स्वार्थ की खातिर दल बदलने वालों बारे नितिन गडकरी की सही सलाह

Edited By ,Updated: 04 Sep, 2019 12:15 AM

nitin gadkari s right advice about changing parties for the sake of selfishness

इन दिनों देश में विभिन्न दलों के नेताओं में दल-बदली का रुझान जोरों पर है। जिस प्रकार गुड़ को देख कर चींटियां उस ओर ङ्क्षखची चली आती हैं उसी प्रकार आज अपना दल छोड़ कर भाजपा और उसके सहयोगी दलों में आने वालों की एक दौड़-सी लगी हुई है जिनका एकमात्र...

इन दिनों देश में विभिन्न दलों के नेताओं में दल-बदली का रुझान जोरों पर है। जिस प्रकार गुड़ को देख कर चींटियां उस ओर ङ्क्षखची चली आती हैं उसी प्रकार आज अपना दल छोड़ कर भाजपा और उसके सहयोगी दलों में आने वालों की एक दौड़-सी लगी हुई है जिनका एकमात्र उद्देश्य सफलता की लहर पर सवार होकर अपनी स्वार्थपूर्ति करना है। 

इस रुझान की तेजी का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस वर्ष लोकसभा चुनावों के बाद देश के तीन बड़े राज्यों-हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र, जहां इस वर्ष चुनाव होने वाले हैं, में कम से कम 39 बड़े नेता अब तक दल-बदल कर चुके हैं जिनमें से अधिक नेता भाजपा में ही गए हैं। सबसे बड़ा धमाका हरियाणा में हुआ जहां एक-एक करके इनैलो के 10 विधायकों सहित 12 नेता भाजपा में शामिल हो गए और यह सिलसिला लगातार जारी है। अभी 2 सितम्बर को ही महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री और कांग्रेस के विधायक अब्दुल सत्तार भाजपा की सहयोगी शिव सेना में शामिल हो गए। वास्तव में नेतागण सत्ता के मोह में ही अपनी मूल पार्टी को छोड़ कर दूसरी पार्टी में शामिल होते हैं और जब वहां भी उनकी स्वार्थपूर्ति नहीं होती तो वापस अपनी मूल पार्टी में लौटने की सोचने लगते हैं। 

उदाहरण स्वरूप इन दिनों हाल ही में भाजपा में शामिल हुए कोलकाता के पूर्व महापौर और चार बार के विधायक सोवन चटर्जी द्वारा ‘लगातार अपमान से तंग आकर’ भाजपा छोडऩे और तृणमूल कांग्रेस में वापस लौटने पर विचार करने की चर्चा सुनाई दे रही है। सोवन चटर्जी 14 अगस्त को अपनी घनिष्ठ सहयोगी बैशाखी बनर्जी के साथ भाजपा में शामिल हुए थे। मात्र सत्ता के लिए की जाने वाली दल-बदली के रुझान पर टिप्पणी करते हुए केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने 1 सितम्बर को नागपुर में एक सभा में बोलते हुए कहा कि ‘‘नेताओं को अपनी विचारधारा पर टिके रहना चाहिए और पार्टी बदलने से बचना चाहिए।’’ गडकरी ने कहा, ‘‘नेताओं को स्पष्ट रूप से राजनीति का अर्थ समझना चाहिए। राजनीति महज सत्ता की राजनीति नहीं है। महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, पं. जवाहर लाल नेहरू और वीर सावरकर जैसे नेता सत्ता की राजनीति में शामिल नहीं थे।’’ 

श्री गडकरी के विचारों से मिलते-जुलते विचार ही गत 30 जुलाई को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने रांची में संघ के कार्यकत्र्ताओं को संबोधित करते हुए व्यक्त किए थे। उन्होंने कहा था कि : ‘‘अपेक्षा लेकर आने वालों के लिए संघ में जगह नहीं है। सेवा और समर्पण का भाव लेकर आने वाले ही यहां टिकते हैं इसलिए अपेक्षा लेकर आने वालों से हमें बचने की जरूरत है।’’इसके साथ ही उन्होंने संघ के पदाधिकारियों को यह नसीहत भी दी कि वे स्वयंसेवकों को संघ में कोई दायित्व देने से पहले उनके आचार-विचार, व्यवहार और पृष्ठभूमि के विषय में पूरी जांच-पड़ताल कर लें। वास्तव में उक्त बयान में श्री भागवत का इशारा भाजपा की ओर भी था जो संघ का ही एक अंग है और जिसके नेता उक्त मापदंडों को पूरा किए बिना और दल-बदलुओं की विचारधारा तथा नीतियों पर ध्यान दिए बिना ही उन्हें खुले दिल से बाहें फैला कर पार्टी में शामिल करते जा रहे हैं। 

इस लिहाज से देखें तो नितिन गडकरी तथा मोहन भागवत दोनों ने ही सत्ता की खातिर पाला बदलने वालों को सही सलाह दी है, वहीं अपनी पार्टी के नेताओं को भी बिना सोचे-विचारे दल-बदलुओं को पार्टी में शामिल करने के विरुद्ध चेताया है क्योंकि जो अपनी पार्टी का नहीं हुआ वह किसी दूसरी पार्टी का क्या होगा और उसके साथ क्या वफादारी निभाएगा! लिहाजा राजनीति से जुड़े किसी भी व्यक्ति के लिए अपनी मूल पार्टी के साथ जुड़े रह कर जन कल्याण के लिए काम करना ही उचित है क्योंकि दूसरी पार्टी में जाने से उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता और विश्वसनीयता पर प्रश्रचिन्ह लग जाता है और उसकी स्थिति ‘न घर के रहे न घाट के’ वाली हो जाती है।—विजय कुमार

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