Edited By ,Updated: 06 Jun, 2019 04:12 AM
एक बार फिर नादान बिल्लियों की लड़ाई में बंदर रोटी ले उड़ा। एक बार फिर भारतीय भाषाओं के नासमझ झगड़े की आड़ में अंग्रेजी ने अपना वर्चस्व सुनिश्चित कर लिया। एक बार फिर भाषा के सवाल पर गम्भीर राष्ट्रीय बहस शुरू होने से पहले ही बंद हो गई। एक बार फिर...
एक बार फिर नादान बिल्लियों की लड़ाई में बंदर रोटी ले उड़ा। एक बार फिर भारतीय भाषाओं के नासमझ झगड़े की आड़ में अंग्रेजी ने अपना वर्चस्व सुनिश्चित कर लिया। एक बार फिर भाषा के सवाल पर गम्भीर राष्ट्रीय बहस शुरू होने से पहले ही बंद हो गई। एक बार फिर महारानी अंग्रेजी जोर से हंसी।
सब कुछ इतने आनन-फानन में हुआ कि ठीक से समझ आने से पहले ही मामला सुलटा भी दिया गया। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप दिसम्बर 2018 में वैज्ञानिक कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता की समिति बना चुकी थी लेकिन उसे सार्वजनिक चर्चा के लिए अभी जारी किया गया। जारी होते ही तमिलनाडु में द्रमुक के अध्यक्ष एम.के. स्टालिन ने हिंदी थोपने की साजिश के खिलाफ गंभीर आपत्ति दर्ज करवाई। बहती गंगा में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और कांग्रेस नेता पी. चिदम्बरम आदि ने भी हाथ धो लिए। सही मौका देख कर अंग्रेजी अखबारों ने अंग्रेजी भाषा के आधिपत्य पर इस रिपोर्ट में की गई टिप्पणियों की खिल्ली उड़ाते हुए कुछ संपादकीय भी जड़ दिए।
आलोचना पर तेजी से काम
विपक्षियों की आलोचना और अंग्रेज दां बुद्धिजीवियों की टिप्पणियों पर कान देना इस सरकार की फितरत नहीं है लेकिन इस आलोचना पर बिजली की फुर्ती से काम हुआ। सरकार ने तत्काल स्पष्ट किया कि यह महज एक प्रारूप है, अभी तो सार्वजनिक चर्चा के लिए रखा गया है। फिर नवनियुक्त विदेश मंत्री जयशंकर ने स्पष्ट किया कि तमिल या अन्य गैर ङ्क्षहदी भाषी लोगों पर हिंदी लादने का सवाल ही नहीं उठता है। यही नहीं, 24 घंटे के भीतर सरकार ने कस्तूरीरंगन पर दबाव डाल कर उनसे प्रारूप का वह पैरा बदलवा दिया जिस पर आपत्ति की जा रही थी। चाय के प्याले में उठा तूफान थम गया। स्टालिन ने अपनी पीठ ठोंकी और सब कुछ यथावत चलता रहा।
दिक्कत सिर्फ इतनी थी कि वह बात, जो उनको बहुत नागवार गुजरी थी, उसका सारे अफसाने में कहीं जिक्र तक नहीं था यानी कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के इस मसौदे में कहीं भी गैर ङ्क्षहदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने का कोई प्रस्ताव है ही नहीं। मैंने इस दस्तावेज को बहुत ध्यान से पढ़ा और इसमें न तो ङ्क्षहदी को राष्ट्रभाषा कहने की भूल की गई है, न इसके लिए कोई विशेष दर्जा मांगा गया है और न ही हिंदी की विशेष वकालत करते हुए एक वाक्य तक लिखा गया है।
बहुभाषिकता की वकालत
दरअसल यह दस्तावेज भारतीय संदर्भ में बहुभाषिकता की वकालत करता है। हमें दुनिया भर के शिक्षाविदों की इस समझदारी की याद दिलाता है कि बच्चा अपनी मां की भाषा या अपने घर में बोलचाल की भाषा में शिक्षा ग्रहण करे तो सबसे बेहतर है। साथ ही यह याद दिलाता है कि 3 से 8 साल तक का बच्चा अनेक भाषाएं एक साथ मजे से सीख सकता है। जिस घर में अंग्रेजी नहीं बोली जाती उसके बच्चे को इंग्लिश मीडियम में शिक्षा दिलाना बच्चे की नैसर्गिक प्रतिभा को कुंद करता है।
दस्तावेज अंग्रेजी भाषा के खिलाफ नहीं है, बल्कि कहता है कि सब बच्चों के लिए अंग्रेजी सीखने की व्यवस्था होनी चाहिए लेकिन एक भाषा के रूप में। अंग्रेजी के माध्यम से गणित विज्ञान या समाज विज्ञान को पढ़ाने से बच्चे की समझ कम होगी। यह दस्तावेज भारतीय भाषाओं को ज्यादा मौका देने और उसमें उपलब्ध स्रोत को बेहतर बनाने की वकालत करता है। बहुत समय बाद किसी सरकारी दस्तावेज ने शिक्षा में भाषा के सवाल पर गंभीरता और साफगोई से कुछ बातें कही हैं। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के इस मसौदे को भाजपा समर्थन या भाजपा विरोध के चश्मे से देखना गलत होगा।
विवाद किस बात का
तो फिर विवाद किस बात का है? विरोधियों की आपत्ति इस प्रारूप में त्रिभाषा फार्मूले के जिक्र को लेकर है। त्रिभाषा फार्मूले का मतलब है कि स्कूल में गैर हिंदी भाषा-भाषी प्रांतों में बच्चे को प्रदेश की भाषा के अलावा हिंदी और अंग्रेजी पढ़ाई जाएगी। हिंदी भाषी प्रदेश में उसे हिंदी और अंग्रेजी के साथ कोई एक भारतीय भाषा पढऩी होगी। आपत्ति यह थी कि त्रिभाषा फार्मूले का परिणाम यह होगा कि गैर हिंदी प्रदेशों में बच्चों को जबरन हिंदी पढऩी पड़ेगी।
मजे की बात यह है कि त्रिभाषा फार्मूला कोई आज का सुझाव नहीं है। यह कम से कम 50 साल पुरानी सरकारी नीति है। त्रिभाषा फार्मूला सबसे पहले 60 के दशक में भाषाई विवाद को सुलझाने के लिए एक राजनीतिक सहमति से बना था। देश की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति में सन् 1968 में इसे शामिल किया गया था। व्यवहार में इसे बहुत कम राज्यों में लागू किया गया। तमिलनाडु ने इसे सीधे तौर पर खारिज कर दिया। ङ्क्षहदी भाषी प्रदेशों ने भी चोर दरवाजे निकाल लिए ताकि अपने बच्चों को दक्षिण-पश्चिम और पूर्वी भारत की भाषाएं न सिखानी पड़ें। संस्कृत की खानापूरी वाली शिक्षा के नाम पर तीसरी भाषा की औपचारिकता पूरी कर दी गई लेकिन कागज पर त्रिभाषा फार्मूला एक सरकारी नीति के रूप में बरकरार रहा। दूसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने 1992 तक इस फार्मूले को दोहराया।
अगर त्रिभाषा फार्मूला व्यवहार में लागू ही नहीं हो रहा तो उस पर इतनी आपत्ति क्यों? पहली नजर में यह मामला सिर्फ कुछ तात्कालिक राजनीतिक पैंतरेबाजी का लग सकता है। भाजपा को तमिलनाडु में घुसने से रोकने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि उस पर ङ्क्षहदी वादी होने का लेबल चिपका दिया जाए लेकिन दरअसल खेल कुछ गहरा है। नई नीति से त्रिभाषा फार्मूले का जिक्र तक हटवा देना अंग्रेजी के वर्चस्व की औपचारिक स्वीकारोक्ति है।
जब तक कागज पर त्रिभाषा फार्मूला रहेगा, तब तक वह हमें इस देश के बहु भाषा चरित्र के बारे में याद दिलाएगा। जिस देश में चारों तरफ इंगलिश मीडियम स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे हों वहां त्रिभाषा फार्मूले की बात करना अपने आप में एक मजाक है। अब हमारा शासक वर्ग इस मजाक और अपराध बोध से मुक्ति चाहता है। सवाल है कि हमारी संस्कृति में गौरव का झंडा उठाने वाली यह ‘मजबूत’ सरकार अपने ही दस्तावेज के पक्ष में खड़ी होकर भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए आगे क्यों नहीं आ रही है?-योगेन्द्र यादव