‘अदालत की अवमानना’ कानून पर पुनर्विचार की जरूरत

Edited By ,Updated: 28 Aug, 2020 02:48 AM

need to reconsider contempt of court law

नागरिक अधिकार कार्यकत्र्ता तथा सुप्रीमकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ जून 2009 के अवमानना मामले ने 25 अगस्त को एक दिलचस्प मोड़ ले लिया जब शीर्ष अदालत की एक तीन सदस्यीय पीठ, जिसकी अध्यक्षता जस्टिस अरुण मिश्रा कर रहे हैं, ने मुख्य...

नागरिक अधिकार कार्यकत्र्ता तथा सुप्रीमकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ जून 2009 के अवमानना मामले ने 25 अगस्त को एक दिलचस्प मोड़ ले लिया जब शीर्ष अदालत की एक तीन सदस्यीय पीठ, जिसकी अध्यक्षता जस्टिस अरुण मिश्रा कर रहे हैं, ने मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे को यह मामला एक ‘उचित पीठ’ के सामने रखने का आग्रह किया। जस्टिस मिश्रा का कहना है, ‘‘मेरे पास समय कम है। मैं अपना पद छोड़ रहा हूं...यह सजा का प्रश्न नहीं है। यह संस्था में विश्वास का प्रश्न है, जब लोग अदालत में राहत के लिए आते हैं। जब वह विश्वास टूट जाता है, वह एक समस्या है।’’ 

अवमानना मामले को लेकर न्यायविदों, राजनीतिज्ञों तथा सामान्य जनता की ओर से तीखी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की गईं। दरअसल प्रशांत भूषण के खिलाफ अदालत की अवमानना के मामले ने एक व्यापक आयाम हासिल कर लिया है। कम से कम 1500 वकील उनके समर्थन में आ गए। मामले की गंभीरता को देखते हुए मुझे आशा है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे मामले से संबंधित सभी तथ्यों के साथ-साथ 1971 के अदालत अवमानना मामले,जिसका भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली के साथ टकराव हो रहा है, जो संविधान के अनुसार बोलने तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक आधारभूत अधिकार के तौर पर महत्व देती है, पर नजरसानी करने के लिए एक संवैधानिक पीठ का गठन करेंगे। 

मुझे बहुत अच्छा लगेगा यदि मुख्य न्यायाधीश द्वारा गठित नई पीठ उन विदेशी लोकतंत्रों की कार्यप्रणाली पर नजर डाले जिन्होंने ‘एक तानाशाहीपूर्ण कानून’ के नाते अवमानना मामलों पर कार्य किया है। अमरीकी अदालतों ने अवमानना कानून का इस्तेमाल बंद कर दिया है। इंगलैंड ने 2013 में ‘अदालत की ङ्क्षनदा करने’ के अपराध को समाप्त कर दिया था। कनाडा ने भी इस तरह की कार्रवाई को आवश्यक श्रेणी में नहीं रखा है। दिलचस्प बात यह है कि भारत के विधि आयोग ने सुझाव दिया है कि अदालत की अवमानना से संबंधित धारा को नागरिक अवमानना तक सीमित रखा जाए, अर्थात अदालत के निर्णय का जानबूझ कर उल्लंघन करना। आपराधिक कानून के संबंध में वर्तमान धाराओं पर फिर से करीबी नजर डालने की जरूरत है। 

प्रशांत भूषण मामले में पूर्व महाधिवक्ता एवं न्यायविद् सोली सोराबजी ने कहा था कि कोर्ट पहले ट्वीट को नजरअंदाज कर सकती थी तथा दूसरा ट्वीट महज एक राय थी। उन्होंने पूछा, ‘‘लोगों की अलग मान्यताएं हैं। क्या आप लोगों को उन मान्यताओं के लिए सजा देते हैं जो सुप्रीम कोर्ट को पसंद नहीं?’’ मेरे दिल में अपने देश की सर्वोच्च अदालत के लिए अत्यधिक सम्मान है। मैं इसे लोकतंत्र तथा बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षक मानता हूं। इसलिए इसके निर्णयों का बोलने की स्वतंत्रता पर विपरीत असर नहीं होना चाहिए। सुप्रीमकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश वी.आर. कृष्णा अय्यर ने एक बार अवमानना कानून को ‘अनिश्चित सीमाओं के साथ अस्पष्ट तथा भटके हुए अधिकार क्षेत्र’ की संज्ञा दी थी। उनके अनुसार यह पूर्व धारणाओं का मामला हो सकता है। 

इस संवेदनशील मामले में दृष्टिकोण अलग हो सकते हैं। जहां तक 3 सदस्यीय पीठ का मामला है। इसने प्रसिद्ध अधिवक्ता को आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराया है। यद्यपि प्रशांत भूषण का इस मामले में अपना दृष्टिकोण है। उनका कहना है कि उन्हें ‘गलत समझा गया है’। इसलिए उन्होंने माफी मांगने से इंकार कर दिया है।

दिमागों की इस लड़ाई के बीच 21 अगस्त को शीर्ष अदालत ने उनसे  ‘पुनॢवचार’ करने के लिए कहा तथा ‘बिना शर्त माफी’ के लिए 24 अगस्त की समय-सीमा निर्धारित कर दी। प्रशांत भूषण ने अपने वक्तव्य में ‘माफी’ को लेकर अपने पहले वाले रवैये को दोहराया है। उनका कहना है कि उनके ट्वीट्स का ‘भारतीय लोकतंत्र के इस महत्वपूर्ण स्तम्भ की नींव को अस्थिर करने का कोई प्रभाव नहीं है।’ नजर डालते हैं दो विवादास्पद ट्वीट्स पर। पहला ट्वीट मुख्य न्यायाधीश शरद ए. बोबडे के चित्र को लेकर था जिसमें उन्हें एक भारी-भरकम मोटरबाइक पर सवार दिखाया गया था। दूसरे ट्वीट में भावी पीढ़ी बारे बात की गई थी जो गत 6 वर्षों के दौरान शीर्ष अदालत द्वारा निभाई गई भूमिका पर अमल करेगी। 

सुप्रीमकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस कुरियन जोसेफ का विचार है कि अवमानना मामले को एक संवैधानिक पीठ द्वारा सुना जाना चाहिए और इस मामले में एक ‘इंट्रा-कोर्ट’ अपील करने का आह्वान किया है। उन्होंने कहा कि इस तरह के महत्वपूर्ण मामलों  को व्यक्ति की उपस्थिति में सुना जाना चाहिए जहां व्यापक रूप से चर्चा की संभावना होती है। 

लोग आएंगे और चले जाएंगे लेकिन भारत की सुप्रीमकोर्ट हमेशा न्याय की अदालत बनी रहनी चाहिए। उनका मानना है कि यह मामला कम से कम सात सर्वाधिक वरिष्ठ जजों की पीठ द्वारा सुना जाना चाहिए। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढा ने हैरानी जताई है कि क्यों महामारी के दौरान सुप्रीमकोर्ट ने अपने तौर पर आपराधिक मामले में एक प्रसिद्ध अधिवक्ता के खिलाफ एक वर्चुअल कोर्ट हियरिंग के माध्यम से शीघ्र सुनवाई का कदम उठाया। अटार्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने कहा है कि बहुत से पदेन तथा सेवानिवृत्त जजों ने अतीत में संस्थान बारे बात की है। यह अदालत को  न्याय में विकास के लिए सुधारों बारे बताने के लिए था। उनका कहना है कि उन्हें (प्रशांत भूषण) सजा देना आवश्यक नहीं है। अपनी 24 अगस्त की टिप्पणी में नागरिक अधिकार कार्यकत्र्ता ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उनके ट्वीट उनकी निष्कपट मान्यताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें वह बनाए रखे हैं और इनके लिए माफी, सशर्त अथवा बिना शर्त कपट तथा उनकी अंतरात्मा के प्रति मान-हानि के तुल्य होगी। 

यहां यह बताए जाने की जरूरत है कि अदालत की अवमानना से संबंधित वर्तमान कानून एक तरह से अनिश्चित, अपरिभाषित तथा असंतोषजनक है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को उचित महत्व दिया जाना चाहिए, जैसा कि संविधान द्वारा प्रदत्त है। इसके साथ ही हमें अदालतों के दर्जे तथा गरिमा की भी परवाह करनी चाहिए। निश्चित तौर पर लोकतंत्र हमारे संविधान का मुख्य तत्व है। हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में असहमति की आवाजें भी। ऐसे समय में हमारी न्याय पालिका से लोकतंत्र की भावना को मजबूत किए जाने की आशा की जाती है। अदालत की अवमानना मामले को अहं का मामला नहीं बनने देना चाहिए।-हरि जयसिंह
 

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