Edited By ,Updated: 28 Feb, 2020 04:37 AM
कानूनी दाव-पेंच में उलझकर टल रही निर्भया के दोषियों की फांसी पर बहस छिड़ी हुई है। हालांकि फांसी की वांछनीयता पर पूरे विश्व में दशकों से बहस चल रही है लेकिन इसके बावजूद अब तक इसका कोई परिणाम नहीं निकल पाया है। विचारक, न्यायाधीश, न्यायविद् और समाज का...
कानूनी दाव-पेंच में उलझकर टल रही निर्भया के दोषियों की फांसी पर बहस छिड़ी हुई है। हालांकि फांसी की वांछनीयता पर पूरे विश्व में दशकों से बहस चल रही है लेकिन इसके बावजूद अब तक इसका कोई परिणाम नहीं निकल पाया है। विचारक, न्यायाधीश, न्यायविद् और समाज का बुद्धिजीवी वर्ग इस मुद्दे पर एकमत नहीं है। जबकि सदियों से मृत्युदंड का प्रावधान कई देशों की न्याय व्यवस्था का एक अभिन्न अंग रहा है। हालांकि भौगोलिक और ऐतिहासिक वजहों से इसके स्वरूप में भिन्नता देखने को मिलती है। अपने देश में भी जब किसी को फांसी होती है, तो इस पर जोर-शोर से बहस शुरू हो जाती है कि कानून की किताब में ऐसा प्रावधान होना चाहिए या नहीं। इस विषय पर सड़क से लेकर संसद तक काफी बहस छिड़ चुकी है।
भारत में यह बहस पुरानी है कि क्या किसी व्यक्ति को मृत्युदंड देना ठीक है? क्या सचमुच यह सबसे बड़ी सजा है। इसे लेकर दुनिया भर में दो तरह की राय हैं। भारत में भी इस विषय पर विशेषज्ञ दो खेमों में बंटे हुए हैं। एक वर्ग इसका विरोध करता है और चाहता है कि भारत में मृत्युदंड को खत्म कर दिया जाए। दूसरा इसे सही मानता है। सवाल है आज फिर से एक बार आधुनिक युग में इस महत्वपूर्ण विषय पर बहस होनी चाहिए या नहीं? क्या बदलते आधुनिक समाज में मृत्युदंड देना सही है? क्या इस प्रकार की सजा से अपराधों पर अंकुश लगना संभव है? क्योंकि ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत है, जो इस दंड को खत्म करवाना चाहते हैं।
खैर, इस समय देश में फांसी को लेकर दो तरह के मत सामने आ रहे है, एक पक्ष में तो दूसरा इसके विरोध में। जहां एक मत एक सुर में यह कह रहा है कि किसी भी देश में मृत्युदंड देने से कुछ मिले या न मिले लेकिन इससे पीड़ित को इंसाफ जरूर मिलता है व साथ ही समाज में यह सख्त संदेश जाता है कि कोई भी अपराध करके बच नहीं सकेगा, जिससे अपराध नियंत्रण में सहयोग मिलता है। यदि ऐसा है तो मौत की सजा के डर से अपराध खत्म होते व आज पूरी दुनिया अपराधमुक्त होती, क्योंकि सभी समाजों में अतीत में इस दंड का विधान रहा है।
दूसरा नजरिया यह है कि किसी की जान लेने का अधिकार न अदालत को है और न ही सरकार को। फांसी की सजा मध्यकालीन युग की दकियानूसी सोच है, जिसकी आज के सभ्य व आधुनिक समाज में कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। अपराधी को खत्म करने की बजाय अपराध को खत्म करने की जरूरत है, जिसका दूसरे शब्दों में स्पष्ट अर्थ यह है कि अपराधी को सुधरने व प्रायश्चित करने का अवसर मिलना चाहिए।
फांसी जीने के अधिकार के विरुद्ध है और न्याय का सबसे क्रूर तरीका
एमनैस्टी इंटरनैशनल का मानना है कि मृत्युदंड मानवाधिकारों के उल्लंघन की पराकाष्ठा है। वास्तव में यह न्याय के नाम पर व्यवस्था द्वारा किसी इंसान की सुनियोजित हत्या का एक तरीका है। यह जीने के अधिकार के विरुद्ध है, यह न्याय का सबसे क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक तरीका है। आधुनिक विश्व की बात करें तो एमनैस्टी इंटरनैशनल की रिपोर्ट के अनुसार, अब तक 101 देशों ने मृत्युदंड की व्यवस्था पर प्रतिबंध लगा दिया है। साथ ही 33 देश ऐसे भी हैं जहां पिछले 10 वर्षों से एक भी मृत्युदंड नहीं दिया गया है। लेकिन आज भी कुछ देश ऐसे हैं जिनमें मृत्युदंड दिया जाता है। इनमें मुख्यत: चीन, पाकिस्तान, भारत, अमरीका और इंडोनेशिया शामिल हैं। यूं कहें कि आज विश्व के मात्र 58 देशों में फांसी का प्रावधान है। भारत में इस सदी में इस सजा का चलन काफी घटा है। 2004 से लेकर अब तक सिर्फ चार अपराधियों (धनंजय चटर्जी, अजमल कसाब, मोहम्मद अफजल और याकूब मेनन, अन्य दो हैं) को मृत्युदंड दिया गया।
रेप की वारदातों के आंकड़े माखौल उड़ाते हैं
आतंकवाद, बलात्कार एवं हत्या जैसी जिन घटनाओं पर मृत्युदंड की मांग सबसे मुखर होकर उठती है, उनकी जड़ें समाज की ही अन्यायपूर्ण और विभाजनकारी संरचनाओं और पितृसत्तात्मक और हिंसा के महिमामंडन से जुड़ी ग्रंथियों में होती हैं, जिनको जाने-अनजाने में समाज ही फूहड़ गीतों, हिंसक फिल्मों और राजनीतिक स्वीकारोक्ति देकर बढ़ावा देता है। देश में होने वाली रेप की वारदातों के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि कड़े कानूनों के बावजूद रेप की वारदातें कम नहीं हो रही हैं। ये आंकड़े माखौल उड़ाते हैं कानून का और महिला सुरक्षा को लेकर किए जाने वाले तमाम दावों की पोल भी खोलते हैं।-रवि शंकर