आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए बैंकिंग प्रणाली में सुधार की जरूरत

Edited By Pardeep,Updated: 19 May, 2018 02:48 AM

need to improve banking to tackle economic challenges

बैंकिंग प्रणाली किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह किसी भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी कहलाती है क्योंकि यह समाज के सभी वर्गों के लिए ऋण की जरूरतें पूरी करती है। भारत न केवल विश्व का सबसे बड़ा स्वतंत्र लोकतंत्र है...

बैंकिंग प्रणाली किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह किसी भी अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी कहलाती है क्योंकि यह समाज के सभी वर्गों के लिए ऋण की जरूरतें पूरी करती है। भारत न केवल विश्व का सबसे बड़ा स्वतंत्र लोकतंत्र है बल्कि एक उभरती हुई बड़ी अर्थव्यवस्था भी है। एक मजबूत तथा प्रभावी बैंकिंग प्रणाली के बिना किसी भी देश की स्वस्थ अर्थव्यवस्था नहीं हो सकती। 

आज के समय में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्र यह है कि हमारी बैैंकिंग प्रणाली द्वारा जिन सिस्टम्स तथा नीतियों को अपनाया गया है क्या वे किसी ऐसी अर्थव्यवस्था के लिए सुचालक हैं, जिसकी कुछ अपनी विशेषताएं हैं, जो विश्व में किसी अन्य देश में नहीं हैं अथवा क्या प्रणाली पर दोबारा नजर डालने की जरूरत है? द बासेल कमेटी आन बैंकिंग सुपरविजन (बी.सी.बी.एस.) बैंकिंग पर्यवेक्षी अधिकारियों की एक समिति है जिसका गठन 1974 में किया गया था। इसका उद्देश्य प्रमुख पर्यवेक्षी मुद्दों की समझ को बढ़ाना तथा विश्व भर में बैंकिंग पर्यवेक्षण की गुणवत्ता में सुधार करना है। बी.सी.बी.एस. बाध्यकारी नियम जारी नहीं करती बल्कि एक अनौपचारिक मंच के तौर पर कार्य करती है जिसमें नीति समाधान तथा मानकों को विकसित किया जाता है। 

विभिन्न देशों ने अपनी जरूरतों के हिसाब से कई तरह के दिशा-निर्देशों तथा अलग टाइम-फ्रेम्स को अपनाया है। मगर भारत एक ऐसा देश है जो इन्हें अधिक गम्भीरतापूर्वक लेता है और जरूरत से अधिक जोश के साथ इन्हें लागू करने का प्रयास करता है, जिस पर बासेल समिति ने भी गौर किया है। जब अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही हो तो ऐसे कड़े नियम अच्छे हैं, मगर जब अर्थव्यवस्था में मंदी हो तो हमें वर्तमान आॢथक परिदृश्य में सोचना होगा कि कहीं हम अत्यधिक सख्त तथा छद्म नीतिज्ञ बनकर अपनी आॢथक प्रणाली को मार तो नहीं रहे। 

कुछ ऐसे प्रश्र हैं जिनके उत्तर हमें चाहिएं: 
1. क्या हमें पता है कि हम विश्व में एक विलक्षण देश हैं जिसकी इतनी बड़ी जनसंख्या अशिक्षित अथवा कम शिक्षित है तथा चीन के मुकाबले लगभग एक चौथाई भूभाग पर रहती है जबकि दोनों की जनसंख्या लगभग बराबर है?
2. हमारे प्रधानमंत्री ‘मेक इन इंडिया’ को लेकर गम्भीर हैं मगर क्या हम वास्तव में ऐसा होने दे रहे हैं?
3. क्या हम अपने खुद के काल्पनिक छद्म नीतिज्ञ विश्व में रह रहे हैं?
4.क्या हम नियमों तथा प्रणालियों के नाम पर खुद अपने हाथों से अपनी अर्थव्यवस्था को मार रहे हैं?
5. क्या हम वास्तव में विश्व में सर्वाधिक विकसित अर्थव्यवस्था हैं क्योंकि हम ऐसे कड़े मानदंडों के साथ नियामक प्रणालियां लागू कर रहे हैं?
6. क्या हम अपनी अलग जरूरतों तथा गतिशीलता के अनुरूप समाधान तलाश रहे हैं, जो विलक्षण हों, मगर हां, अंतर्राष्ट्रीय रुझानों को ध्यान में रखते हुए? 

आर्थिक स्थितियों के अलावा हमारी मूल समस्याएं गैर निष्पादित पूंजी (एन.पी.ए.) से आती हैं। इनमें लीज पर दी गई पूंजी भी शामिल होती है जो तब गैर निष्पादित बन जाती है जब बैंक को इससे आय होनी बंद हो जाती है। गैर निष्पादित पूंजी अथवा एन.पी.ए. एक ऐसा ऋण अथवा एडवांस होता है जिसकी मूल पूंजी या किस्त 90 दिनों से अधिक समय तक अतिदेय रहती है। दरअसल एन.पी.ए. के नियम सैक्टर की गतिशीलता के अनुसार निर्धारित किए जाने चाहिएं और व्यापक तौर पर विभिन्न श्रेणियों के लिए इन्हें कुछ इस तरह से निर्दिष्ट किया जाना चाहिए: 

रिटेल के मामले में 90 दिन ठीक हैं जबकि एम.एस.एम.ई. के लिए ये कम से कम 180 दिन होने चाहिएं और उद्योगों के लिए ये कम से कम 270 दिन होने चाहिएं जबकि कृषि क्षेत्र के लिए वर्तमान नियमों से काम चल सकता है यदि गन्ने तथा अन्य फसलों के लिए भुगतान में विलंब न हो। छद्म नीतिज्ञ कह सकते हैं कि यह वित्तीय अनुशासन की ओर वापस जाने की तरह है, मगर मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि वैश्विक अर्थव्यवस्था हजारों वर्षों से दौड़ रही है और ये 90 दिन के नियम कुछ वर्ष पूर्व ही लागू किए गए हैं जो अर्थव्यवस्था के इतिहास में एक बहुत छोटा-सा समय है। 

अब प्रश्र यह उठता है कि क्या हमें अपनी नीतियां उन मानदंडों के आधार पर बनानी चाहिएं जो कुछ मूर्खों ने बनाए थे तथा जो अर्थव्यवस्था की गतिशीलता को नहीं समझते और यदि वे समझते हैं तो वे वित्तीय प्रणालियों के ऐसे कड़े कृत्रिम व्यासमापनों के प्रभाव को नहीं समझते। दक्षिण कोरिया जैसे कुछ देश अभी भी 180 दिनों के नियम पर चल रहे हैं क्योंकि वे समस्या की व्यावहारिकता को समझते हैं। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते जब हमारा बैंकिंग सैक्टर विश्व में सर्वोच्च रिजर्व रेशो के माध्यम से सुरक्षित है। 90 दिन का मानदंड बैंकरों तथा उधार लेने वालों, बैंकरों तथा ऑडिटरों, बैंकरों तथा नियामकों और बैंकरों तथा सरकार के बीच कई तरह के मुद्दे पैदा करता है। 

जरूरत इस बात की है कि कोर सैक्टर तथा आधारभूत ढांचे के लिए अलग वित्तीय संस्थानों का निर्माण किया जाए जिसमें विशेषज्ञता प्राप्त कार्यबल तथा प्रबंधन हो ताकि वे देश की जरूरतों को पूरा कर सकें और उनकी आर्थिक कीमत को फिर से बहाल किया जा सके तथा बैंक केवल वही करें जिस कार्य को करने में वे सर्वश्रेष्ठ हैं। इसके लिए जरूरत है निर्णय लेने वालों के स्तर पर शीघ्र निर्णय लेने की, इससे पहले कि हमारे देश में ‘मेक इन इंडिया’ की संस्कृति को उबारने में काफी देर हो जाए क्योंकि विकास करने के लिए हमारे पास उद्यमिता तथा दृढ़निश्चय की कमी नहीं है।-संजय कपूर

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