Edited By Punjab Kesari,Updated: 03 Jun, 2017 12:21 AM
अयोध्या में 25 वर्ष पूर्व ढहाए गए विवादित ढांचे का मामला अभी फिर से सुर्खियों में....
अयोध्या में 25 वर्ष पूर्व ढहाए गए विवादित ढांचे का मामला अभी फिर से सुर्खियों में है। एक ओर, लखनऊ की विशेष सी.बी.आई. अदालत ने इस मामले में 12 लोगों के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत अभियोग चलाने का निर्णय दिया, वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा अयोध्या में हनुमानगढ़ी व रामलला के दर्शन के पश्चात नियमित सरयू आरती कराने की घोषणा की है।
ऐसा क्यों है कि जब-जब अयोध्या का मामला प्रकाश में आता है, तब-तब देश के तथाकथित सैकुलरिस्ट, उदारवादी और मीडिया का एक भाग, 6 दिसम्बर 1992 की घटना का वर्णन ‘भारतीय इतिहास का सबसे काला दिन’, देश पर ‘काला धब्बा’ और ‘राष्ट्रीय शर्म’ जैसी संज्ञाओं के साथ करने लगता है? निरंतर इन जुमलों को सुनने के बाद, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि हमारे समाज का एक वर्ग आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से न केवल ग्रस्त है, बल्कि गुलामी के प्रतीकों को आत्मसात भी करके बैठा है। यदि मुझे राष्ट्रीय शर्म की एक काली सूची बनाने काअवसर मिले, तो मैं निश्चय रूप से उसमें अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने की घटना को शामिल नहीं करूंगा।
हालांकि यह घटना गौरव करने लायक भी नहीं है। भारत के 70 वर्षों का इतिहास कई घटनाओं से कलंकित है, जिसके स्मरण भर से मेरा सिर शर्म सेझुक जाता है। मेरी काली सूची में सबसे ऊपर 14 अगस्त 1947 का वह दिन होगा, जब भारत का विभाजन कर और हजारों-लाखों निरपराधों के लहू से इस्लामी राष्ट्रके रूप में पाकिस्तान की भौगोलिक रेखा खींची गई थी। 30 जनवरी 1948 को गांधी जी की नृशंस हत्या। वर्ष 1962 में 20 अक्तूबर-21 नवम्बर की वह अवधि, जब चीन के हाथों भारत को शर्मनाक हार का मुंह देखना पड़ा।
1975-77 में 21 माह का वह काल, जब देश के सभी नागरिक अधिकारों का तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने गला घोंटा था। 3-6 जून, 1984 का वह समय, जब खालिस्तानी आतंकियों से निपटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को गोलियों और टैंकों से छलनी व लहूलुहान कर दिया था। 31 अक्तूबर 1984 का वह दिन, जब इंदिरा जी की उनके ही दो अंगरक्षकों ने हत्या कर दी थी। इसके परिणामस्वरूप, नवम्बर 1984 में दिल्ली सहित अन्य कई क्षेत्रों में हजारों निरपराध सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया था।
1985-86 का शाहबानो मामला, जब मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने इस्लामी कट्टरपंथियों के दबाव में रौंदा था। 1980-90 के दशक का वह दौर, जब कश्मीर में जेहादियों ने मजहबी जुनून में हिंदुओं के कई पूजा-स्थलों और मंदिरों को जलाकर राख कर दिया। कश्मीरी पंडितों को प्रताडि़त कर मौत के घाट उतार दिया, महिलाओं से बलात्कार किया, जो हिंदू-रहित घाटी का एकमात्र मुख्य कारण बना। 1991 का वह शर्मनाक वर्ष, जब भारत ने अपनी अंतर्राष्ट्रीय देनदारियों को चुकाने के लिए अपना स्वर्ण भंडार गिरवी रखा था।
6 दिसम्बर 2010 का वह दिन, जब कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने मुम्बई के 26/11 आतंकी हमले में परोक्ष रूप से पाकिस्तान को क्लीन चिट देते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर दोषारोपण किया था। इसी कालखंड में देश के छद्म-सैकुलरिस्टों ने इस्लामी कट्टरवाद-आतंकवाद को न्यायोचित ठहराने के लिए हिंदू आतंकवाद का हौवा खड़ा किया। 9 फरवरी 2016 की वह शाम, जब जे.एन.यू. ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे...इंशा अल्लाह’ जैसे नारों से गूंज उठा था, जिसे छद्म-पंथनिरपेक्षकों ने सैकुलरिज्म का चोला पहनाया। सैकुलरिस्टों की इसी जमात ने 29 सितम्बर 2016 को गुलाम कश्मीर में आतंकियों के खिलाफ भारत के सैन्य ऑप्रेशन पर भी सवाल खड़े किए। 27 मई 2017 का वह शर्मनाक दिन, जब कांग्रेस के कुछ युवा नेताओं ने केरल में सार्वजनिक रूप से गाय के बछड़े की बलि देकर गोमांस का सेवन किया।
सर्वप्रथम अयोध्या में विवादित ढांचे को गिराना कोई षड्यंत्र नहीं, अपितु कई दशकों से आहत हिंदुओं की वह भावना थी, जो 6 दिसम्बर 1992 को एकाएक अदम्य हो गई। भारत में गोकशी पर प्रतिबंध के साथ-साथ अयोध्या में भगवान श्रीराम के मंदिर का पुनर्निर्माण हिंदुओं की आस्था से संबंधित है। देश में आज भी ऐसी कई मस्जिदें व दरगाह हैं, जिनकी नींव, मंदिरों के मलबे पर टिकी होने के साक्ष्य मिले हैं। जो लोग बाबरी मस्जिद ढहाए जाने पर आज भी बवाल काट रहे हैं, वे 1985-90 के कालखंड में कश्मीर के मंदिरों को जमींदोज करने की शर्मनाक घटना पर निर्लज्जपूर्ण चुप्पी साधे हुए हैं।
भारत लगभग एक हजार वर्षों तक मुस्लिम शासन और अंग्रेजों की हुकूमत में पराधीन रहा। स्वतंत्रता के बाद से भारत सरकार ने कालांतर में गुलामी के प्रतीकों और परम्पराओं का परिमार्जन किया है। सड़कों, स्मारकों और भवनों के नाम तक परिवर्तित किए हैं। हाल ही में दिल्ली में रेस कोर्स रोड, औरंगजेब रोड और लॉर्ड डल्हौजी रोड के नाम परिवर्तित किए गए हैं। कई कानून या तो बदले गए हैं या फिर उन्हें निरस्त कर दिया गया है। इसी वर्ष 9 दशक पुरानी ब्रितानी परिपाटी को खत्म कर रेल बजट को आम बजट के साथ प्रस्तुत किया गया है। इसी तरह औपनिवेशी प्रभुत्व की निशानी और दासत्व की पहचान किंग जॉर्ज (पांचवें) की मूर्ति सहित कई प्रतिमाओं को उनके मूल स्थान से हटाकर भारत सरकार द्वारा दिल्ली में बुराड़ी स्थित कोरोनेशन पार्क में स्थानांतरित किया गया है।
दिल्ली में कोरोनेशन पार्क वह स्थान है जहां ब्रितानी शासन में ‘दिल्ली दरबार’ लगा करता था। यहां वर्ष 1911 में अंतिम दरबार तब लगा था जब किंग जॉर्ज (पांचवें) और महारानी मैरी भारत आए थे। उसी कालखंड में अंग्रेजों ने उनकी विशाल मूर्ति को इंडिया गेट के समक्ष एक छत्र के नीचे स्थापित किया था किंतु वर्ष 1960 में इस प्रतिमा को गुलामी का प्रतीक मानते हुए तत्कालीन केन्द्र सरकार के निर्देश पर मूल स्थान से हटाकर कोरोनेशन पार्क में स्थानांतरित कर दिया गया। आज भी इंडिया गेट के सामने का वह छत्र खाली है।
संसद भवन हो, राष्ट्रपति भवन हो या फिर इंडिया गेट- इन सभी स्मारकों का निर्माण भी अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में करवाया किंतु ब्रितानियों ने इसकी नींव भारत के मान-बिंदुओं और सांस्कृतिक धरोहरों को जमींदोज करके खड़ी नहीं की। किसी पंथ को उस तरह अपमानित करने के लिए नहीं किया, जिस प्रकार सातवीं शताब्दी के बाद भारत आए इस्लामी आक्रांताओं और आततायी शासकों ने किया था। 1528-29 में क्रूर मुगल शासक बाबर के कहने पर मीर बाकी ने अयोध्या में पहले से स्थापित मंदिर को तोड़कर वहां मस्जिद का निर्माण किया। वह इमारत खुदा की इबादत के लिए नहीं बनाई गई थी, बल्कि उसका निर्माण पराजित हिंदुओं को नीचा दिखाने और अपमानित करने के लिए एक विजय स्मारक के रूप में किया गया था।
1947 के रक्तरंजित विभाजन से पहले और उसके बाद, भारत में न केवल कई नई मस्जिदों का निर्माण हुआ, साथ ही पुरानी मस्जिदों का जीर्णोद्धार भी हुआ और ये सब भारत की कालजयी व सनातनी बहुलतावादी संस्कृति के कारण संभव हुआ। यदि ब्रितानी प्रभुत्व और गुलामी का प्रतीक किंग जॉर्ज की प्रतिमा भारतीय सत्ता अधिष्ठानों से बर्दाश्त नहीं हुई, तो अयोध्या में 15वीं शताब्दी में राम मंदिर तोड़कर बनाए गए अपमान रूपी स्मारक को लेकर स्यापा क्यों है? करोड़ों भारतीयों के आराध्य और इस देश की सनातन सभ्यता के प्रतीक भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर पुन: उनके जन्मस्थल पर बने, यह बहुसंख्यकों की स्वाभाविक इच्छा है। मुस्लिम समाज का एक वर्ग भी इसके पक्ष में है किंतु विकृत सैकुलरवाद के कारण इसका सर्वमान्य समाधान अब तक निकल नहीं पाया है।
यह स्थिति वामपंथी इतिहासकारों के भ्रामक प्रचार और साक्ष्यों को नकारने के कुप्रयासों का परिणाम है। आज भारत में हिंदुओं की आस्था और भावनाओं के प्रश्नों का हल कानून व नियमों की सीमा में रहकर ढूंढा जा रहा है। यदि कानून और वर्ग विशेष के जनमानस में टकराव हो तो भारतीय लोकतंत्र में कानून भी बदले जाते रहे हैं। 1986 का शाहबानो मामला इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। यह बात अलग है कि अक्सर मुस्लिमों के मजहबी मामलों में कानून लचीला और नीयत सैकुलर हो जाती है, किंतु हिंदुओं की आस्था पर कानून कठोर और भावनाएं सांप्रदायिक होती जाती हैं।