जनता की अदालत में प्रशांत भूषण नहीं, स्वयं सुप्रीम कोर्ट ‘कटघरे’ में खड़ा है

Edited By ,Updated: 22 Aug, 2020 02:57 AM

not prashant bhushan in public court but sc itself stands in the dock

प्रशांत भूषण के खिलाफ चल रहा मुकद्दमा जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है यह एक व्यक्ति या वकील की बजाय पूरी व्यवस्था का मुकद्दमा बनता जा रहा है। प्रशांत भूषण को घेरने की कोशिश का नतीजा यह निकला है कि आज खुद सुप्रीम कोर्ट कटघरे में खड़ा

प्रशांत भूषण के खिलाफ चल रहा मुकद्दमा जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है यह एक व्यक्ति या वकील की बजाय पूरी व्यवस्था का मुकद्दमा बनता जा रहा है। प्रशांत भूषण को घेरने की कोशिश का नतीजा यह निकला है कि आज खुद सुप्रीम कोर्ट कटघरे में खड़ा है। जैसे-जैसे अदालत दंड का डर दिखाकर मान-सम्मान मांग रही है, वैसे-वैसे उसका इकबाल घटता जा रहा है। मुकद्दमे से पहले अवमानना हुई हो या नहीं, इस मुकद्दमे के कारण न्यायपालिका की अवमानना जरूर हुई है। अब सवाल एक जज या सुप्रीमकोर्ट की अवमानना की बजाय लोकतंत्र के अस्तित्व का बनता जा रहा है। मुद्दा कोर्ट-कचहरी से बाहर निकल अब जनता की अदालत में आ पहुंचा है।

कोई एक महीना पहले जब अचानक यह मुकद्दमा शुरू हुआ तो कई सवाल उठे थे। लेकिन सवाल कानूनी दांवपेच के थे, न्यायिक प्रक्रिया के थे। जो सुप्रीम कोर्ट केवल अति-महत्वपूर्ण और तात्कालिक मामले सुन रहा था उसे दो ट्वीट पर गौर करने का वक्त कैसे मिल गया? एक निहायत उल-जलूल पटीशन पर सुप्रीम कोर्ट गौर क्यों कर रहा था? इसे स्वीकार करने से पहले कानूनन अटॉर्नी जनरल की जो सम्मति लेनी चाहिए थी वह क्यों नहीं ली गई? आखिर 31 जजों के सुप्रीम कोर्ट में यह मामला न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अदालत में ही क्यों लगा? इस पहले दौर में सुप्रीमकोर्ट की रजिस्ट्री और मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय कटघरे में खड़ा हुआ। इन सवालों का संतोषजनक जवाब न देने के कारण सुप्रीम कोर्ट का नैतिक कद कम हुआ। 

दूसरे दौर में मामले की ताबड़-तोड़ सुनवाई और तुरंत फैसले से कुछ और बड़े सवाल खड़े हुए। अपने 134 पेज के हलफनामे में प्रशांत भूषण ने देश में लोकतंत्र के ह्रास में सुप्रीम कोर्ट की  भूमिका के अनेक साक्ष्य पेश किए। तर्क और दस्तावेजों सहित साबित किया कि पिछले छह साल से सुप्रीमकोर्ट में जो चल रहा है वह लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है। यह भी कि सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकलाप पर उन्होंने जो कहा ठीक वही बात उनसे पहले अनेक लेखक, कानूनी विशेषज्ञ, वकील,पूर्व जज और यहां तक कि निवर्तमान जज भी कह चुके हैं। 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश में इन सब तर्कों और साक्ष्यों का संज्ञान भी नहीं लिया गया, सुनवाई के दौरान प्रशांत भूषण के वकील द्वारा दिए गए तर्कों का जिक्र तक नहीं किया। कोर्ट के मुताबिक प्रशांत भूषण ने जो कहा वह सच था या नहीं यह अप्रासंगिक है। जब देश की सर्वोच्च अदालत यह कहती है कि प्रशांत भूषण के ट्वीट से संवैधानिक लोकतंत्र का प्रमुख स्तंभ हिल जाएगा तो उसमें घबराहट और बौखलाहट का स्वर सुनाई देता है।

इस बार कटघरे में पंच परमेश्वर थे। उन्होंने फैसला सुनाया लेकिन इंसाफ नहीं किया। कुछ ही दिनों में देश भर के वकीलों और न्यायविदों ने इस आदेश के पुर्जे-पुर्जे खोल दिए। पिछले 70 साल के इतिहास में सुप्रीम कोर्ट के चंद ही फैसले थे जिनकी चारों ओर से इस कदर भत्र्सना हुई और खिल्ली उड़ी जैसा कि इस फैसले की। तमाम ऐसे वकीलों और पूर्व न्यायाधीशों ने भी जुबान खोली जो सामान्यत: किसी बयान बाजी से बचते हैं। दर्जनों हाईकोर्ट और सैंकड़ों जिला न्यायालय के सामने वकीलों और इंसाफ पसंद नागरिकों के प्रदर्शन हुए। इस प्रसंग में न्याय के मंदिर की आभा कम हुई। 

इस मुकाबले की परिणीति तीसरे चरण में हुई जब कोर्ट ने सजा पर सुनवाई करने के लिए प्रशांत भूषण को बुलाया। यह संकल्प शक्ति और साहस की परीक्षा थी। इस अग्नि परीक्षा में प्रशांत भूषण कंचन की तरह तप कर निकले। प्रशांत भूषण ने कोर्ट की आंख में आंख डालकर कहा कि कोर्ट ने मुझे जिस काम के लिए दोषी ठहराया है वह तो मेरा धर्म था। मैंने जो बोला सोच समझ कर बोला था। इसलिए मैं न तो उस बयान को वापस लूंगा, और न ही दया की भीख मांगूंगा। जिस बात को मैं सच मानता हूं उसके लिए झूठ-मूठ की माफी मांगना तो न्याय के मंदिर की अवमानना होगी। इस सुनवाई में पासा पलट चुका था। 

जज की जगह प्रशांत भूषण बैठे थे और न्यायाधीश कटघरे में थे। न्यायाधीश 2-3 दिन मांग रहे थे, प्रशांत भूषण टालने से इंकार कर रहे थे। माफी मांगने वाले को तो गिड़गिड़ाते हुए देखा गया है, लेकिन किसी दूसरे से माफी मंगवाने वाले को इस अवस्था में देश ने पहली बार देखा। प्रशांत भूषण में जैसे गांधी जी की आत्मा उतर आई थी। मुजरिम सजा मांग रहा था, मुंसिफ सकपकाया हुआ था। एक ही झटके में सर्वोच्च न्यायालय का इकबाल घट गया। अब मामला चौथे और अंतिम चरण में पहुंच चुका है। कहने को अदालत ने सजा देने का फैसला अभी सुनाना है। लेकिन सच यह है कि अदालत के पास अब कोई रास्ता नहीं बचा है। अगर वह प्रशांत भूषण को जेल भेजते हैं तो चारों तरफ भत्र्सना होगी। अगर बिना गंभीर सजा के छोड़ देते हैं तो जग हंसाई होगी। मामला अब जनता की अदालत में पहुंच गया है। 

एक तरफ वह अदृश्य शक्तियां हैं जो हर असहमति के स्वर को दबाना चाहती हैं। दूसरी तरफ वह दीवाने हैं जो लोकतंत्र को बचाने के लिए कटिबद्ध हैं। जब 25 अगस्त को सजा सुनाई जाएगी तब कटघरे में प्रशांत भूषण नहीं, देश की न्याय व्यवस्था होगी। जैसे आज से पैंतालीस साल पहले उनके पिता शांति भूषण के एक मुकद्दमे ने इंदिरा गांधी के बढ़ते अधिनायकवाद को चुनौती दी थी, उसी तरह प्रशांत भूषण का यह मुकद्दमा  आज अधिनायकवाद के बढ़ते कदम को ठिठकने पर मजबूर कर सकता है, लोकतांत्रिक शक्तियों को एकजुट होने का अवसर दे सकता है।-योगेन्द्र यादव
 

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