Edited By ,Updated: 01 May, 2017 10:54 PM
छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में सी.आर.पी.एफ. के 99 जवानों पर 300 माओवादियों ने हमला किया.....
छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में सी.आर.पी.एफ. के 99 जवानों पर 300 माओवादियों ने हमला किया जिसमें 25 जवानों की मौत हुई। 2 माह से कम समय में यह दूसरा और पिछले 7 वर्षों में माओवादियों का तीसरा बड़ा हमला है। यह बताता है कि आंतरिक आतंकवाद पर अंकुश लगाने की केवल बड़ी-बड़ी बातें ही की जाती रही हैं।
इस हमले के बाद केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने शीर्ष सुरक्षा अधिकारियों की एक आपात बैठक बुलाई और कहा, ‘‘यह निर्मम हत्या बताती है कि हाल के दिनों में माओवादियों के विरुद्ध सुरक्षा बलों की कार्रवाई की सफलता के बाद वे निराश हो गए हैं।’’ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्वीट किया, ‘‘यह कायरतापूर्ण और ङ्क्षनदनीय हमला है। हमारे शहीदों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। हमने इस हमले को एक चुनौती के रूप में लिया है और वहां शासन तंत्र का इकबाल चलेगा।’’
क्या वास्तव में ऐसा है? और यदि ऐसा है तो फिर इस हमले की जिम्मेदारी क्यों नहीं तय की गई। अधिकारियों पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई? क्या सत्तातंत्र यह स्वीकार करेगा कि उसके हाथ खून से रंगे हुए हैं विशेषकर तब जब सी.आर.पी.एफ. के डी.जी.पी. ने छत्तीसगढ़ सरकार पर आरोप लगाया है कि माओवादियों के इस क्षेत्र में सड़क निर्माण में उसका रवैया ढिलमुल रहा है। हैरानी की बात यह है कि जिस इलाके में यह हमला हुआ वहां सड़क का निर्माण पिछले 3 सालों से चल रहा है।
यही नहीं, सुरक्षा बल नई प्रौद्योगिकी की मांग कर रहे हैं जिससे सड़क निर्माण में समय कम लगे और एक किलोमीटर सड़क का निर्माण केवल 2 दिनों में पूरा किया जा सके। यह प्रस्ताव पिछले 3 साल से राज्य सरकार के पास लंबित है। साथ ही पुलिस कर्मियों का कहना है कि उनकी गश्त के मार्ग का पता होने के कारण वे माओवादियों के आसानी से निशाने पर आ जाते हैं।
नक्सलवादी समस्या भारतीय राज्य में बड़े भू-भाग पर फैल गई है। यह समस्या राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव, भ्रम की स्थिति तथा नक्सल विरोधी कार्रवाई में केन्द्र और राज्य सरकारों की नरमी तथा जमीनी स्तर पर सुरक्षा बलों में समन्वय के अभाव को दर्शाती है। यह हमला इस बात को भी उजागर करता है कि नक्सलवादियों के विरुद्ध एकीकृत रणनीति और ठोस खुफिया जानकारी का अभाव है।
सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि उसकी ढिलमुल कार्रवाई से परिणाम नहीं निकलेंगे अपितु इससे सुरक्षा बलों के लिए खतरा और बढ़ जाएगा। साथ ही केन्द्र की नक्सलवादियों से निपटने की रणनीति एक कदम आगे और दो कदम पीछे वाली साबित हो रही है। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार नक्सल विरोधी रणनीति में तदर्थवाद अपनाया जा रहा है। केन्द्रीय सुरक्षा बलों पर हमले हो रहे हैं जिसके चलते केन्द्रीय बल राज्य में अग्रणी भूमिका निभाने की बजाय सहायक की भूमिका निभा रहे हैं। माओवादियों के विरुद्ध कार्रवाई में भ्रम और संचालनात्मक कमियां हैं। राज्य पुलिस तथा केन्द्रीय बल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं।
प्रश्न उठता है कि केन्द्र इस लड़ाई को कैसे लडऩा चाहता है? क्या वह नक्सलवादियों के डी.एन.ए. से परिचित है? उन्हें इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए कहां से सहायता मिलती है? क्या हमारी ठोस नक्सल विरोधी रणनीति है? क्या इस चुनौती का वास्तविक और सही मूल्यांकन किया गया है? क्या नक्सलवादी धनी को लूटकर गरीब में बांटने के सिद्धांत से प्रेरित हैं? क्या एक काल्पनिक परिणाम हिंसा को उचित ठहराएगा? क्या हिंसा लोकतंत्र के मानकों के अनुरूप है? दुखद तथ्य यह है कि सरकार को यह पता नहीं है कि इस समस्या से कैसे निपटा जाए? वर्तमान में माओवादी देश के 20 राज्यों के 223 जिलों में अपने पैर पसार चुके हैं। 7 राज्यों में कुछ जिले राज्य के नियंत्रण से बाहर हैं। कुछ क्षेत्रों में नक्सली समस्या इतनी बढ गई है कि वे लोकतंत्र को नष्ट कर अराजकता फैला सकते हैं।
इसके लिए केन्द्र और राज्य दोनों को मिलकर कार्य करना होगा और नक्सलवादियों के साथ आमने-सामने की लड़ाई करनी होगी। इस दिशा में सबसे पहले केन्द्र को इस समस्या के राजनीतिक और नौकरशाही समाधान से दूर रहना होगा तथा नक्सलवादियों के विरुद्ध कार्रवाई के लिए सुरक्षा और खुफिया विशेषज्ञों की मदद लेनी होगी। खुफिया सूत्रों के अनुसार नक्सलवादियों की योजना ग्रामीण क्षेत्रों पर कब्जा कर शहरों को घेरना है। साथ ही वे बंदूक की गोली के दम पर सामाजिक ढांचे को भी नष्ट करना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें नेपाल, चीन, पाकिस्तान की आई.एस.आई., लश्कर-ए-तोयबा तथा अन्य इस्लामी आतंकी संगठनों से नैतिक और भौतिक समर्थन मिल रहा है। उनकी महत्वाकांक्षा है कि पशुपति से तिरुपति तक एक ‘रैड कॉरीडोर’ बनाया जाए।
दुखद तथ्य यह है कि सरकार अपनी नक्सल विरोधी रणनीति में केवल भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग कर रही है। राजनीतिक सुरक्षा और विकास के मोर्चे पर इस समस्या के समाधान की बड़ी-बड़ी बातें कर रही है। सरकार यह नहीं समझ रही है कि ऐसे शब्दों से सुनियोजित रणनीति नहीं बनती है। केन्द्र सरकार नक्सलवादियों का मुकाबला अपेक्षित सुरक्षा बलों के 10 प्रतिशत नफरी के साथ कर रही है।
नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस बल के आधुनिकीकरण के लिए केन्द्र के परिव्यय का 30 प्रतिशत से अधिक जारी नहीं किया गया है। जो राशि जारी की गई है उसमें से भी केवल कुछ भाग का ही उपयोग हुआ है जिसके चलते नक्सलवाद के विरुद्ध हमारी लड़ाई धीरे-धीरे एकपक्षीय खूनी लड़ाई बनती जा रही है जिसमें युद्ध के मैदान में माओवादियों का वर्चस्व है। माओवादी इतनी सफाई के साथ हमला करते हैं कि अपने को न्यूनतम नुक्सान पर वे नागरिकों और सुरक्षा बलों को अधिकतम नुक्सान पहुंचा देते हैं और यह बताता है कि रणनीति के मामले में वे हमारे सुरक्षा बलों से काफी आगे हैं।
आदिवासी लोग यह मानते हैं कि यदि नक्सलवादी सुरक्षा बलों को मार सकते हैं तो फिर हमारा क्या होगा। इसलिए वे जाने-अनजाने नक्सलवादियों के आदेशों को मानने लगते हैं। इससे नक्सलवादी गुट हमले करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। सबसे ज्यादा प्रभावित आदिवासी हैं। छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला नक्सलवादियों का गढ़ है और यह देश के निर्धनतम जिलों में से एक है जहां पर बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं, सड़क नहीं है, चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं, आय का कोई स्रोत नहीं है और विकास शब्द का उपयोग नेताओं द्वारा केवल चुनाव के समय किया जाता है किन्तु साथ ही आदिवासियों की गरीबी के अलावा नक्सलवादी अपने षड्यंत्र को बड़ी कुशलता से आगे बढ़ा रहे हैं। 2005 में राज्य द्वारा नक्सलवादी कार्रवाई तथा सलवा जुडूम से पहले नक्सलवादी विकास कार्यों में बाधा डालकर लोगों में भय पैदा कर रहे थे।
इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक आंदोलन की आड़ में माओवादी और नक्सलवादी राजनीतिक सत्ता हड़पने का षड्यंत्र कर रहे हैं। सरकार को यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि इस विवेकहीन हिंसा को नहीं सहा जाएगा। किसी राष्ट्र का अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि वह चुनौतियों का सामना किस प्रकार करता है। क्या हमारे नेता इस बात को समझते हैं? अब गेंद नमो के पाले में है। क्या वे अपने वायदों को पूरा करेंगे?