‘राजग-2’ की बजाय ‘यू.पी.ए.-3’ की छवि प्रस्तुत करती मोदी सरकार

Edited By ,Updated: 27 Feb, 2016 01:42 AM

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वित्त मंत्री के रूप में अरुण जेतली सोमवार को अपना तीसरा बजट प्रस्तुत करने की तैयारी कर रहे हैं। इसी बीच उन्हें सलाह देने वालों की बाढ़-सी आ गई है।

(सदानंद धूमे): वित्त मंत्री के रूप में अरुण जेतली सोमवार को अपना तीसरा बजट प्रस्तुत करने की तैयारी कर रहे हैं। इसी बीच उन्हें सलाह देने वालों की बाढ़-सी आ गई है। कोई उन्हें मध्यम वर्ग पर टैक्स कम करने की सलाह दे रहा है तो कोई गैस मूल्य को तर्कसंगत बनाने और कोई टैलीकॉम स्पैक्ट्रम राजस्व का सही ढंग से हिसाब-किताब रखने का परामर्श दे रहा है। 

परन्तु आम लोगों की जिन्दगी और कम्पनियों के भविष्य को सीधे रूप में प्रभावित करने वाले इन विशिष्ट सुझावों की धुंध में सरकार को दरपेश कुंजीवत मुद्दे गुम नहीं होने चाहिएं। कड़वी सच्चाई के रूप में कहा जाए तो इस बजट का इतना महत्व पॉलिसी रोड मैप के रूप में नहीं जितना राजनीतिक संदेश के रूप में होगा। एक या दूसरे ढंग से इसे एक महत्वपूर्ण प्रश्र का उत्तर देना ही होगा : क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक आर्थिक सुधारक हैं? 

 
यह सवाल पूछा जाना ही एक ऐसे नेता के प्रखर पुनर्मूल्यांकन का संकेत देता है, जिसे 2 वर्ष से भी कम समय पूर्व अर्थव्यवस्था को पुन: पटरी पर लाने के लिए चुना गया था। उस समय व्यवसायियों और आर्थिक विशेषज्ञों दोनों  में से अधिकतर का यह मानना था कि मोदी ही वह अक्सीर (हर रोग की दवा) हैं, जिसकी भारत को जरूरत है। तब से अब तक बहुत से आशावादी लोग धीरे-धीरे संशयवादी बन गए हैं। सरकार ने निश्चय ही ढेर सारे काम किए हैं, जिनमें से कुछेक सचमुच मूल्यवान हैं, लेकिन अभी तक मोदी ने भारत के 2 महान सुधारक प्रधानमंत्रियों पी.वी. नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी जैसी दार्शनिक स्पष्टता नहीं दिखाई। 
 
न राव और न ही वाजपेयी मुक्त बाजार व्यवस्था के सिद्धांतकार थे। दोनों ने ही यह भांप लिया था कि सरकार के हर मामले में निर्णायक भूमिका को कुछ उलटा घुमाने में ही देश की खुशहाली की कुंजी छिपी रही है अथवा जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की गलतियों को सुधारना होगा क्योंकि इन्हीं के चलते भारत गरीबी में जकड़ा रहा है, जबकि पूर्वी एशिया के देश हमसे बहुत आगे निकल गए हैं। राव ने औद्योगिक लाइसैंसिंग नीति को रद्द करके आयात-निर्यात और चुंगी तथा शुल्कों में भारी कटौती करके ऐसे क्षेत्रों में भी प्राइवेट सैक्टर के लिए जगह पैदा की, जिनके गिर्द कभी सरकार ने घेराबंदी कर रखी थी। 
 
राव के बाद वाजपेयी ने उनकी विरासत को बहुत प्रभावी ढंग से जारी रखा और उनसे भी अधिक तेज गति से आॢथक सुधारों को आगे बढ़ाया। वाजपेयी ने दूरसंचार नीति में सुधार करते हुए तयशुदा लाइसैंस फीस के स्थान पर ‘राजस्व भागीदारी’ (रैवेन्यू शेयरिंग) की नीति अपनाई, जो सीधे तौर पर भारत में मोबाइल फोन क्रांति के लिए जिम्मेदार है। उनकी नागरिक विमानन नीति ने प्रतिस्पर्धा में बढ़ावा किया और लाखों भारतीयों के लिए हवाई यात्रा एक सुखद अनुभव बन गई। उनके नेतृत्व में राजग सरकार ने वित्तीय दायित्व अधिनियम लागू करके सरकार की बचतों में बढ़ौतरी की। उस समय के लिए उनकी सरकार ने ऐसी संभावनाएं जगाईं कि भारत के उजाड़ू राजनीतिज्ञों पर अब अंकुश लग सकेगा। 
 
वाजपेयी की सजग चौकसी के चलते सड़क निर्माण में बहुत तेजी आई और स्वतंत्रता के बाद पहली बार सरकार ने भ्रष्ट और भारी-भरकम नौकरशाही वाले पब्लिक सैक्टर वाली अर्थव्यवस्था में से उभरते हुए एक बार फिर से नई ऊंचाइयां छुईं। राजग ने बेकरी, दूरसंचार, होटल, खनिज पदार्थ तथा उर्वरक जैसे अलग-अलग क्षेत्रों में दर्जनों कम्पनियों का निजीकरण किया। 
 
बेशक ब्रिटेन की मारग्रेट थैचर और दक्षिण अमरीकी देश चिल्ली की तुलना में भारत की उपलब्धि बहुत ही मामूली-सी महसूस होती है, फिर भी भारत के लिए वाजपेयी द्वारा चलाया गया निजीकरण अभियान क्रांतिकारी सिद्ध हुआ। 2004 में राजग की सनसनीखेज पराजय भारत के आर्थिक इतिहास में एक निर्णायक मोड़ के रूप में याद की जाएगी। 
 
राजग के स्थान पर सत्तासीन होने वाला यू.पी.ए. अपने दिल की गहराइयों में इस अवधारणा का प्रतिनिधित्व नहीं करता था कि भारतीय सुधार अभी-अभी शुरू हुए हैं बल्कि इसका मानना तो था कि किसी न किसी रूप में सुधारों की गति जरूरत से बहुत अधिक तेज चल रही है। नतीजा यह हुआ कि अगले 10 वर्षों के दौरान निजीकरण की प्रक्रिया को ब्रेक ही लगी रही। वित्तीय जिम्मेदारी को भी फालतू की चीज समझकर दरकिनार कर दिया गया। जिम्मेदारी भरी ऋण संस्कृति विकसित करने की आशाओं पर इसने उस समय पानी फेर दिया जब बड़े स्तर पर कर्जा माफी का कार्यक्रम शुरू किया गया। 
 
मौखिक तौर पर सुधार की बातें करने के बावजूद समय बीतने के साथ-साथ व्यापक और गैर-उपजाऊ कल्याणकारी कार्यक्रम ही यू.पी.ए. शासन की परिभाषा बन गए। ‘नरेगा’ में इस हद तक भ्रष्टाचार हुआ कि सुरजीत भल्ला जैसे अर्थशास्त्री ने इसे दुनिया का चौथा सबसे भ्रष्ट संस्थान करार दिया। सितम की बात तो यह है कि यह रोम-रोम भ्रष्ट कार्यक्रम ही यू.पी.ए. सरकार का केन्द्रीय एजैंडा था। 
 
हर पांचवां भारतीय गरीबी रेखा से नीचे रह रहा है, लेकिन यू.पी.ए. सरकार ने सावधानीपूर्वक ऐसे लोगों की शिनाख्त करके उन पर लक्षित कार्यक्रम चलाने की बजाय भारी-भरकम खाद्य सुरक्षा विधेयक के माध्यम से दो-तिहाई जनता को ही रियायतों के भाड़े पर लगा दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि ‘समावेशी विकास’ जोकि मानवीय इतिहास में सबसे बड़ा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम सिद्ध हो सकता था, उस पर हर तरह  की आशंकाएं उठने लगीं। 
 
हैरानी की बात नहीं कि जब तक लंगड़े पांव चल रही भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी तथा आर्थिक विकास को शिथिल कर देने वाली यू.पी.ए. सरकार के गद्दी छोडऩे का समय आया, तब तक भारत की दुनिया में छवि ऐसी बन चुकी थी कि वह ‘पांच सबसे कमजोर’ अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। 
 
ऐसे परिदृश्य में मोदी ने हमारी पीढ़ी का सबसे भारी-भरकम जनादेश  हासिल करते हुए सत्ता पर दावा ठोका।  लेकिन जिन लोगों को उम्मीद थी कि 1991 और 2004 के बीच का सुधारों का दौर भारत में फिर से लौट आएगा, उन्हें निराशा ही हाथ लगी। वर्तमान साक्ष्यों के आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि मोदी सरकार ‘राजग-2’ की बजाय ‘यू.पी.ए.-3’ की छवि अधिक प्रस्तुत करती है, बेशक इसके अन्तर्गत यू.पी.ए. दौर के सर्वव्यापी भ्रष्टाचार की बदबू दिखाई नहीं देती। 
 
फिर भी इसका अभिप्राय यह नहीं कि मोदी सरकार ने कोई सही काम किया ही नहीं। इसने बीमा तथा रक्षा क्षेत्रों में विदेशी निवेश के लिए अधिक दरवाजे खोले हैं, रेलवे में नई स्फूर्ति भरी है, सड़क निर्माण के काम में बहुत तेजी आई है और रसोई गैस पर दी जा रही सबसिडी भी कम की गई है। ऊर्जावान प्रधानमंत्री ने वैश्विक स्थितियां खुशगवार न होने के बावजूद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को काफी उत्साहित किया है। 
 
फिर भी सुधारकों को प्रशासकों से भिन्न दिखाने वाले केन्द्रीय सवाल-यानी कि अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका कम करने-के मुद्दे पर मोदी की नीतियां असमंजस भरी हैं। 
 
‘मनरेगा’ और खाद्य सुरक्षा जैसी यू.पी.ए. की धन उजाड़ू योजनाओं का गला घोंटने की बजाय मोदी ने इनको खुद गले लगा लिया है। सरकारी दावों के बावजूद निजीकरण का कार्यक्रम पर्याप्त तेजी से आगे नहीं बढ़ रहा। वित्तीय समावेषण, गरीबों के लिए पैंशन, छोटे उद्यमियों के लिए ऋण जैसी मोदी की कुंजीवत पेशकदमियां या तो नौकरशाही के रहमो करम पर निर्भर हैं या फिर पब्लिक सैक्टर कम्पनियों की बेहतर कारगुजारी पर। वास्तव में प्रधानमंत्री बाजार व्यवस्था के अदृश्य हाथ की बजाय भारतीय प्रशासकीय सेवा (आई.ए.एस.) के भारी मुक्के को ही प्राथमिकता दे रहे हैं।
 
शायद सोमवार को जेतली वित्तीय जिम्मेदारी और गहरे संरचनात्मक सुधारों के वाजपेयी के सफल फार्मूले की ओर लौटने का संकेत देंगे, लेकिन अब तक के साक्ष्यों के आधार पर किसी बहुत बड़ी उम्मीद की संभावना नहीं।           
 

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