नई कृषि नीति से ‘शहरी उपभोक्ता’ भी पिसेगा

Edited By ,Updated: 29 Sep, 2020 03:32 AM

new agricultural policy will affect urban consumers

किसान का सबसे करीबी रिश्तेदार व्यापारी नहीं बल्कि वह उपभोक्ता है, जो उसकी उपज से अपना पेट भरता है। उसी ने किसान को अन्नदाता का नाम दिया है। व्यापारी तो किसान और उपभोक्ता के बीच की कड़ी है। मगर नए कृषि कानूनों ने यह रिश्ता समाप्त

किसान का सबसे करीबी रिश्तेदार व्यापारी नहीं बल्कि वह उपभोक्ता है, जो उसकी उपज से अपना पेट भरता है। उसी ने किसान को अन्नदाता का नाम दिया है। व्यापारी तो किसान और उपभोक्ता के बीच की कड़ी है। मगर नए कृषि कानूनों ने यह रिश्ता समाप्त कर दिया है। अब किसान कच्चे माल का उत्पादक होगा, कार्पोरेट उसके इस माल से पैक्ड प्रोडक्ट तैयार करेगा और वह उपभोक्ता को बेचेगा। अब किसान अन्नदाता नहीं रहेगा, न उपभोक्ता के साथ उसका कोई भावनात्मक रिश्ता रहेगा। उपभोक्ता भूल जाएगा कि गेहूं कब बोया जाता है अथवा अरहर कब पकती है। सरसों पेड़ पर उगती है या उसका पौधा होता है? 

हमारा यह कृषि प्रधान भारत देश यूरोप के देशों की तरह पत्थरों का देश समझा जाएगा अथवा चकाचौंध कर रहे कार्पोरेट हाऊसिज का। सरसों के पौधों से लहलहाते और पकी हुए गेहूं की बालियों को देख कर ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है!’ गाने वाले कवि अब मौन साध लेंगे। किसान संगठन भी अब मायूस हो जाएंगे या बाहर हो जाएंगे। किसान का नाता शहरी जीवन से एकदम समाप्त हो जाएगा। ‘उत्तम खेती मध्यम बान, निषिध चाकरी भीख निदान!’ जैसे कहावतें भी अब भूल जाएंगे। अब किसान दूर कहीं फसल बोएगा और सुदूर शहर में बैठा उपभोक्ता उसको खरीदेगा। इस फसल की कीमत और उसकी उपलब्धता कार्पोरेट तय करेगा। कुछ फसलें गायब हो जाएंगी। 

नई कृषि नीति न सिर्फ किसान से उसकी उपज छीनेगी, वरन कृषि की विविधता भी नष्ट कर देगी। अभी तक हम कम से कम दस तरह के अनाज और बीस तरह की दालें तथा तमाम किस्म के तेलों के बारे में जानते व समझते थे। हम आनाज मांगेंगे तो गेहूं का आटा मिलेगा, दाल मांगने पर अरहर और तेल मांगने पर किसी बड़ी कम्पनी का किसी भी बीज का तेल पकड़ा दिया जाएगा। 

चावल के नाम पर बासमती मिलेगा। गेहूं, चना, जौ, बाजरा, मक्का, ज्वार आदि का आटा अब अतीत की बात हो जाएगी। यह भी हो सकता है कि आटा अब नंबर के आधार पर बिके। जैसे ए-62 या बी-68 के नाम से। दाल का नाम पी-44 हो और चावल 1124 के नाम से। तब आने वाली पीढिय़ां कैसे जान पाएंगी कि गेहूं का आकार कैसा होता है या चने का कैसा? ज्वार, बाजरा, मक्का और जौ में फर्क क्या है? अरहर के अलावा मूंग, उड़द, मसूर, काबुली चना, राजमा अथवा लोबिया व मटर भी दाल की तरह प्रयोग में लाए जाते हैं। या लोग भूल जाएंगे कि एक-एक दाल के अपने कई तरह के भेद हैं। जैसे उड़द काली भी होती है और हरी भी। इसी तरह मसूर लाल और भूरी दोनों तरह की होती है। 

चने की दाल भी खाई जाती है और आटा भी। चने से लड्डू भी बनते हैं और नमकीन भी। पेट खराब होने पर चना रामबाण है। अरहर में धुली मूंग मिला देने से अरहर की एसिडिटी खत्म हो जाती है। कौन बताएगा कि मूंग की दाल रात को भी खाई जा सकती है। ये जो नानी-दादी के नुस्खे थे, लोग भूल जाएंगे। लोगों को फसलों की उपयोगिता और उसके औषधीय गुण विस्मृत हो जाएंगे। कृषि उपजों से हमारा पेट ही नहीं भरता है, बल्कि इन अनाज, दाल व तिलहन को खाने से हम निरोग भी रहते हैं तथा हृष्ट-पुष्ट बनते हैं। पर यह तब ही संभव है जब हमें यह पता हो कि किस मौसम में और दिन के किस समय हमें क्या खाना है। जैसे शाम को ठंडा दही या छाछ वायुकारक (गैसियस) है और सुबह नाश्ते में दाल, चावल नहीं खाना चाहिए। जाड़े के मौसम में दही और म_ा नुक्सान कर सकता है तथा लू के मौसम में पूरियां। 

इसके अलावा भारत चूंकि एक उष्ण कटिबंधीय देश है, इसलिए यहां पर खान-पान  में विविधता है। हमारी कहावतों और हजारों वर्ष से जो नुस्खे हमें पता चले हैं, उनमें हर महीने के लिहाज से खान-पान का निषेध भी निर्धारित है। जैसे मैदानी इलाकों में चैत्र (अप्रैल) में गुड़ खाने की मनाही है। तो इसके बाद बैशाख में तेल और जेठ (जून) में अनावश्यक रूप से पैदल घूमने का निषेध है। आषाढ़ के महीने में बेल न खाएं और सावन में हरी पत्तेदार सब्जी, भादों (अगस्त) से मट्ठा लेना बंद कर दें। क्वार (सितम्बर) में करेला नुक्सानदेह है तो कार्तिक में दही। 

किसान की उपयोगिता सिर्फ उसके अन्नदाता रहने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह सबसे बड़ा चिकित्सक है। किसी भी परंपरागत किसान परिवार में उपज की ये विशेषताएं सबको पता होती हैं। कब कौन-सी वस्तु खाई जाए और कब उसे बिल्कुल न खाएं। उसकी यही विशेषता उसे बाकी दुनिया के किसानों से अलग करती है। यहां किसान अपनी उपज को बेचने वाला व्यापारी नहीं, बल्कि पूरे देश के लोगों को स्वस्थ रखने वाला अन्नदाता है।-शंभूनाथ शुक्ल 

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