Edited By ,Updated: 22 May, 2019 02:58 AM
अब जबकि कटुतापूर्ण माहौल में लड़े गए 17वीं लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हो गए हैं ऐसे में हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या इस मताधिकार के सम्पन्न होने पर हमें खुशी मनानी चाहिए। सैद्धांतिक तौर पर लोकतंत्र की नींव स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों पर टिकी...
अब जबकि कटुतापूर्ण माहौल में लड़े गए 17वीं लोकसभा के चुनाव सम्पन्न हो गए हैं ऐसे में हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या इस मताधिकार के सम्पन्न होने पर हमें खुशी मनानी चाहिए। सैद्धांतिक तौर पर लोकतंत्र की नींव स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों पर टिकी है। ऐसा माना जाता है कि मत लोगों की पसंद को अभिव्यक्त करता है जो लोगों और नीतियों संबंधी चर्चा पर आधारित होती है। इन चुनावों के दौरान सामने आई दुर्बल प्रक्रिया इस मूलभूत धारणा के खिलाफ रही है।
ऐसे शत्रुतापूर्ण, गाली-गलौच तथा लगभग अश्लीलता वाले राजनीतिक संवाद के साथ सम्पन्न हुए इन चुनावों के नतीजे के तौर पर आने वाले जनादेश की नैतिक वैधता संदिग्ध ही मानी जाएगी। चुनाव परिणामों की विश्वसनीयता भी संदेह के दायरे में है क्योंकि विपक्ष लगातार ई.वी.एम. की विश्वसनीयता पर आशंका जता रहा है। विपक्ष का कहना है कि इन मशीनों के साथ छेड़छाड़ हो सकती है। चुनावों के दौरान कुछ राज्यों में करोड़ों रुपए तथा नशीले पदार्थ जब्त होना और कुछ राज्यों में चुनावी हिंसा चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता व शुद्धता के दावे की खिल्ली उड़ाती है। अंधाधुंध प्रचार और फेक न्यूज, नेताओं की छवि पर प्रहार तथा इसके परिणामस्वरूप भावनात्मक दरारें लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लचीलेपन की उपेक्षा करती है। कुल मिलाकर यह चुनाव इतने अधिक गुस्से, घृणा और ईष्र्या वाले रहे हैं जितने पहले कभी नहीं रहे।
मतदान के माध्यम से मिलने वाले जनादेश और सर्वसम्मति का सम्मान करना संसदीय लोकतंत्र की परम्परा रही है लेकिन आज इस पर भी सवाल उठने शुरू हो गए हैं। इस बिगड़ी हुई चुनावी प्रक्रिया ने नागरिकों को भी एकजुट करने की बजाय बांट कर रख दिया है। इसका चुनी हुई सरकार की वैधता और नैतिक अपील पर बुरा असर पड़ा है। मूलभूत मुद्दे जो चुनाव प्रचार का मुख्य आधार होने चाहिएं थे उन्हें नजरअंदाज कर दिया गया। लोगों के सामने मजबूत सरकार की पसंद थोपने की कोशिश की गई जबकि एक उदार लोकतंत्र के लिए संवैधानिक तथा उत्तरदायी सत्ता ज्यादा जरूरी है।
इस चुनाव में स्वतंत्रता और डर, सद्भाव और घृणा, समावेश और बहिष्कार, न्याय और अन्याय में से विकल्प चुनने की स्थिति रही। कृषि संकट, बढ़ती बेरोजगारी, खराब आर्थिक स्थिति, पर्यावरण संबंधी चुनौतियां, बढ़ती असमानता आम आदमी के मुख्य मुद्दे थे जिन्हें नजरअंदाज कर दिया गया। इन अहम मुद्दों को छोड़ कर वैकल्पिक नैरेटिव बनाने की कोशिश की गई। राष्ट्र जीवित व स्वर्गवासी लोगों के प्रति नेताओं की असंवेदनशीलता तथा अपमानजनक टिप्पणियों से स्तब्ध है।
यह सब लोकतंत्र के पतन और एक राष्ट्र के सभ्य जड़ों से खतरनाक स्थिति की ओर जाने का संकेत है। हम जानते हैं कि किसी लोकतांत्रिक देश की महानता उसके बाहुबली होने में नहीं बल्कि न्यायकारी होने में है। राष्ट्र के मुख्य मूल्यों के लिए संघर्ष एक सतत् प्रक्रिया है जो इन झगड़ालू चुनावों के बावजूद जारी रहेगी क्योंकि लोकतांत्रिक देश में लोगों द्वारा सरकारों का चयन बार-बार किया जाता रहेगा क्योंकि यह हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है। बहरहाल इन चुनावों से यह सबक मिलता है कि प्रचार के दौरान सार्वजनिक संवाद का स्तर जिस हद तक गिरा दिया गया उससे बचना होगा ताकि लोकतंत्र की मर्यादा भीड़तंत्र के हवाले न हो जाए। हम अपने लोकतंत्र को इसके हाल पर नहीं छोड़ सकते क्योंकि लोकतांत्रिक प्रणाली की सुंदरता लोगों को मिलने वाली आजादी और गौरव में है।
भारतीय लोकतंत्र को संकेत चिन्हों की जरूरत है। इसे लोकलुभावनवाद की सीमाओं को समझना होगा। ऐसे समय में जबकि कई देशों में लोकतांत्रिक प्रणाली कमजोर हो रही है और लोगों का धैर्य खत्म हो रहा है तो भारत ‘लोकतांत्रिक मंदी’ को रोक कर उन्हें आशा की किरण दिखा सकता है। वह ऐसा गरिमापूर्ण राजनीति का दायरा बढ़ाकर कर सकता है। राष्ट्रीय नवीकरण के लिए हमें राजनीति की सीमाएं परिभाषित करनी होंगी। यह चुनाव इस उद्देश्य की पूॢत के लिए नेताओं के लिए एक अवसर है। हम सबको आत्ममंथन की जरूरत है।-अश्वनी कुमार