Edited By Pardeep,Updated: 05 May, 2018 02:51 AM
पिछले अप्रैल 15 को पटना में जो ‘दीन बचाओ-देश बचाओ’ रैली हुई थी उसमें बिहार के ही नहीं, आस-पास के कई राज्यों के मुसलमान और दलित शामिल हुए थे। इस रैली में मंच से आयोजकों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जमकर तारीफ की और एक बार भी राज्य में हुए...
पिछले अप्रैल 15 को पटना में जो ‘दीन बचाओ-देश बचाओ’ रैली हुई थी उसमें बिहार के ही नहीं, आस-पास के कई राज्यों के मुसलमान और दलित शामिल हुए थे।
इस रैली में मंच से आयोजकों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जमकर तारीफ की और एक बार भी राज्य में हुए सांप्रदायिक तनाव और झगड़ों का जिक्र नहीं किया। माना जा रहा है कि यह रैली नीतीश की शह पर ही हुई थी और सरकारी अमले ने इसके लिए गाडिय़ां तक उपलब्ध करवाई थीं। अनौपचारिक रूप से जिलों के अफसरों को निर्देश था कि वे रैली के बैनर लगी गाडिय़ों को न रोकें। सत्ता में एक बार फिर से सहयोगी बनी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नीतीश के इस रवैये से सतर्क हो गई है। लोकसभा चुनाव मात्र कुछ महीने बाद होने हैं। नीतीश के इस भाव के पीछे दो कारण और दो विकल्प हैं। पहला कारण, रामनवमी के दौरान नए रास्तों से जुलूस निकलने की जिद्द के बाद करीब आधा दर्जन जिलों में हुई हिंसा और दूसरा जिलों में कैडर के स्तर पर सत्ता में वर्चस्व को लेकर बढ़ता वैमनस्य।
भाजपा का एक वर्ग चाहता है कि अगर जिले में कलैक्टर नीतीश की जनता दल (यूनाइटेड) के मन से हों तो एस.पी. भाजपा की राय के अनुसार होने चाहिएं। जाहिर है भाजपा अपना विस्तार करना चाहेगी और इसके लिए शासक वर्ग से अपने लोगों के काम कराना चाहेगी ताकि वोटर आधार बढ़े। नीतीश की पार्टी को ऐसे में कहीं न कहीं सिकुडऩा पड़ेगा या दोयम दर्जे के दल के रूप में धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को भाजपा की छवि में विलीन करना होगा यानी नीतीश भाजपा के रहमो-करम पर अपना राजनीतिक औचित्य बनाने को मजबूर होंगे।
यही वजह है कि इस रैली के संयोजक और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना वली रहमानी के दाहिने हाथ खालिद अनवर को नीतीश ने विधान परिषद का सदस्य भी बनाया। इस रैली में बिहार ही नहीं, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के मुसलमानों ने भी भाग लिया था। रैली की व्यापकता को भविष्य में विपक्षी गठबंधन के संकेत के रूप में देखा जा सकता है और साथ ही नीतीश की उसमें सक्रिय भूमिका भी हो सकती है।
नीतीश ने इसके प्रतिकार के दो रास्ते तलाशे हैं। पहला- राज्य के चुनाव एक साल पहले यानी लोकसभा के चुनाव के साथ 2019 में ही कराए जाएं। ऐसी स्थिति में नीतीश भाजपा से यह सौदा कर सकते हैं, ‘‘राज्य हमारा और देश तुम्हारा’’ यानी जद (यू.) को ज्यादा सीटें विधानसभा चुनाव में और भाजपा को ज्यादा सीटें लोकसभा के लिए। दूसरा विकल्प है फिर एक बार वापस लालू यादव-तेजस्वी यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के साथ 2015 चुनाव की पुनरावृत्ति करते हुए समझौता करना। ‘‘दीन बचाओ-देश बचाओ’’ रैली में मुस्लिम-दलित वर्ग का जमावड़ा था। एक ऐसे समय में जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद तत्काल प्रतिक्रिया के अभाव में दलित भाजपा से नाराज हैं, दलित-मुस्लिम गठजोड़ शायद दूसरे विकल्प के लिए आगे का रास्ता खोल सकेगा।
उधर मुसलमानों के अलावा पिछड़ी जातियों में यह भाव पनप रहा है कि लालू यादव के साथ अन्याय हुआ है क्योंकि वह पिछड़ी जाति से आते हैं। यहां तक कि उच्च जाति के और दबंग भूमिहार वर्ग ने भी जहानाबाद के उपचुनाव में राजद को वोट दिए। जहां लालू के पुत्र तेजस्वी यादव इन भूमिहार और ब्राह्मणों को साधने में लगे हैं (मनोज झा को राज्यसभा सदस्य बनाना इसी कड़ी में है) नीतीश का दलित और मुसलमानों को एक मंच पर लाना भाजपा के लिए खतरे की घंटी बन गया है। बहरहाल न तो भाजपा इस पर कुछ कहने की स्थिति में है और न ही नीतीश अपने पत्ते पूरी तरह खोल रहे हैं।
उधर जहां केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने इसी रामनवमी के दौरान हुए दंगों के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से रिपोर्ट मांगी, वहीं बिहार में इसी अवसर पर भागलपुर, मुंगेर, औरंगाबाद, समस्तीपुर, रोहतास में हुए दंगों के लिए नीतीश सरकार से कुछ भी नहीं कहा क्योंकि डर था कि नीतीश की रिपोर्ट में कुछ ऐसे संगठनों के नाम आएंगे जो भाजपा के नजदीक हैं। बिहार में सब कुछ ठीक नहीं है- हो भी नहीं सकता। अगर भारत में प्रजातंत्र कहीं एक जगह अपने पूर्ण विकृत स्वरूप में है तो वह है बिहार। भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में लालू यादव का 23 साल बाद जेल जाना भले ही अदालती प्रक्रिया के तहत हुआ हो, जनता के एक बड़े वर्ग में इस नेता के प्रति सहानुभूति पैदा कर देता है। हाल के उपचुनाव के नतीजे इसका ताजा उदाहरण है।
जनता यह नहीं पूछती कि न्याय की तराजू इतने सालों तक क्यों नहीं हिली और कैसे यह सिस्टम एक भ्रष्टाचार के आरोपी ही नहीं, चार्ज-शीटेड नेता को चुनाव-दर-चुनाव ‘संविधान में निष्ठा’ की शपथ व्यक्त करवा कर देश के मंत्री पद से नवाजता है? कैसे इस राज्य की जनता किसी खतरनाक और दर्जनों हत्याओं में आरोपी शहाबुद्दीन को एक बार नहीं, पांच बार प्रजातंत्र के सबसे बड़े मंदिर ‘लोकसभा’ में चुन कर भेजती है ताकि वह कानून बना सके? लोकोक्ति तो थी ‘यथा राजा तथा प्रजा’, पर प्रजातंत्र में यह उलट गई और ‘यथा प्रजा तथा राजा’ के रूप में दिखाई देने लगी।
राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भले ही अपना जनाधार नगण्य हो लेकिन यह प्रजातंत्र का विद्रूप चेहरा ही है कि वह पिछले 13 साल से बिहार का ‘भाग्य’ सुधार रहे हैं। इतने साल बाद भी प्रजा उन्हें नहीं समझ पाई और जब नीतीश ने भारतीय जनता पार्टी का 10 साल से ज्यादा का ‘शासकीय साथ’ छोड़ कर अपने धुर विरोधी लालू यादव का- जिनको डेढ़ दशक से ज्यादा समय से कोसते आए थे, हाथ थाम लिया और उन्हें अल्पसंख्यकों और पिछड़ों का सबसे बड़ा मसीहा बताया और भाजपा को सांप्रदायिक बताने लगे। अभी सुहाग की मेहंदी सूखी भी नहीं थी कि पाला बदला जो दुनिया के प्रजातंत्र में एक अनूठी अनैतिकता कही जा सकती है, फिर भाजपा के साथ सरकार बना ली। राजनीति में नैतिकता के पतन का या जनमत के साथ इतना बड़ा धोखा शायद इससे पहले नहीं हुआ था। परन्तु शायद भारत की खासकर धुर जातिवाद में बंटे बिहार की राजनीति में नैतिकता पर खड़े रहना और जनमत के साथ धोखा न करना जंगल कानून में समानता का सिद्धांत शामिल करने जैसा है।-एन.के. सिंह