‘नक्सली समस्या बांझ लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में छिपी है’

Edited By ,Updated: 12 Apr, 2021 03:14 AM

naxalite problem is hidden in infertile democratic processes

बस्तर में कुछ भी, किसी के बस में नहीं है। छत्तीसगढ़ सरकार और नक्सलियों के बीच 36 का आंकड़ा था, है और जो दिख रहा है वह बताता है कि आगे भी यह रिश्ता ऐसा ही रहेगा। 3 अप्रैल 2021 को वही हुआ जो इससे पहले भी कई बार, कई जगहों ...

बस्तर में कुछ भी, किसी के बस में नहीं है। छत्तीसगढ़ सरकार और नक्सलियों के बीच 36 का आंकड़ा था, है और जो दिख रहा है वह बताता है कि आगे भी यह रिश्ता ऐसा ही रहेगा। 3 अप्रैल 2021 को वही हुआ जो इससे पहले भी कई बार, कई जगहों पर हो चुका है-जिंदा इंसानों का लाशों में बदलना और फिर हमारा लाशों को गिनना। बस्तर में पैरामिलिट्री सैंट्रल रिजर्व पुलिस के अपने 22 जवानों की लाशें गिन-बटोर कर दोनों सरकारें निकल गई हैं, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की मानें तो अपने साथियों की अनगिनत लाशें दो ट्रैक्टरों में लाद कर नक्सली भी गुम हो चुके हैं। बस्तर के इलाके में सन्नाटा पसरा है। मौत जब भी जिंदगी से जीतती है तो ऐसा ही सन्नाटा पसर जाता है। 

अब वहां क्या हो रहा है? मौत के अगले झपट्टे की तैयारी-बस्तर के भीतरी जंगलों में भी और शासन के गलियारों में भी। मीडिया में कहानियां भी बहुत चल रही हैं और कयास भी बहुत लगाए जा रहे हैं। लेकिन इस बीच एक खास बात हुई है। 3 अप्रैल के खूनी मुकाबले के बाद मार-मर कर नक्सली भागे तो पुलिस के एक जवान राकेश्वर सिंह मन्हास को भी उठा ले गए। सब यही मान रहे थे कि जिसे नक्सली तब नहीं मार सके, उसे अब मार डालेंगे। 

यह भी बात फैल रही थी कि राकेश्वर सिंह को अमानवीय यंत्रणा दी जा रही है। लेकिन उस वारदात के 5 दिन बाद, नक्सलियों ने राकेश्वर सिंह को सार्वजनिक रूप से सही-सलामत, बेशर्त रिहा कर दिया। यह अजूबा हुआ जो अचानक और अनायास नहीं हुआ। जो अचानक व अनायास नहीं होता है, उसमें कई संभावनाएं छिपी होती हैं। उन संभावनाओं को पहचानने की आंख हो और उन संभावनाओं को साकार करने का साहस हो तो बहुत कुछ असंभव संभव हो जाता है। ऐसी आंख व ऐसा साहस राज्य के पास है, ऐसा लगता तो नहीं है। पर यह भी सच है कि जो लगता नहीं है, वह होता नहीं है, यह सच नहीं है। आंखें खुलने और साहस जागने का क्षण कब आ जाए, कोई कह नहीं सकता है। 

3 अप्रैल की घटना के बाद सदा-सर्वदा चुनाव-ज्वरग्रसित गृहमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री ने मीडिया से जो कुछ कहा और जिस मुखमुद्रा में कहा, वह अंधकार पर काली स्याही उंडेलने से अधिक कुछ नहीं था। आंतरिक असंतोष से निपटने में युद्ध की भाषा, धमकी का तेवर और सत्ता की हेंकड़ी कुछ नहीं करती। आपके भीतर के बंजर और भयभीत मन की चुगली खाती है। 

नक्सली समस्या हमारे वक्त की वह ठोस हकीकत है जिसकी जड़ें विफल सरकार, असंवेदनशील प्रशासन, बांझ लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में छिपी है। जब राजनीति का स्वार्थी, क्रूर और  संवेदना शून्य घटाटोप घिरता है तब सामान्य असमर्थ नागरिक बिलबिला उठता है। वह भटक जाता है, भटका लिया जाता है और फिर सब कुछ हिंसा-प्रतिहिंसा के चक्रव्यूह में फंस जाता है। अगर कहीं कोई संभावना बनती है तो वह हिंसा-प्रतिङ्क्षहसा के इस विषचक्र को तोडऩे से बनती है। सिपाही राकेश्वर सिंह की रिहाई इसकी तरफ ही इशारा करती है। हम इस इशारे को समझें। 

आप सोच कर देखिए कि यदि 3 अप्रैल की वारदात में कोई नक्सली ‘राकेश्वर सिंह’ पुलिस के हाथ लग गया होता तो क्या उसकी ऐसी बेशर्त व बे-खरोंच रिहाई की जाती? एक तरफ हर तरह की ङ्क्षहसा और मनमानी का लाइसैंस लिए बैठी सत्ता है, दूसरी तरफ गुस्से से भरी असहाय आदिवासी जनता है। ऐसे में हिंसा का दर्शन मानने वाला कोई संगठन उन्हें बतलाता-सिखलाता है कि इनसे इनका रास्ता अपना कर ही बदला लेना चाहिए, तो आदिवासियों की छोडि़ए, हम या आप भी क्या करेंगे? उबल पड़ेंगे और रास्ता भटक जाएंगे तो क्या जवाब में राजसत्ता भी ऐसा ही करेगी? अगर राजसत्ता भी ऐसी ही आदिवासी मानसिकता से काम लेगी तो ङ्क्षहसा और भटकाव की यह शृंखला टूटेगी कैसे? 

जवाब धर्मपाल सैनी व उनके सहयोगियों ने दिया है। उन्हें छत्तीसगढ़ सरकार की सहमति व प्रोत्साहन प्राप्त था लेकिन सारा नियोजन तो धर्मपाल सैनी का था। धर्मपाल सैनी कौन हैं? बस्तर या छत्तीसगढ़ के नहीं हैं लेकिन पिछले 40 से अधिक सालों से बस्तर को ही अपना संसार बना कर, वहीं बस गए हैं। बस्तर के घरों में ‘ताऊ’ तथा बाहर ‘बस्तर के गांधी’ नाम से खूब जाने-माने जाते हैं। आचार्य विनोबा भावे के शिष्य, 92 वर्षीय धर्मपाल सैनी जब युवा थे तब किसी प्रसंगवश उमग कर छत्तीसगढ़ जाकर काम करने की सोची। अनुमति लेने विनोबा के पास गए तो विनोबा ने मना कर दिया। युवा धर्मपाल के लिए यह समझ के बाहर था कि विनोबा लोगों की भलाई का काम करने से उन्हें रोक क्यों रहे हैं? जब दोबारा अनुमति मांगी तो विनोबा ने उनसे ही एक वचन मांग लिया, ‘‘अगर वहां जाने के बाद 10 सालों तक वहीं खूंटा गाड़ कर रहने की तैयारी हो तो मेरी अनुमति है।’’

धर्मपाल ने अपना जीवन ही वहां गाड़ दिया। यह कहानी इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि किसी का गुणगान करना है। इसलिए लिख रहा हूं कि हम भी और राज्य भी  यह समझें कि अङ्क्षहसा जादू की छड़ी नहीं है, समाज विज्ञान और मनोविज्ञान की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। हम देखते ही तो हैं कि रेगिस्तान में बारिश का पानी बहता नहीं, धरती में जज्ब हो जाता है। प्रताडि़त-अपमानित निरुपाय लोगों को जहां और जिससे सहानुभूति, समर्थन व न्याय की आस बनती है, वे उसे जज्ब कर लेते हैं। विनोबा या जयप्रकाश के चरणों में चंबल के डाकू समर्पण करते हैं तो यह कोई चमत्कार नहीं, विज्ञान है। रास्ते कभी बंद नहीं होते, बंद होती हैं हमारी आंखें। बस्तर के नक्सलियों ने हमारी आंखें खोलने का माहौल बनाया है।-कुमार प्रशांत 
 

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