जघन्य अपराधों के प्रति ‘खौफ’ की भावना पैदा करने की जरूरत

Edited By Punjab Kesari,Updated: 29 Dec, 2017 03:45 AM

need to create a sense of fear against heinous crimes

मेरी नजरों में महिला सशक्तिकरण आज एक ऐसा शब्द है जिसे बहुत बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है- चाहे राजनीतिक हलके हों या एन.जी.ओ. या फिर कोई कार्य स्थल। एन.जी.ओ. वाले तो महिला सशक्तिकरण के बारे में कुछ अधिक ही शोर मचाते हैं। मुझे खुशी है कि सरकार ने...

मेरी नजरों में महिला सशक्तिकरण आज एक ऐसा शब्द है जिसे बहुत बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है- चाहे राजनीतिक हलके हों या एन.जी.ओ. या फिर कोई कार्य स्थल। एन.जी.ओ. वाले तो महिला सशक्तिकरण के बारे में कुछ अधिक ही शोर मचाते हैं। मुझे खुशी है कि सरकार ने बहुत-सी ‘फ्रॉड’ एन.जी.ओ. बंद करवा दी हैं। 

लेकिन ‘महिला सशक्तिकरण’ शब्द का तात्पर्य क्या है? क्या किसी को इसकी समझ है? दुनिया भर में हम यौन उत्पीडऩ के मामलों के समाचार सुनते हैं। महिलाओं से छेड़छाड़ और बलात्कार के मामले हमारा मुंह चिढ़ाते हैं। पता नहीं किस-किस ढंग से ऐसे घटनाक्रमों का किसी बालिका पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है। इस संबंध में जागरूकता से क्या कोई उपलब्धि हो रही है? 5 वर्षीय बालिका अथवा दुधमुंही बच्ची से लेकर 80 वर्षीय बुढिय़ा तक अपने पड़ोसियों के हाथों दुष्कर्म की शिकार हो रही हैं और सामूहिक बलात्कार रोजमर्रा की घटना बनते जा रहे हैं। कितनी शॄमदगी की बात है कि मैं अपनी पोती को भी किसी पुरुष रिश्तेदार के साथ कहीं भेजने से पहले 2 बार सोचती हूं। क्या मुझे उस रिश्तेदार की आंखों में कामुकता और हवस दिखाई देती है या फिर यह मेरी कपोल कल्पना मात्र है? 

आज हमारे देश में एक महिला रक्षा मंत्री के अलावा स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी जैसी नेत्रियां हैं। कुछ ही वर्ष पहले एक महिला प्रतिभा पाटिल हमारी राष्ट्रपति भी रह चुकी हैं। महिला लोकसभा की अध्यक्ष बन गई है और कई महिलाएं मुख्यमंत्री के पद तक पहुंच चुकी हैं। पंचायतों में भी आज महिलाओं की काफी संख्या है। फिर भी सवाल पैदा होता है कि क्या दुनिया महिलाओं के लिए पहले से बेहतर हो गई है? जब भी मैं टी.वी. पर बहुत आत्मविश्वास से भरी हुई किसी महिला को देखती हूं,उसके मुंह से निकलने वाले प्रभावशाली शब्दों को सुनती हूं तो मैं खुद से यह सवाल दोहराती हूं। आज भी मुझे अपने घर की महिलाओं और लड़कियों के बारे में भय सताता रहता है-चाहे वह हमारी नौकरानी हो या कोई रिश्तेदार अथवा मेरी बेटी या पोती। 

इन सबसे बड़ी बात यह है कि मुझे अपने पोते-पोतियों को स्कूल भेजते हुए भी डर लगता है। गुडग़ांव  के रियान स्कूल में एक 5 वर्षीय बच्चे की हत्या अकल्पनीय बात है। 10वीं कक्षा का एक छात्र केवल परीक्षा स्थगित करवाने के लिए एक बच्चे की नृशंस हत्या कैसे कर पाया? एक 5 वर्षीय लड़का अपनी ही सहपाठिन के प्राइवेट पार्ट में पैंसिल घुसेड़ देता है। ऐसे कुकृत्य उन स्कूलों में हो रहे हैं जहां समाज के संभ्रांत और अभिजात्य वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। दिल्ली की डिफैंस कालोनी में उच्च वर्ग के एक बहुत उच्च पदस्थ और अच्छे पढ़े-लिखे परिवार के बेटे ने अपनी दादी को बालों से पकड़ कर उसकी पिटाई की और दीवार से उसका सिर पटक दिया। प्रादेशिक स्तर की एक पढ़ी-लिखी निशानेबाज ने अपनी मां और भाई पर गोली चला दी। आपको ऐसी बातें बेहूदगी भरी व अविश्वसनीय लगेंगी लेकिन ऐसी सभी बातें सच हैं। 

ऐसा कहा जाता है कि एक निर्भया मामले के कारण शीला दीक्षित को गद्दी से हाथ धोने पड़े। वीरभद्र सिंह केवल एक गुडिय़ा मामले के कारण चुनाव हार गए लेकिन भारत में हजारों गुडिय़ा और निर्भया हैं जिनके बारे में कभी चर्चा नहीं होती और न ही कोई समाचार छपता है। एक-आध मामले को मीडिया में बहुत अधिक तूल मिल जाने के बावजूद महिला का कोई भला नहीं होता। जब हम बड़े हो रहे थे तो हमें स्कूल में नैतिक विज्ञान (मॉरल साइंस) पढ़ाया जाता था। आज की स्वार्थ में अंधी दुनिया में कृतज्ञता की कोई भावना नहीं। झूठ, सच, फरेब सब कुछ चलता है जिस भी बात से किसी का उल्लू सीधा होता है वह किसी न किसी तरह अंजाम दी जाती है। आज हमारे राजनीतिज्ञ भी कोई झूठी अफवाह अथवा कहानियां फैलाने और प्रतिबंधियों से हिसाब चुकता करने के लिए सत्ता का दुरुपयोग करने से पहले थोड़ा-बहुत भी चिंतन-मनन नहीं करते। हम खौफ की दुनिया में जी रहे हैं। लोग न केवल सार्वजनिक रूप में बल्कि प्राइवेट रूप में भी अपना मुंह खोलने से डरते हैं। यहां तक कि ट्विटर और व्हाट्सएप पर भी अपने विचार व्यक्त करने से खौफ खाते हैं। 

ऐसे में सवाल पैदा होता है कि आजादी कहां है? महिलाएं आज किसी भी तरह के उत्पीडऩ के विरुद्ध नहीं बोल पातीं। आपको कभी यह पता ही नहीं चलता कि अपराधी लोग इतने शक्तिशाली और साधन-सम्पन्न हो सकते हैं। आप क्या पहनते हैं, आपने किसी को क्या इशारा किया? या आप क्या काम कर रहे हैं- ऐसी सब बातों को लेकर आपकी अपराधियों की तरह तफ्तीश होती है। मैं यह नहीं कहती कि आजकल की महिलाएं सती-सावित्रियां हैं। कई एक तो उच्च पदों पर पहुंचने के लिए सही समय पर सही शब्द प्रयुक्त करने के साथ-साथ अपने यौन आकर्षण का भी भरपूर लाभ लेती हैं। दहेज और यौन उत्पीडऩ के पता नहीं कितने मामले केवल पतियों और ससुरालियों को सबक सिखाने के लिए ही चल रहे हैं। 

मन में हताशा की भावना उस वातावरण, परवरिश और सामाजिक दायरे में से पैदा होती हैं जिसमें हम पलते-बढ़ते हैं। लोग मनोचिकित्सकों के पास जाने से केवल इसलिए डरते हैं कहीं लोग उन्हें पागल न समझ लें। वे यह महसूस नहीं करते कि यह भी किसी अन्य रोग की तरह एक रोग है और यदि आप विषादग्रस्त हैं या किसी बुरी आदत के शिकार हैं तो डाक्टर से सहायता लेना कोई शर्म की बात नहीं। यौन हताशा अनेक प्रकार के अपराधों जैसे बलात्कार, छेड़छाड़ इत्यादि का मार्ग प्रशस्त करती है जिसके चलते न तो आप परिवार के अंदर सुरक्षित रह पाती हैं और न परिवार के बाहर। 

क्या वेश्यावृत्ति को वैध करार देने से इस स्थिति में कोई लाभ होगा? मेरा मानना है कि ऐसा करना हितकर होगा क्योंकि ये सभी हताश पुरुष फिर वेश्याओं के पास जाकर पैसे खर्च करके अपनी भड़ास निकाल सकते हैं। अब तो देश में मैट्रो स्टेशनों तक पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ होती है। पुरुष न केवल उनके साथ बहुत घटिया ढंग से दुव्र्यवहार करते हैं बल्कि निर्लज्जता की सभी सीमाएं पार करते हुए उन्हें निर्वस्त्र करने तक चले जाते हैं। 

जिन परिवारों को अपने लड़कों में हताशा, विषाद, आक्रामकता इत्यादि जैसे असामान्य व्यवहार की भनक मिले उन्हें तत्काल चिकित्सीय सहायता लेनी चाहिए, खास तौर पर ऐसे अभिभावकों को जो काम-धंधे में व्यस्तता के कारण घर से बाहर या बच्चों से दूर रहते हैं। ऐसे माता-पिता अपने बच्चे घर के नौकर-नौकरानियों की देखरेख में छोड़ कर जाते हैं। चिकित्सीय परिभाषा में कहा जाता है जो अप्रतिम स्निग्धता, वात्सल्य और करुणा माता-पिता के स्पर्श में होती है वह किसी अन्य के मामले में महसूस नहीं होती है। यहां तक कि माता-पिता की त्यौरी भी गैर-लोगों से अलग तरह की होती है। बच्चों के साथ अधिक से अधिक समय बिताना ही उनकी बेहतरीन सुरक्षा है। बच्चों को नीचा मत दिखाएं।

यदि वे कक्षा में फेल हो जाते हैं तो एक वर्ष बर्बाद हो जाना कोई बड़ी बात नहीं लेकिन इसके बावजूद बच्चों को अपमानित नहीं करना चाहिए और न ही उन्हें हतोत्साहित किया जाए। यही बात उनमें हताशा और निराशा को जन्म देती है। बच्चों पर आग-बबूला होने की बजाय उन्हें बचपन से हमारे परम्परागत संस्कार सिखाए जाएं। बड़े होकर उन्हें अपने बूते पर ही बाहरी दुनिया से निपटना होगा। राजनीतिज्ञ बेशक महिला सशक्तिकरण के बारे में बातें करते नहीं थकते, लेकिन पारिवारिक जीवन मूल्यों और संस्कारों से बढ़कर कोई चीज नहीं।

महिलाओं को शीर्ष पदों पर सुशोभित करने से भी जमीनी स्तर पर कोई सहायता नहीं मिलेगी। इसलिए महिला सशक्तिकरण गांवों में होना चाहिए। उन्हें वित्तीय रूप में सुरक्षित करने के साथ-साथ आत्मविश्वास और दिलेरी से भरना चाहिए। ऐसा तभी हो सकेगा, यदि डाक्टरों, अध्यापकों और पुलिस अफसरों में मौजूद महिलाएं पूर्ण समर्पण की भावना से और एक-दूसरे से घनिष्ठता बनाकर काम करें। यदि दीपिका पादुकोण टैलीविजन पर आकर यह कह सकती हैं कि उन्हें डिप्रैशन में से गुजरना पड़ा तो मैं मानती हूं कि यह एक बहुत साहस भरा कदम है और हम सभी ऐसा कदम उठा सकती हैं। 

छेड़छाड़ और बलात्कार के मामलों के लिए कम से कम सजा आजीवन कारावास होनी चाहिए। मैं तो पूरी तरह इस पक्ष में हूं कि बलात्कारियों को नपुंसक बना दिया जाए। आज अवयस्क भी बलात्कार जैसे अपराधों में संलिप्त हैं और उन्हें वयस्कों की तरह ही दंड दिया जाना चाहिए। मेरी बात पर विश्वास करें कि इससे निश्चय ही सहायता मिलेगी। यदि अदालतें बलात्कार  जैसे 2-3 मामलों में भी वयस्कों और अवयस्कों को एक जैसा कठोर दंड दें तो समाज को सुरक्षित बनाने के लिए इसका दूरगामी प्रभाव होगा। जघन्य अपराधों के प्रति खौफ की भावना पैदा किए जाने की जरूरत है न कि भारतीयों के विचारों की स्वतंत्रता के प्रति।-देवी चेरियन

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