जहरीली धुंध का चैम्बर बन गया एन.सी.आर.

Edited By ,Updated: 07 Nov, 2016 01:22 AM

ncr became poisonous mist chamber

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में जहरीली धुंध ने होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मची...

(विनीत नारायण): राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में जहरीली धुंध ने होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मची है। आंखों को उंगलियों से रगड़ते और खांसते लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है। केन्द्र और दिल्ली सरकार किंकत्र्तव्यविमूढ़ हो गई हैं। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। 17 साल पहले भी ऐसी ही हालत दिखी थी। तब क्या सोचा गया था? और अब क्या सोचा जाना है? इसकी जरूरत आन पड़ी है।

पर्यावरण विशेषज्ञ और संबंधित सरकारी विभागों के अफसर पिछले 48  घंटों से सिर खपा रहे हैं। उन्होंने अब तक के अपने सोच-विचार का नतीजा यह बताया है कि खेतों में फसल कटने के बाद जो ठूंठ बचते हैं उन्हें खेतों में जलाए जाने के कारण यह धुआं बना है जो एन.सी.आर. के ऊपर  छा गया है। लेकिन जब सवाल यह उठता है कि यह तो हर साल ही होता है तो नए जवाबों की तलाश हो रही है।

दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण को हम 2-3 साल से सुनते आ रहे थे। एक से एक सनसनीखेज वैज्ञानिक रिपोर्टों की बातें हमें भूलनी नहीं चाहिएं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा-कर्कट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि पूरा का पूरा यह कूड़ा कहां ङ्क्षफकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तारण यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को चोरी-छुपे जलाने के अलावा चारा क्या बचता होगा? इस गैर-कानूनी हरकत से उपजे धुएं और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है इसका हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है।

सांख्यिकी की एक अवधारणा है कि कोई भी प्रभाव किसी एक कारण से पैदा नहीं होता। कई कारण अपना-अपना प्रभाव डालते हैं और वे जब एक साथ जुड़कर प्रभाव दिखने लायक मात्रा में हो जाता है तो वह अचानक दिखने लगता है। दिल्ली में अचानक 17 साल का रिकार्ड तोड़ती जहरीली धुंध इसी संचयी प्रभाव का नतीजा हो सकती है। खेतों में ठंूंठ जलाने का बड़ा प्रभाव तो है ही लेकिन चोरी-छुपे घरों से निकला कूड़ा जलाना, दिल्ली में चकरडंड घूम रहे वाहनों का धुआं उडऩा, हर जगह पुरानी इमारतों को तोड़कर नई-नई इमारतें बनते समय धूल उडऩा, घास और हरियाली का  दिन-ब-दिन कम होते जाना और ऐसे दसियों छोटे-बड़े कारणों को जोड़कर यह प्राणांतक धुंध तो बनेगी ही बनेगी।

इस आपात बैठक के सोच-विचार का बड़ा रोचक नतीजा निकला है। खासतौर पर लोगों को यह सुझाव देना कि वे ज्यादा जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें, की सार्थकता को विद्वान लोग ही समझ और समझा सकते हैं। वे ही बता पाएंगे कि क्या यह सुझाव किसी समाधान की श्रेणी में रखा जा सकता है? एक कार्रवाई सरकार ने यह की है कि 5 दिनों के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है। सिर्फ निर्माण कार्य का धूल धक्कड़ ही तो भारी होता है जो बहुत दूर तक ज्यादा असर नहीं डाल पाता। कारों पर ऑड-ईवन की पाबंदी फौरन लग सकती थी लेकिन हाल ही का अनुभव है कि यह कुछ अलोकप्रिय हो गई थी सो इसे फौरन फिर से चालू करने की बजाय आगे की सोच-विचार के लिए छोड़ दिया गया। हां, कूड़े-कचरे को जलाने पर कानूनी रोक को सख्ती से लागू करने पर सोच-विचार हो सकता था लेकिन इससे यह पोल खुलने का अंदेशा रहता है कि यह कानून शायद  सख्ती से लागू हो नहीं पा रहा है। साथ ही यह पोल खुल सकती थी कि ठोस कचरा प्रबंधन के ठोस काम दूसरे प्रचारात्मक कामों की तुलना में ज्यादा खर्चीले हैं।

बहरहाल व्यवस्था के किसी भी विभाग या स्वतंत्र कार्यकत्र्ताओं की तरफ से कोई भी ऐसा सुझाव सामने नहीं आया है जो जहरीली धुंध का समाधान देता हो। वैसे भी भाग्य पर निर्भर होते जा रहे भारतीय समाज में हमेशा से ही कुदरत का आसरा रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि हवा चल पड़ेगी और सारा धुआं और जहरीली धुंध उड़ाकर कहीं ओर ले जाएगी। 
यानी अभी जो अपने कारनामों से राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जहरीला धुआं फैलाया जा रहा है उसे शेष भारत से आने वाली हवाएं हल्का कर देंगी और आगे भी करती रहेंगी।

वक्त के साथ हर समस्या का समाधान खुद-ब-खुद हो ही जाता है यह सोचने से  हमेशा ही काम नहीं चलता। जल, जंगल और जमीन का बर्बाद होना शुरू हो ही गया है, अब हवा की बर्बादी का शुरू होना एक गंभीर चेतावनी है। 

यह ऐसी बर्बादी है कि यह अमीर-गरीब का फर्क नहीं करेगी।  महंगा पानी और महंगा आर्गैनिक फूड धनवान लोग खरीद सकते हैं लेकिन साफ हवा के सिलैंडर या मास्क या एयर प्यूरीफायर वायु प्रदूषण का समाधान नहीं दे सकते। इसीलिए सुझाव है कि विद्वानों और विशेषज्ञों को समुचित सम्मान देते हुए उन्हें विचार के लिए आमंत्रित कर लिया जाए। खासतौर पर फोरैंसिक साइंस की विशेष शाखा यानी विष विज्ञान के विशेषज्ञों का समागम तो फौरन ही आयोजित करवा लेना चाहिए। यह समय इस बात से डरने का नहीं है कि वे व्यवस्था की खामियां गिनाना शुरू कर देंगे। जब खामियां जानने से बचेंगे तो समाधान ढूंढेंगे कैसे?  

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