेदकर के नाम पर राजनीति करने की होड़़ करता है किंतु मेरी सरकार ने ही उन्हें सम्मान और आदर...

अम्बेदकर आज प्रचलित शब्द बन गया है। इसीलिए पिछले सप्ताह देश के संविधान के जनक के बारे में खूब शोर-शराबा सुनने को मिला। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा ‘‘हर कोई अम्बेदकर के नाम पर राजनीति करने की होड़़ करता है किंतु मेरी सरकार ने ही उन्हें सम्मान और आदर दिया है।’’ 

इस पर दलित मसीहा बसपा की मायावती ने प्रतिक्रिया व्यक्त की ‘‘भाजपा अम्बेदकर विरोधी और दलित विरोधी है।’’ दूसरी ओर उनके दुश्मन से दोस्त बने सपा के अखिलेश यादव ने अम्बेदकर की 127वीं जयंती बड़े धूम-धड़ाके से मनाई। हर कोई उनकी विरासत पर दावा कर रहा है और इस क्रम में यह ‘मेरा अम्बेदकर बनाम आपका अम्बेदकर’ बन गया है। वस्तुत: अम्बेदकर के नाम पर यह नौटंकी सभी पार्टियों का आंतरिक मामला है। हर कोई इस दलित महापुरुष से जुड़कर उनको भुनाना चाहता है क्योंकि देश में दलित समुदाय 20 प्रतिशत वोट बैंक है और यह वोट बैंक यह सुनिश्चित करता है कि भारत की राजगद्दी पर कौन बैठेगा और इस क्रम में भाजपानीत सरकार दिल्ली में उनके नाम पर दो स्मारक बना रही है, तो बसपा और सपा उत्तर प्रदेश के 90 जिलों में उनकी जयंती मना रही हैं और उनकी प्रतिमाएं बनवा रही हैं। 

कोई भी इस जातीय वोट बैंक को खतरे में नहीं डालना चाहता क्योंकि यह सत्ता की राजनीति में पहुंचने का मार्ग है। इसके चलते अम्बेदकर के नाम पर यह लड़ाई धारणा और अवधारणा की राजनीति बन गई है। फलत: भारत में जितना भी बदलाव आता है वह जस का तस बना रहता है क्योंकि जाति भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण बन गई है। जाति आज भारत में इतनी महत्वपूर्ण बन गई है कि यहां वर्ग संघर्ष नहीं अपितु जातीय संघर्ष की संभावनाएं प्रबल दिखती हैं। यहां की राजनीति में वामपंथ और दक्षिणपंथ की बजाय अगड़ा और पिछड़ा ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसके चलते देश में जातीय विभाजन और बढ़ रहा है, पर कौन परवाह करता है?

इससे एक विचारणीय प्रश्न उठता है कि क्या जातीय आधार पर बंटी, धर्म के नाम पर खंडित, वैचारिक आधार पर बनी राजनीति और दूरदर्शी नेताओं के अभाव में हमारी राजनीति क्या वास्तव में अम्बेदकर की विचारधारा को मानती है। अम्बेदकर ने कहा था कि यदि हिन्दू समाज का समानता के आधार पर पुनर्निर्माण करना है तो जाति प्रथा को समाप्त करना होगा। छुआछूत का मूल कारण ही जाति प्रथा है। देश में लगभग 3 दशक पूर्व जातीय दानव पैदा कर दिया गया था जिसका अम्बेदकर विरोध करते थे और वही आज देश को नुक्सान पहुंचा रहा है। पिछले सप्ताह इस मुद्दे ने फिर से ज्वलंत रूप लिया जब देशभर में दलित समूहों ने अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण अधिनियम 1989) में कथित बदलाव की प्रतिक्रिया में भारत बंद का आयोजन किया जिसमें राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब व दिल्ली में 10 लोग मारे गए और अनेक लोग घायल हुए क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने इस कानून के अंतर्गत दर्ज आपराधिक मामलों में स्वत: गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी। 

इस कानून का उद्देश्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के हितों की रक्षा करना है। उत्तर प्रदेश और पंजाब में दलित वोट बैंक क्रमश: 20 और 32 प्रतिशत है तथा बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान सहित हिन्दी भाषी क्षेत्रों में इनकी संख्या काफी अधिक है इसलिए हमारे राजनीतिक दल इस वोट बैंक को लुभाने का प्रयास कर रहे हैं। हर कोई अम्बेदकर की विचारधारा को गांधी की विचारधारा के विकल्प के रूप में पेश करना चाहता है क्योंकि जातीय आधार पर वोट बैंक बनाना आसान है। कश्मीर से कन्याकुमारी और महाराष्ट्र से मणिपुर तक साम्प्रदायिक और जातीय उन्माद का बोलबाला है और हर पार्टी अपनी स्वार्थी और संकीर्ण आवश्यकताओं के अनुसार इसे परिभाषित कर रही है। हर पार्टी साम्प्रदायिकता और जातीय सौहार्द की अपनी परिभाषाएं दे रही है जिससे देश में संघर्ष का वातावरण बन रहा है। 

हमारे नेता इस अलगाव के माध्यम से राजनीतिक निर्वाण प्राप्त करने में इतने व्यस्त हैं कि वे स्वयं भ्रमित हो गए हैं। राष्ट्रीय जीवन के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, शैक्षिक, न्यायिक या किसी भी क्षेत्र को लें, साम्प्रदायिकता और जातिवाद ने इनकी जड़ों को खोखला कर दिया है और आज स्थिति यह हो गई है कि हर चीज को जातीय आधार पर सोचा जाता है। राजनीति के मंडलीकरण और चुनावी राजनीति में दलित, पिछड़ा और मुस्लिम गठबंधन के उदय से हमारी राजनीति में व्यापक बदलाव आया है। अब चुनाव जातीय आधार पर लड़े जाते हैं इसलिए जातीय आधार पर धुव्रीकरण भी किया जाता है और इसी के चलते आज मतदाता पूर्णत: जातीय आधार पर मतदान करते हैं। मत पत्र के माध्यम से यह सामाजिक इंजीनियरिंग राजनीति का मुख्य आधार बन गया है। 

प्रश्न उठता है कि देश की जनसंख्या में केवल 15 प्रतिशत ब्राह्मण और ठाकुरों का राजनीति में बोलबाला क्यों रहे। इसके चलते राजनीतिक रूप से जागरूक लोग जातीय और साम्प्रदायिक स्तर पर उतर आते हैं। हमारी राजनीति में लालू, मुलायम और मायावती जैसे मेड इन इंडिया नेताओं के उदय से यह सामाजिक खाई और बढ़ी है। लालू का पिछड़ा वोट बैंक है तो मुलायम सिंह यादव मुस्लिम कार्ड खेलते हैं और मायावती दलित कार्ड खेलती हैं तथा अपने स्थानांतरण राज में उच्च जातियों के अधिकारियों के स्थान पर दलित अधिकारियों की नियुक्ति करती हैं और इस प्रकार उन्होंने इस वर्ग को नई पहचान दी है और उनके दृष्टिकोण में बदलाव लाए हैं। आज बिहार जातीय सेनाओं का युद्धस्थल लगता है। कल तक बिहार में उच्च जातियों की निजी सेना, रणवीर सेना और वामपंथी, माक्र्सवादी, माओवादी सैंटर के बीच टकराव होता था तो आज जय श्रीराम सेना मैदान में आ गई है और इसके चलते बिहार युद्धस्थल बन गया है। 

हमारे नेता इस जातीयता को समाप्त करना नहीं चाहते हैं और दीर्घकाल में इसके चलते असंतोष बढ़ेगा। शोर मचाकर या बलि का बकरा खोजकर हमारे राजनेता जातीय आधार पर राजनीतिक समीकरण बदलने का जोखिम उठाते हैं क्योंकि वे भूल जाते हैं कि जातीय प्रतिद्वंद्विता के आधार पर राजनीतिक सत्ता का खेल भी खतरनाक है और इसके चलते सारा सामाजिक सुधार आंदोलन निरर्थक बन जाएगा। यदि सामाजिक जागरूकता जातीय स्तर पर आकर समाप्त हो जाती है तो भारतीय राजनीति में विभाजनकारी जातिवाद का वर्चस्व बना रहेगा। यह सच है कि पिछड़े वर्ग की नई राजनीतिक आकांक्षाओं का संज्ञान न लेना आत्मघाती होगा किंतु जातीय और साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक सत्ता का खेल भी खतरनाक है। 

हमारे राजनेता आज जातीय शून्य-काटा के खेल में व्यस्त हैं। इसलिए यह पहचानना मुश्किल हो जाता है कि हमारा देश क्या वही देश है जिसको कभी एमरसन ने मानव-विचारों का शिखर कहा था। समय आ गया है कि हम इसमें बदलाव लाएं और एक सौहार्दपूर्ण तथा सामंजस्यपूर्ण समाज का निर्माण करें। हमारे राजनीतिक दलों को चुनावी मैदान से दूर जाकर आत्मावलोकन करना चाहिए। फिर इस समस्या का समाधान क्या है? यह सरकार पर निर्भर करता है कि क्या वह जातिवाद के इस बोझ से छुटकारा पाना चाहती है क्योंकि आज राजनीति वोट बैंक के खेल में फंस चुकी है। देखना यह है कि नए भारत के लिए विचारधाराओं के इस युद्ध में कौन विजयी होता है? 

नि:संदेह भारत इस बात का साक्षी रहा है कि सत्ता में विशेषाधिकार चुनावी प्रतिस्पर्धा के माध्यम से अंतरित होते हैं। समय आ गया है कि हर कीमत पर सत्ता प्राप्त करने की चाह रखने वाले हमारे नेता वोट बैंक की राजनीति से परे सोचें तथा इसके दीर्घकालिक परिणामों के बारे में विचार करें। यदि इस पर अभी से रोक नहीं लगाई गई तो यह हमारे लेाकतंत्र के लिए खतरा पैदा करेगा। हमारे नेताओं को अम्बेदकर के इन शब्दों पर ध्यान देना होगा ‘‘किसी विचार का उसी तरह प्रचार किया जाना चाहिए जिस तरह किसी पौधे को पानी की आवश्यकता होती है, अन्यथा दोनों ही सूखकर मर जाएंगे।’’ इसलिए अम्बेदकर की विरासत के बारे में पाखंडी सर्कस चलाने की बजाय हमें शब्दों के बजाय कार्यों पर ध्यान देना चाहिए। भारत और इसके नागरिक बेहतर शासन के हकदार हैं।-पूनम आई. कौशिश

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