Edited By ,Updated: 14 Feb, 2019 04:50 AM
मीडिया का एक बड़ा वर्ग आने वाले लोकसभा चुनावों को मोदी बनाम राहुल प्रतिस्पर्धा के तौर पर पेश कर रहा है। यह नमो (नरेन्द्र मोदी) बनाम रागा (राहुल गांधी) प्रश्र आमतौर पर सामाजिक अंतरव्यवहारों के दौरान और यहां तक कि बिल्कुल अनजान लोगों द्वारा भी पूछा...
मीडिया का एक बड़ा वर्ग आने वाले लोकसभा चुनावों को मोदी बनाम राहुल प्रतिस्पर्धा के तौर पर पेश कर रहा है। यह नमो (नरेन्द्र मोदी) बनाम रागा (राहुल गांधी) प्रश्र आमतौर पर सामाजिक अंतरव्यवहारों के दौरान और यहां तक कि बिल्कुल अनजान लोगों द्वारा भी पूछा जाता है।
ये अंदाजे इस तथ्य के बावजूद हैं कि हमारी सरकार की संसदीय प्रणाली है न कि अमरीका की तरह राष्ट्रपति प्रणाली। उस देश में सर्वोच्च पद के लिए दो शीर्ष प्रतिस्पर्धियों की पहचान को लेकर कोई अस्पष्टता नहीं होती। भारत में हमारी संवैधानिक प्रणाली के बावजूद ऐसा दिखाई देता है कि हम व्यक्तित्व नीत राजनीतिक दलों की ओर अग्रसर हो रहे हैं और इस बात को लेकर कुछ उत्सुकता जरूर होती है कि देश का नेतृत्व कौन करेगा। हालांकि हमेशा यह मामला नहीं होता। क्या 2004 में डा. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया गया था? वह उस पद पर 10 वर्षों तक बने रहे। अथवा क्या पी.वी. नरसिम्हा राव को कभी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किया गया था? या फिर क्या देवेगौड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल तथा कुछ अन्य कभी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में थे?
भाजपा तथा इसके समर्थक निश्चित तौर पर चुनाव को मोदी तथा राहुल के बीच स्पर्धा के तौर पर पेश करना चाहेंगे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि मोदी राहुल के मुकाबले एक प्रभावशाली वक्ता तथा बेहतर संचारक हैं और दोनों के बीच अनुभव की लड़ाई में राहुल उनके मुकाबले में कहीं नहीं ठहरते, राहुल द्वारा हाल ही में उन पर आक्रामक हमलों के बावजूद, जिन्होंने प्रधानमंत्री को विभिन्न मुद्दों पर सार्वजनिक वाद-विवाद की चुनौती तक दी है।
मोदी के आगे नहीं ठहरते राहुल
मगर वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य तथा बन रहे राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए इस बात के अवसर अधिक हैं कि चुनाव के बाद न तो मोदी और न ही राहुल प्रधानमंत्री पद तक पहुंच पाएंगे। यह सुनने में अतिवादी या अस्वाभाविक लग सकता है लेकिन इसे कुछ तर्क के साथ समझाया जा सकता है। मोदी तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और उन्हें विधानसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त था। उन्होंने पूरी सख्ती के साथ शासन किया और अपने अस्तित्व के लिए वह पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं अथवा गठबंधन सांझीदारों पर निर्भर नहीं थे। इसी तरह उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान पूर्ण बहुमत के लिए गठबंधन का नेतृत्व किया। एक बार फिर उन्हें किसी बाहरी सहयोगी अथवा पार्टी नेताओं के एक वर्ग पर निर्भर होने की जरूरत नहीं थी।
पूर्ण बहुमत का लाभ
अत: उनका पूरा पिछला रिकार्ड यह दर्शाता है कि वह एक ऐसे माहौल में काम कर रहे थे जहां उन्हें पूर्ण शक्तियां हासिल थीं। शिवसेना तथा शिरोमणि अकाली दल जैसे उनके कुछ सहयोगी उनके काम करने के तरीके से खुश नहीं थे लेकिन उनके पास कोई विकल्प नहीं था क्योंकि मोदी के पास पूर्ण बहुमत है। वर्तमान परिदृश्य में व्यापक रूप से यह माना जा रहा है कि जिस पूर्ण बहुमत का भाजपा मजा उठा रही है वह आने वाले चुनावों में सम्भव नहीं है। इसका अर्थ यह होगा कि राजग सहयोगियों के पास तोल-मोल की अधिक ताकत होगी और वे कोई ऐसा नेता चाहेंगे जो उनकी बात सुने तथा उनकी मांगों को लेकर अधिक लचकदार हो। यह भी अच्छी तरह से ज्ञात है कि भाजपा और सम्भवत: राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के भी वरिष्ठ नेताओं का एक वर्ग मोदी की प्रधानमंत्री के तौर पर नियुक्ति से खुश नहीं था और यदि भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में नहीं आती तो वह नेतृत्व में बदलाव के लिए पार्टी के भीतर दबाव बना सकता है।
राहुल की सम्भावना
इसी तरह वर्तमान माहौल में राहुल गांधी के शीर्ष पद तक पहुंचने की सम्भावना भी नगण्य दिखाई देती है। उनको तभी मौका मिल सकता है यदि कांग्रेस पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लेती है, जिसकी अभी बहुत कम सम्भावना नजर आती है। उनकी करिश्माई बहन प्रियंका गांधी के प्रवेश ने मुद्दे को एक नई दिशा दी है। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस सहयोगी अथवा सम्भावित तीसरे मोर्चे के नेता प्रधानमंत्री चुनने के मामले में क्या निर्णय लेते हैं। यह लोकसभा में चुने गए उनके सांसदों की संख्या के आधार पर उनकी तोल-मोल की ताकत पर निर्भर करेगा। राजनीति की वर्तमान पतली स्थिति को देखते हुए कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों के समर्थन से एक शक्तिशाली क्षेत्रीय नेता के उदय से इंकार नहीं किया जा सकता।-विपिन पब्बी